बुधवार, 19 मार्च 2008

गुरुबाणी विचार-२०



संग सखा सब तजि गए कोउ न निबहिओ साथ॥
कह नानक ऐह बिपति में टेक एक रघुनाथ॥५५॥

नाम रहिओ साधू रहिओ रहिओ गुरू गोबिन्द॥
कह नानक ऐह जगत में किन जपिओ गुर मंत॥५६॥

राम नाम उर में गहिओ जा के सम नही कोई॥
जिह सिमरत संकट मिटै दरस तुहारो होई॥५७॥१॥



एक दिन सभी संगी साथी तेरा साथ छोड़ जाएगें।ऐसा अक्सर देखनें में आता है कि जो भि हमारा संगी -साथीहो ता है,जिसे भी हम अपना मानते हैं।वह समय आनें पर हमारे साथ नही होते ।ऐसे वक्त में गुरू जी कहते हैं कि एक वह परमात्मा ही है जो हमारे साथ होता है।अर्थात जब हमारा कोई साथ नही देता उस समय एक प्रभु का ही आसरा रह जाता है।जो सदा हमारे साथ रहता है ।
संसार की हरेक वस्तु नष्ट हो जाती है,लेकिन उस प्रभु का नाम ,उस का अस्तित्व कभी नष्ट नही होता।इस संसार में नाम का ध्यान करने वाले साधु भी सदा रहते हैं अर्थात परमात्मा की बंदगी करनें के कारण उस प्रभु के साथ एकाकार हो जाते हैं।जिस कारण वह भी सदा रहते है।और वह गुरू जो हमें इस रास्ते पर चलनें की प्रेरणा देता है,वह सदा रहता है।क्यूँकि वह गुरू तो पहले से ही उस प्रभु से एकाकार हो चुका है।इस लिए उस गुरू के कहे अनुसार जिन लोगो ने गुरू द्वारा दिए गए उपदेशों पर चला हैं,वही उस परमात्मा के साथ जुड़ जाते हैं।
आगे गुरू जी,कहते हैं कि इस प्रकार जिन्होनें ने उस परमात्मा के नाम को अपनें ह्रदय में बसा लिआ है,एसे प्राणियों की किसी के साथ तुलना नही की जा सकती।ऐसे प्राणीयों के सभी संकट प्रभु कृपा से अपने आप नष्ट हो जाते हैं और उन्हें उस परम पिता परमात्मा के दर्शन हो जाते हैं अर्थात वह प्राणी परमात्मा के साथ एकाकार हो जाता है।

मंगलवार, 18 मार्च 2008

गुरुबाणी विचार-१९



दोहरा॥
बल छुटकिओ बंधन परे कछु ना होत उपाए॥
कह नानक अब ओट हरि गज जिउ होहु सहाए॥५३॥

बल होआ बंधन छुटे सभ किछ होत उपाए॥
नानक सब किछ तुमरै हाथ में तुम ही होत सहाए॥५४॥



जब कोई मुसीबत में पड़ जाता है और उस से उबरनें के सभी यत्न बेकार साबित होते हैं।ऐसे समय में कौन सहायता कर सकता है? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए गुरु जी कहते हैं कि ऐसे समय में उस हरि की ओट ही हमारी सहायक हो सकती है।जिस प्रकार भक्त की पुकार सुनकर प्रभु ने अपनें भक्त को बचानें के लिए हाथी का रूप धारण कर लिया था और अपनें भक्त की रक्षा की थी। ठीक उसी प्रकार यदि तूनें प्रभु को पुकारा तो वह तेरी सहयता करनें को आ जाएगा।
आगे गुरू जी,कहते हैं कि उस परमात्मा का संम्बल लेनें से निरबल बलवान हो जाता है और प्रभु कृपा से उस से छूटनें का रास्ता भी मिल जाता है।क्यूँ कि सभी कुछ तो उसी के हाथ में है अर्थात मारने और जिलानें वाला वही तो है।जब सभी कुछ वही कर रहा है तो वह क्यूँ कर हमें नही बचाएगा।वह हमारी सहायता अवश्य करेगा।


सोमवार, 17 मार्च 2008

गुरुबाणी विचार-१८



चिंता ताकी कीजिए जो अनहोनी होइ॥
एह मारग संसार को नानक थिर नही कोइ॥५१॥

जो उपजिओ सो बिनसि है परो आज की कालि॥
नानक हरि गुन गाइ ले छाडि सकल जंजाल॥५२॥


हमारी चिन्ताएं बहुत अजीब होती हैं।हम सदा उन्हीं बातों की चिन्ता करते हैं। जो जीवन में घटित होना निश्चित हैं।इसी लिए गुरू जी कह रहे हैं कि हे,प्राणी चिन्ता तो उस की कर जो अनहोनी होती हो।उस बात की चिन्ता क्या करनी,जो सभी के साथ घटित हो रहा है।यह बात तो निश्चित है कि इस संसार में कुछ भी सदा रहनें वाला नही हैं।जो पैदा होता है उसे मरना ही पड़ता है।यह तो इस संसार का नियम है।इस लिए इस बात को लेकर चिन्ता करनी छोड़ दे।
आगे गुरू जी कहते हैं कि हे प्राणी,जो भी पैदा होता है उस ने निश्चय ही एक दिन नष्ट हो जाना है।यह बात अलग है कि वह आज होगा या कल नष्ट होगा।इस लिए प्रकृति जो अपनें नियम अनुसार कर रही है,उस की चिन्ता छोड़ दे।तुझे तो इस की चिन्ता को छोड़ कर सिर्फ उस परमात्मा का ही ध्यान करना चाहिए।जो तेरे जीवन में काम आएगा।



रविवार, 16 मार्च 2008

गुरुबाणी विचार-१७



निज करि देखिओ जगत में को काहू को नाहि॥
नानक थिर हरि भगति है तिह राखो मन माहि॥४८॥


जग रचना सभ झूठ है जानि लेह रे मीत॥
कहि नानक थिर ना रहै जिउ बालू की भीत॥४९॥

राम गयिओ रावन गयिओ जा कौ बहु परिवार॥
कह नानक थिर कछु नही सुपने जिउ संसार॥५०॥


गुरु जी कहते हैं कि तू यहाँ किस को अपना मान रहा है,किस पर आस्था रख रहा है।इस जगत मे कोई भी तेरा अपना नही है अर्थात सभी अपनें अपनें स्वार्थ के कारण ही तेरे साथ हैं और जो स्वयं कल मिटनें वाला है,वह तुम्हारा साथ कैसे दे पाएगा।क्यूँ कि इस संसार में ऐसा कुछ भी नही है जो सदा कायम रहता है ।गुरु जी कहते हैं ,लेकिन एक परमात्मा की भक्ति ही ऐसी है जो सदा रहनें वाली है ।इस लिए उसे ही अपनें मन मे बसा लो।
गुरु जी बार-बार यही कह रहें है कि यह जगत झूठा है,यह रचना सब झूठ है।वह सब इसी लिए कह रहे हैं क्योकि हम सब इस जीवन को सोये-सोये ही जीते हैं।हम लोग विकारों के वशीभूत होकर जीते हैं.इस तरह जीना ऐसा ही है जैसे हम रात को सोते समय सपनें में जीते हैं।इस लिए वह सब झूठ है।और दूसरी बात यह कि यह सब नाशवान है ,जिस तरह बालू की दिवार दिखती तो है कि वह है,लेकिन वह अगले पल ही फिर बालू हो जानें वाली है।इसी तरह यह संसार है। इस की स्थिरता भी ठीक ऐसी ही है।
आगे गुरु जी कह्ते हैं कि प्रमाण तो तुम्हारे सामनें ही हैं। रामचन्द्र जी भी आए और वह भी चले गए रावण जैसा योधा भी आया और वह भी चला गया ।उस रावण का इतना बड़ा परिवार था लेकिन वह भी नही बचा।इस लिए गुरु जी कह्ते है कि यह सब तो सपनें के समान ही है क्यूँ कि यह स्थिर नही है।जो स्थिर नही है वह सपना ही तो है।


शनिवार, 15 मार्च 2008

गुरुबाणी विचार-१६



स्वामी को ग्रिह ज्यों सदा सुआन तजत नही नित॥
नानक एहि बिधि हरि भजो इक मन होइ इक चित॥४५॥

तीरथ बरत अरु दान करि मन में धरे गुमान॥
नानक निहफल जात तिहि जिउ कुचंर इसनान॥४६॥

सिर कंपिओ पग डगमगे नैन जोति ते हीन॥
कह नानक एहि बिधि भई तौ ना हरि रस लीन॥४७॥


कहा जाता है कि कुत्ता कभी भी अपनें मालिक का घर नही छोड़्ता।भले ही उस का मालिक उसे रूखी-सूखी रोटी देता हो या कभी -कभी रोटी भी ना दे,तो भी कुत्ता कभी मालिक का घर छो्ड़ कर नही जाता।क्योकि कुत्ता अपनें मालिक के प्रति प्रेम के कारण बंधा होता है।वह हर हाल में मालिक का दर छोड़ कर नही जाता।मालिक कई बार कुत्ते को गलती करनें पर मारता भी है,लेकिन कुत्ता मार खा कर भी सदा पूँछ हिलाता मालिक के पीछे चलता रहता है,उस का साथ नही छोड़ता।गुरु जी कहते हैं,हे मनुष्य जिस प्रकार कुत्ता अपनें स्वामी का घर कभी नही छोड़ता,उसी तरह तू भी अपनें मालिक उस परमात्मा का द्वार कभी मत छोड़ना।अर्थात उस परमात्मा का ध्यान एकाग्र हो कर लगाए रहना।सदा उस का भजन करते रहना।
आगे गुरु जी कहते हैं कि कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि तीरथों पर जानें से और दान आदि करनें से हमें प्रभु की कृपा प्राप्त हो जाएगी और यही सोच कर वे इन कार्यों को करते रहते हैं ।लेकिन इस तरह के काम करनें से हम अंहकार से भरते जाते हैं कि हम इतना दान कर रहें हैं,तीरथों के दर्शन कर रहे हैं।क्योकि हम जो कुछ भी करते हैं वह हमारे चित में अंकित होता जाता है,जिस से हमें यह भ्रम हो जाता है कि हमारे यह कार्य कुछ फल अवश्य प्रदान करेगें । लेकिन क्यूँ कि हमारे यह सभी कार्य स्वार्थ से प्रेरित होते हैं इस कारण इस का फल हमें नही मि्ल सकता।प्रभु की भक्ति तो निस्वार्थ भाव से करनें पर ही फलीभूत होती है।इसी लिए गुरु जी कहते हैं कि हमारे द्वारा किए गए यह काम ठीक वैसे ही हैं जैसे हाथी का स्नान करना। क्यूँकि हाथी का स्वाभाव होता है कि पहले तो वह स्नान करता है,फिर स्नान करनें के बाद अपने ऊपर मिट्टी ड़ाल लेता है।
यदि हम हमेशा इसी तरह कार्य करते रहे तो एक दिन हम बूढे हो जाएंगें। बूढा होनें पर हमारा शरीर कमजोर हो जाता है,सिर काँपनें लगता है,पैर लड़खड़ानें लगते है,आँखों की ज्योति भी कमजोर पड़ जाती है।ऐसे समय में प्रभु का ध्यान करना बहुत कठिन होता है।क्यूँ कि शरीर के कमजोर होनें के कारण कई रोग हमें घेर लेते हैं।इस लिए शरीरिक पीड़ा के कारण हम उस प्रभु का ध्यान कैसे करे सकेगें ।रह रह कर तो हमारा ध्यान अपनें शरीर के कष्टों की ओर ही जाएगा। इस लिए गुरु जी कहते हैं कि ऐसे में तो हम उस प्रभु का ध्यान नही कर पाएगें।अत:ह मे समय रहते ही उस कार्य में लग जाना चाहिए।


शुक्रवार, 14 मार्च 2008

गुरुबाणी विचार-१५



गरब करत है देह को बिनसै छिन में मीत॥
जिहि प्रानी हरि जस कहिओ नानक तिहि जग जीत॥४२॥

जिह नर सिमरन राम को सो जन मुकता जान॥
तिहि नर हरि अंतर नहीं नानक साची मान॥४३॥

एक भगति भगवान जिह प्रानी के नाहि मन॥
जैसे सूकर सुआन नानक मानो ताहि तन॥४४॥

इस शरीर पर किस बात का गर्व करें।यह भी अन्य चीजों की तरह एक दिन नाश हो जाना है।जो स्थाई नही है उस के प्रति मोह करना नासमझी है।गुरु जी कहते हैं कि जो इस नाशवान शरीर के होते हुए भी उस प्रभू के ध्यान में लगा रहता है ऐसा मनुष्य उस प्रभू की कृपा से विजय होक र वापिस जाता है।अर्थात परमात्मा के प्रताप से वह इसस संसार को जीत लेता है। इस जगत के मोह से वह ग्रस्त नही होता।
इस प्रकार प्रभू की भगती करने वाला प्राणी मुक्त हो जाता है। अर्थात वह संसार के मोह और सभी विकारॊं के आधीन नही रहता। गुरु जी कहते हैं कि ऐसा प्राणी प्रभू की भगती के कारण उसी प्रभू के समान गुणों वाला हो जाता है। फिर परमात्मा में और ऐसे प्राणी मे को ई अंतर नही रहता।
लेकिन गुरु जी कहते है कि जिस के अंदर भगती नही है,उस प्रभू के प्रति प्रेम नही है ऐसा प्राणी पशु के समान हो जाता है जैसे कोई कुत्ता या सूअर का शरीर हो।अर्थात भगतीहीन प्राणी पशु की तरह जीता है।इस लिए हमें सदा उस परमात्मा का ध्यान करते रहना चाहिए।

गुरुवार, 13 मार्च 2008

गुरुबाणी विचार-१४




जतन बहुत सुख के कीए दुख को कीए ना कोइ॥
कह नानक सुनि रे मना हरि भावै सो होइ॥३९॥

जगत भिखारी फिरत है सभ को दाता राम॥
कह नानक मन सिमर तिह पूरन होवहि काम॥४०॥

झूठे मान कहा करै जग सुपने जिओ जान॥
इन में कछु तेरो नहीं नानक कहिओ बखान॥४१॥


हम सभी हमेशा सुख पाना चाहते हैं,हमारी सभी चेष्टाएं सुख को पानें के लिए ही होती हैं।लेकिन कोई भी कभी दुख पानें की कोशिश नही करता।गुरु जी कहते हैं कि हमारे ऐसा चाहनें से कुछ भी नही हो सकता,परमात्मा तो वही करता है जो उसे अच्छा लगता है।वह सदा हमारा भला ही करता है।ऐसे में यदि हमें कोई दुख भी मिलता है तो वह भी उसी की मरजी से मिलता है और जो सुख मिलता है वह भी उसी की मरजी से मिलता हैं।इस लिए हमारी कोई भी चेष्टा उस प्रभू के कार्य या मर्जी में कभी बाधक नही बन सकती।सदा वही होता है जो वह परमात्मा चाहता है।
सारा संसार ही उस से मागँता रहता है, संसार में ऐसा कोई नही जो उस के सामनें भिखारी ना हो।क्यूँकि वह तो सकल ब्रह्मांड का स्वामी है।सभी कुछ तो उसी का है।वही सब को देनें वाला दाता है।इस लिए गुरू जी कहते है कि हमें अपने मन में सदा उस का ही ध्यान करना चाहिए।क्योंकि सभी कुछ तो उसी के हाथ में है,वही सभी कामों को कर रहा है।वही हमें हमारे कामों को पूरा करता है।
लेकिन हम सदा अंहकार करते रहते हैं कि जैसे इन सभी कार्यों को हम ही कर रहे हैं।जबकी यह सभी कुछ एक सपनें से ज्यादा कुछ भी नही है।(यहाँ यह बात ध्यान रखनी चाहिए कि यह संसार उन्हें ही सपनें के समान लगता है जो उस परमात्मा से एकाकार हो चुके हैं,उन्ही को यह सच्चाई दिखती है) इस लिए गुरु जी कह रहे हैं कि यहाँ पर कुछ भी तेरा नही है,जिस के लिए तू इतना झूठा मान कर रहा है।




बुधवार, 12 मार्च 2008

गुरुबाणी विचार-१३




करणों हुतो सुना किओ परियो लोभ के फंध॥
नानक समियो रमि गयो अब क्यों रोवत अंध॥३६॥

मन माया मे रमि रहयो निकसत नाहिन मीत॥
नानक मूरत चित्र ज्यों छाडित नाहिन भीति॥३७॥

नर चाहत कछू और औरे की औरै भयी॥
चितवत रहियो नगओर नानक फासी गल परी॥३८॥

गुरु जी,कहते हैं कि जब हमारे पास समय होता है उस समय हम लालच के कारण ऐसे कार्यों को करनें में व्यस्त रहते हैं जिस से हमारे जीवन को कोई लाभ नही पहुँचता।लेकिन जब समय निकल जाता है,उस समय हम रोनें लगते हैं कि हमनें वह काम क्यों ना किए जो जरूरी थे। हम माया के प्रभाव के कारण अंधे बनें रहते हैं।अर्थात हमारे भीतर जब लोभ रहता है कि हम बिना फायदे के कोई कार्य नही करेगें तो ऐसे में किए गए हमारे पूजा-पाठ भी सिवा लोभ आदि विकारों को तृप्त करनें तक ही सीमित रह जाते हैं।ऐसे में भला अंत में पछताने के सिवा हमारे हा्थ और क्या लगेगा।
आगे गुरु जी कहते हैं कि जिस तरह दिवार पर बना चित्र उस दिवार को नही छो्ड़ सकता उसी प्रकार जिस के मन में विकारों,माया आदि ने अपना निवास बना लिया है वह लाख उपाए करे लेकिन उस माया से बाहर नही आ पाता।अर्थात जिस प्रकार हम हरे रंग के चश्में से कुछ भी देखे तो हमे हरा ही दिखाई देगा उसी तरह माया में पड़े मन से हम जो कुछ भी करे उस पर माया का प्रभाव जरूर पड़ेगा।
ऐसा इंसान परमात्मा से जब कुछ माँगता है या कुछ करता है तो वह जिस जिस भाव से माँगता है उस का नतीजा कुछ ओर ही निकलता है और प्रभू की मरजी कुछ ओर ही हो्ती है अर्थात गुरु जी कहते हैं कि ऐस इंसान दूसरों को ठगने के अभिप्राय से कुछ करता है लेकिन अंतत: स्वयं ही उस ठगी का शिकार हो जाता है।इस तरह वह अपनें लिए आप ही अपना फंदा तैयार कर लेता है।



मंगलवार, 11 मार्च 2008

गुरुबाणी विचार-१२




जनम जनम भरमत फिरियो मिटियो ना जम की त्रास॥
कह नानक हरि भज मना निरभै पावहि बास॥३३॥

जतन बरत मैं करि रहियो मिटियो ना मन को मान॥
दुरमति सो नानक फधियो राख लेह भगवान॥३४॥

बाल जुआनी अरू बिरधि फुनि तीनि अवसथा जान॥
कह नानक हरि भजन बिन बिरथा सब ही मान॥३५॥


हम सभी कई जन्मों से भटकते रहे हैं,लेकिन हमें अपना ठौर कही नही मिला।हम सदा यमों अर्थात मृत्यू भय से कभी भी मुक्त नही हो पाएं।गुरु जी कहते हैं कि उस का कारण मात्र इतना है कि हम उस प्रभु से दूरी बनाए बैठे है,जिस कारण हमें दुख भोगनें पड़ रहे हैं।यदि हमें इन दुखों और मृत्यू के भय से मुक्त होना है तो उस प्रभू की बंदगी करनें से उस निर्भय का आसरा प्राप्त हो सकेगा। जो सभी कष्टों को नष्ट कर देता है।
लेकिन यदि हम अपनें यत्न करें कि किसी तरह उन दुखों से छूट्कार पाने के लिए हमे कोई रास्ता मिल जाए। ऐसा यत्न करनें पर भी हम कामयाब नही हो पाते। क्यूँ कि इस प्रकार यत्न करनें से हमारे अंदर अभिमान,अंहकार को ही मजबूती मिलती है।हमें यह भ्रम होनें लगता है कि हमारी मेहनत से किए हुए कार्य ही हमें इस सभी त्रासदी से मुक्त करा देगें।क्यूँकि इन सभी दुखो का कारण अंहकार ही होता है ,इस लिए गुरु जी हमे समझाने के लिए कहते हैं कि -हे भगवान ! मैं इतने यत्न कर चुका हूँ।लेकिन मेरे किए हुए यत्नों से मेरा अंहकार दूर नही हुआ,मेरे मन की बुरी भावनाएं,इस अंहकार से मुक्त नही होनें देती।इस लिए प्रभू तू ही हमारी सहायता कर,जिस से मेरे भीतर का अंहकार मिट जाए।
गुरु जी आगे कहते हैं कि हरेक इन तीन अवस्थाओं से गुजरता है,बालपन,जवानी और बुढापा।लेकिन यदि हमनें इन अवस्थाओ को भॊगते समय ही उस प्रभू का ध्यान नही किया तो जान ले कि तेरा जन्म व्यर्थ ही चला जाएगा।इस लिए हमें अपनें जीवन काल में ही उस परमात्मा को पानें के लिए उस का ध्यान करना चाहिए।




रविवार, 9 मार्च 2008

गुरुबाणी विचार-११



मन माया में फधि रहि्यो बिसरियो गोबिंन्द नाम॥
कह नानक बिन हरि भजन जीवन कउनें काम॥३०॥

प्रानी राम न चेतइ मदि माया के अंध॥
कह नानक हरि भजन बिन परत ताहि जम फंद॥३१॥

सुख में बहू संगी भये दुख में संग न कोइ॥
कह नानक हरि भज मना अंति सहाई होइ॥३२॥

वास्तव में हम जितनी भी कोशिश इस माया से बचनें की करते है,उतना ही हम उस में उलझते जाते हैं।इसी कारण गुरु जी,कहते हैं कि जबत क हमइ स माया में फँसे रहते है हमें उस परमात्मा का नाम भूला रहता है।लेकिन वह आगे कहते हैं कि यदि हम उस प्रभू का ध्यान अपनें जीवन में नही कर पा रहे तो हमारा यह जीवन किस काम का है? अर्थात संसार के बाकी के सभी कार्य छोटे हैं...परमात्मा के ध्यान के बिना वह सब व्यर्थ हैं।
लेकिन हम तो उस माया के प्रभाव के कारण अंधे बनें रहते हैं ऐसे में हमें यह पता नही लग सकता कि क्या हमारे लिए सही है और क्या हमारे लिए गलत।क्यूँकि माया हमें भटकाती रहती है जिस कारण हम सही निर्णय नही पाते।गुरु जी कहते हैं कि इसी लिए हम यमों के अर्थात दुखों से घिर ते जाते हैं।क्योकि जैसे ही हमारा ध्यान उस प्रभूसे हटता है दुख हमें घेर लेते हैं।
इस लिए गुरु जी कहते हैं कि यह बात सही है कि जब तू सुखी होता है अर्थात धन आदि सुखों से परिपूर्ण होता है,सभी कुछ तेरे पास होता है उस समय सभी तुम्हारे आस पास तुम्हारे मित्र बन कर आ जाते हैं,लेकिन जब तुम दुखी होते हो तो कोई तुम्हारा दुख बाटनें के लिए तुम्हारे पास नही आता।इस लिए तुझे समझ जाना चाहिए कि इस सब संगीयों का साथ मात्र दिखावा है।तुम्हारा सच्चा साथ तो सिर्फ परमात्मा ही देता है।वही तेरी सहायता करता है।इस लिए सदा उस का ध्यान कर।



गुरुबाणी विचार-१०



जौ सुख को चाहे सदा सरनि राम की लेह॥
कह नानक सुन रे मना दुरलभ मानुख देह॥२७॥

माया कारनि धावही मूरख लोग अजान॥
कह नानक बिन हरि भजन बिरथा जनम सिरान॥२८॥

जो प्रानी निसि दिन भजै रूप राम तिह जान॥
हरि जन हरि अंतर नही नानक साची मान॥२९॥

यह मनुष्य का जन्म बहुत मुश्किल से मिला है,लेकिन हम इस जीवन को पा कर भी सदा ऐसे कामों में लगे रहते हैं जिस से हमारे जीवन में कोई सच्चा आनंद नही उतर पाता।हम जीवन भर ऐसे कामों को पूरा करनें की कोशिश में लगे रहते हैं जो कभी पूरे नही हो सकते।क्योंकि इंन्सान की तृष्णा की आग कभी बुझती ही नही।हम जितना भी कमाएं,खाएं,जोड़े, जितनें राग रंग में डूबे रहे,लेकिन हमारे मन को कभी शांती नही मिलती।बल्कि इन भोगॊं को भॊग कर हमारी तृष्णा और भी अधिक बढती जाती है।इस लिए गुरु जी कहते हैं कि हे प्राणी यदि तू उस शाश्वत सुख को चाहता है तो उस प्रभू का ध्यान कर,उस की शरण में जा।कहीं ऐसा ना हो कि यह जो प्रभू की कृपा से तूनें मानस जन्म पाया है,इस अवसर को तू गवां दे।
यह बात सही है कि दुनिया में ऐसे लोगों की कोई कमी नही है जो अपनी नासमझी के कारण माया के पीछे ही दोड़ते रहते है,ऐसे लोगों का जीवन व्यर्थ ही बीतता जाता है।गुरू जी कहते हैं कि कही ऐसा ना हो कि तेरा जीवन भी उस प्रभू की भक्ति करनें की बजाए व्यर्थ ही चला जाए।
लेकिन इसके विपरीत जो मनुष्य उस प्रभू का सदा दिन रात ध्यान करते रहते हैं अर्थात उसी के ध्यान में सदा डूबे रहते हैं।गुरु जी कहते हैं कि ऐसे मनुष्य उस परमात्मा का रुप ही हो जाते हैं।इस लिए इस बात को सत्य ही मानों की परमात्मा के भगत और परमात्मा में कोई भेद नही होता।



शनिवार, 8 मार्च 2008

गुरुबाणी विचार-९

निसि दिन माया कारने प्रानी डोलत नीत॥
कोटन में नानक कोउ नारायन जिह चीत॥२४॥

जैसे जल ते बु्दबुदा उपजै बिनसे नीत॥
जग रचना तैसे रची कह नानक सुनि मीत॥२५॥

प्रानी कछु ना चेतई मदि माया के अंध॥
कह नानक बिन हरि भजन परत ताहि जम फंध॥२६॥

सभी ने माया के प्रभाव को स्वीकारा है,यह सभी प्राणीयों को भटकाती है।ब्रह्मा,विष्नु,महेश तक को माया अपनें चुंगल में फँसा लेती है तो इसे के सामने,हम और आप क्या चीज हैं। गुरु जी कहते हैं कि इस माया के कारण ही प्राणी दिन रात भटकता रहता है।यह माया प्राणी को इस प्रकार अपनें जाल में फँसा लेती है कि वह उस प्रभू को ही भूल जाता है जिस की कृपा से वह यहाँ पैदा हो सका है,जन्मा है।इस लिए करोड़ों में कोई ही ऐसा होता है जिस के ह्रदय में उस प्रभू के प्रति धन्यवाद का भाव होता है अर्थात उस के ह्रदय में उस प्रभू की याद बनी रहती है।
गुरू जी कहते हैं कि प्राणी माया के प्रभाव के कारण यह जान ही नही पाता या यूँ कहें कि उस का इस बात कि ओर ध्यान ही नही जाता कि यह जीवन तो क्षणभुंगर है जैसे पानी में हलचल होनें पर पानी व हवा से निर्मित पानी का बुल बुला कुछ देर पानी के ऊपर तैरता-सा नजर आता है और कुछ देर बाद ही वह पानी में ही समा जाता है,ठीक उसी तरह उस परमात्मा नें यह सारी सृष्टि की रचना की है।जो निरन्तर उपजती और विलीन होती रहती है।
लेकिन प्राणी यह सब कुछ जान कर भी माया के प्रभाव के कारण,उस के प्रति आसक्ती के कारण अंधा बना रहता है अर्थात माया के प्रभाव के कारण उस प्रभू को भूला रहता है।वह यह भूल ही जाता है कि बिना प्रभू की कृपा के उस का उद्दार नही होगा।बिना प्रभू का ध्यान किए उस को यमों से अर्थात दुखों से छुट कारा नही मिल सकता।इस लिए हमें उस परमात्मा का सदा ध्यान करना चाहिए।

शुक्रवार, 7 मार्च 2008

गुरुबाणी विचार-८




जिहबा गुन गोबिंद भजहु करन सुनहु हरि नाम॥
कह नानक सुनि रे मना परहि न जम के धाम॥२१॥

जो प्रानी ममता तजे लोभ मोह अंहकार॥
कह नानक आपन तरै औंरन लेत उधार॥२२॥

जिउ सपना अरु पेखना ऐसे जग को जानि॥
इन में कछु साचो नहीं नानक बिन भगवान॥२३॥

परमात्मा को सुन कर और बोल कर अर्थात भजन बंदगी या उस के गुण गान कर के,उस की महिमा का बखान कर के उसे पाया जा सकता है।लेकिन यह सुनना और जीभ द्वारा बोलना इतना आसान नही है।क्योकि हम जब कुछ सुनते या बोलते हैं तो उस समय हमारे मन में द्वंद चलता रहता है।जो कुछ भी हमारे सामनें बोला जाता है उस का अर्थ हम अपनी बुद्धि या स्वाभाव अनुसार ही लगाते हैं तथा जो भी हम बोलते हैं,उस के बारे में हम क्या सच में जान चुके होते हैं?शायद नही,हम दूसरों के कहे शब्दो को ही दोराह देते हैं।ना ही हम उस हरि के नाम को कभी सुनते है जो निरन्तर ब्रंह्माड मे गूँजता रहता है।गुरु जी कहते हैं कि जो इस तरह जीहवा से प्रभू को गाता है और कानों से सुनता है वह फिर यमदूतों अर्थात मृत्यू के घर नही जाता।अर्थात वह इस जन्म मरण के बंन्धनों सो मुक्ती पा जाता है।
अगले श्लोक में गुरु जी कहते हैं कि जो प्राणी इस तरह अर्थात हरि भक्ती से अपनें को विकारों से मुक्त कर चुका है अर्थात मुक्त हो कर अपनें भीतर के विकार,ममता लोभ मोह और अंहकार आदि को त्याग चुका है ऐसा प्राणी स्वयं तो इस संसार सागर से तरता ही है,साथ ही वह अपने साथ ओरों का भी उद्दार करता है।क्योकि उस परमात्मा से एकाकार किए हुए प्राणी के साथ जो लोग जुड़ते है, उस परमात्मा से एकाकार हुए प्राणी के संम्पर्क मॆ आए प्राणीयों पर भी उस का प्रभाव पड़ता है।
जिस प्रकार हम सपनें को देखते हैं कि हमारे पास बहुत संपदा है ,हम राजा है,हम भिखारी हैं,इस तरह के सपनें जो हमें दिखाइ देते हैं तो एकदम सच्चे लगते हैं ।लेकिन सुबह जागनें पर पता चलता है कि यह सब तो झूठ था।गुरु जी कहते हैं कि इसी तरह इस संसार के सारे कार-व्यवाहर झूठे हैं,ऐसा हमें जान लेना चाहिए।क्यूँकि सिर्फ भगवान ही सदा रहता है हम तो आज है कल नही होगें। इस लिए जो सदा रहता है वही सच है अर्थात वह भगवान ही सदा रहता है इस बात को तू सत्य जान ले।




गुरुवार, 6 मार्च 2008

गुरुबाणी विचार-७



जिहि माया ममता तजी सभ ते भयो उदास॥
कह नानक सुन रे मना तिह घट ब्रह्म निवास॥१८॥

जिहि प्रानी होमै तजी करता राम पछान॥
कह नानक वह मुकत नर एह मन साची मान॥१९॥

भै नासन दुरमति हरन कलि में हरि को नाम॥
निसि दिन जो नानक भजै सफल होहि तिह काम॥२०॥

संसार को छोड़्ना बहुत आसान है लेकिन संसार में रहते हुए संसार के प्रति मोह त्यागना बहुत कठिन होता है।गुरु जी कहते हैं कि जो प्राणी संसार मे विचरते हुए माया,मोह का त्याग कर देता है,इन सब के प्रति उदास अर्थात इन सब के प्रति उस के मन में कोई लालसा नही जगती।ऐसे प्राणी के ह्रदय में परमात्मा आ विराजते हैं।या यूँ कहे कि जिसके भीतर ब्रह्म का निवास होता है वह इन मोह,माया से मुक्त हो जाता है।
लेकिन हमारे ह्र्दय में उस ब्रह्म का निवास कैसे हो? उस के प्रति गुरु जी कहते हैं कि जो व्यक्ति अंहकार को त्याग देता है ,उसी के ह्रदय में प्रभू का निवास हो सकता है और उसका निवास तभी संम्भव है जब हम उस राम ,उस परमात्मा को पहचान लें,जो इस संसार,इस ब्रह्मांड का संचालन कर रहा है।उस प्रभू के स्वरूप को जानने से ही हमारे भीतर का अंहकार हमसे छूट जाता है।ऐसा प्राणी ही मुक्ती को प्राप्त हुआ है,यह बात जाननी चहिए।अर्थात वही प्राणी मुक्त है जो अंहकार से मुक्त हो जाता है।
परन्तु हमारे मन में तो सदा मृत्यु भय समाया रहता है ,जिस कारण हम वैसे ही बहुत भयभीत रहते हैं और दूसरी ओर स्वार्थ के वशीभूत हो कर हम सदा अपना भला चाहते रहते हैं,इस कारण हम कितने दूसरे प्राणी को दुख पहचाते है हम जान ही नही पाते।इस तरह का व्यवाहर करते हुए हमारी सोच बुरे कामों की अभ्यस्त हो जाती है,गुरु जी इसी को दुरमति,अर्थात बुरी मति वाला,बुरी बुद्धि वाला होना कह रहे हैं ,साथ ही इस से छूटनें का उपाए भी बता रहे हैं कि इस बुरी मति का नाश इस कलयुग में हरि के नाम से ही संम्भव हो सकता है।इस लिए प्राणी को दिन रात उसी परमात्मा का ध्यान करना चाहिए।ऐसा करने से प्राणी सदा नेक कामों को करेगा जिस से वह सफलता पाएगा अर्थात प्राणी जिस कार्य को करनें के लिए संसार में आया है उसे सफलता पूर्वक कर लेगा।
माया और मोह को त्याग कर प्राणी ब्रह्म मे निवास करता है औरअंहकार को त्याग कर मुक्ति को प्राप्त होता है जिस से उस की दुर मति का नाश होता है,इस प्रकार अंहकार रहित हो कर किए हुए कार्य ही सफल कार्य होते हैं।



बुधवार, 5 मार्च 2008

गुरुबाणी विचार-६


हरख सोग जाके नही बेरी मीत समान।
कह नानक सुन रे मना मुकत ताहे तै जान॥१५॥

भै काहू को देत न ,न भै मानत आन।
कह नानक सुन रे मना ज्ञानी ताहि बखान॥१६॥

जिहि बिखिया सगली तजी लिओ भेख बैराग।
कह नानक सुन रे मना तिह नर माथे भाग॥१७॥

गुरु जी कहते हैं कि जिस मनुष्य के लिए खुशी और गमी किसी प्रकार से प्रभावित नही कर पाते और शत्रु और मित्र में कोई भेद नही रह जाता।ऐसे मनुष्य को माया से मुक्त मानना चाहिए अर्थात वह माया से मुक्त है।
जो मनुष्य किसी को डराता नही और ना ही किसी से डरता है,गुरु जी कहते हैं ऐसा मनुष्य ही ज्ञानी है।क्योंकि समझदार व्यक्ति जानता है कि परमात्मा का अंश सभी मे समान रुप से मौजूद है।मानव-मानव में ,भेद का कोई कारण नही हो सकता।हमे तो उस भीतर छुपे परमात्मा से व्यवाहर करना है जो सभी मे समान रूप से विराजित है,अत: यदि हमारे व्यवाहर में कोई भेद नजर आए तो निश्चय ही हम उस परमात्मा का अंश सभी में होनें से इंनकार कर रहे हैं।
गुरू जी कहते है कि जिसने काम क्रोध लोभ मोह अंहकार आदि सभी कुछ त्याग दिया है अर्थात जिन में यह विकार अब मौजूद नही रह गए हैं। वही सच्चा वैरागी है। अर्थात वह वैरागी नही है जो घर बार छोड़ कर और वैरागी भेस धारण कर लेता है,जो इन विकार को अभी छोड़ ही नही पाया है।यहाँ एक बात ध्यान देने योग्य है कि परमात्मा का ध्यान करनें वाले को कुछ छोड़ना नही पड़ता ,वह सब तो अपनें आप ही छूट जाता है।यहाँ पर गुरू जी इसी वैराग के संम्बध के बारे में कह रहे हैं।

मंगलवार, 4 मार्च 2008

गुरुबाणी विचार-५





घट घट मे हरि जू बसै संतन कहयो पुकार।

कह नानक तिह भज मना भव निधि उतरहि पार॥१२॥

सुख दुख जिह परसे नही लोभ मोह अभिमान।
कह नानक सुन रे मना सो मूरत भगवान॥१३॥

उसतति निंदाया नाहि जिहि कंचन लोह समान।
कह नानक सुन रे मना मुकत ताहि तै जान॥१४॥


सभी संत बार बार एक ही बात दोहरा रहे हैं कि परम पिता परमात्मा हर जगह मौजूद है। वह हरिक में समाया हुआ है।हरिक में वास करता है। गुरु जी कहते हैं तू उसी परमात्मा का भजन कर,जिससे तू इस भवसागर से पार उतर सकेगा।
जिस मनुष्य को सुख दुख में कोई भेद दिखाइ नही देता अर्थात वह सुख दुख को समान भाव से लेता है और किसी भी प्रकार का लालच,किसी के प्रति मोह भी नही रखता ।ऐसा मनुष्य जिस के मन में किसी कारण से भी अंहकार नही जगता,ऐसा मनुष्य उस परमत्मा की ही मूरत के समान है।अर्थात गुरु जी कहते हैं कि ऐसा मनुष्य भगवान स्वरूप हो जाता है।
गुरु जी कहते है कि जिस जीव को प्रशंसा तथा निंदा एक समान लगती हैं अर्थात जो मनुष्य किसी की,की गई प्रशंसा से खुश या अभिमान से नही भरता तथा ना ही किसी के द्वारा निंदा करने पर किसी के प्रति नफरत के भाव नही रखता और जिसकी दृष्टि में सोने और लोहे के मुल्य में कोई फरक नही लगता अर्थात वह दोनों को समान ही मानता है ऐसा मनुष्य ही मुक्त हुआ कहलाता है।





सोमवार, 3 मार्च 2008

गुरुबाणी विचार-४




सब सुख दाता राम है दूसर नाहिन कोय।
कह नानक सुन रे मना तिह सिमरत सुख होय॥९॥

जिह सिमरत गत पाइए तिह भज रे तै मीत।
कह नानक सुन रे मना अउध घटत है नीत॥१०॥

पांच तत को तन रचियो जानो चतुर सुजान।
जिन में उपज्या नानका लीन ताहे मै मान॥११॥

गुरु जी कहते है कि हे मेरे मन यह जितने भी सुख हैं इन सभी को देने वालां वह परमात्मा है।कोई दूसरा तुझे इन सुखों को नही दे सकता। अर्थात उस की बराबरी करनें वाला दूसरा कोइ नही है।इस लिए तू उस परमात्मा को सिमर उस ऊँची अवस्था को प्राप्त हो सकता है,जहाँ सिर्फ सुख ही सुख है।
जिस के ध्यान करनें से तेरी गति होगी,अर्थात वह परम अवस्था प्राप्त हो जाती है जिस के लिए परमात्मा नें हमें यहाँ भेजा है।हे मेरे मित्र तू इस लिए उस का ध्यान कर।क्यूँकि यह समय निरन्तर बीतता जा रहा है अर्थात तेरे जीवित रहनें की अवधि घटती जी रही है।
हम कुछ करें या ना करें यह समय कभी नही ठहरता।इस लिए हमें इस समय का सदु्पयोग कर लेना चाहिए।क्यूँकि सभी ज्ञानी और समझदार लोग जानते हैं कि हमारा शरीर पांच तत्वों से निर्मित हुआ है और एक दिन यह पांच तत्व पंच महाभूतों मे ही विलीन हो जाएगे।हम जहाँ से आए है हमें उसी में एक दिन लीन हो जाना है। इस लिए समय रहते हमें उस परमात्मा का ध्यान कर लेना चाहिए।



रविवार, 2 मार्च 2008

गुरुबाणी विचार-३

पतित उधारन भै हरन हरि अनाथ को नाथ ।
कह नानक तिह जानिए सदा बसत तुम साथ॥६॥

तन धन जे तो को दिओ तासो नेह ना कीन ।
कह नानक नर बाँवरे अब क्यों डोलत दीन॥७॥

तन धन संपै सुख दिओ अर जह नीके धाम ।
कह नानक सुन रे मना सिमरत काहे ना राम॥८॥

वह परमात्मा तो सदा हमारा भला चाहनें वाला है।हम जब स्वार्थ के वशीभूत होकर पाप के रास्तों पर चल-चल कर पापों से ग्रस्त हो जाते हैं और अपनें किए पापों के कारण भय से भर जाते हैं,उस समय भी हमारा उद्दार वही परमात्मा ही करता है। जब हमारी आस सभी जगह से टूट जाती है तब वही परमात्मा हम को सहारा देता है क्योंकि वह अनाथो का नाथ है ।वह सदा हमारे साथ ही रहता है।
जिस ने हमे यह शरीर दिया है यह धन दिया है अर्थात सभी कुछ हमें दिया है और बिना किसी शर्त के दिया है,उस की दया पर ही हम जीते हैं लेकिन फिर भी हम कभी उस से प्रेम नही करते। हम माया में रमे रहते हैं और उस को भूले ही रहते हैं,जिस का परिणाम यह होता है की हम दीन-हीन बनें फिरते रह जाते हैं,क्योकि हमें जीवन में सभी पदार्थों को भोगनें पर भी कभी संतोष प्राप्त नही होता।
इसी लिए गुरु जी कहते हैं कि हे मेरे मन ,जिस से तुझे यह घर-बार संपत्ति और इस तन की प्राप्ती हुई है और जिस परमात्मा नें तुझे इतने सुख दिए हैं। उस का ध्यान ,उस से प्यार क्यूँ नही करता?
हमारा मन बहुत अजीब होता है जो वस्तु हमें बिना परिश्रम के प्राप्त होती हम उस की ओर कभी ध्यान नही देते ,चाहे वह कितनी भी कीमती हो,अमुल्य हो। लेकिन व्यर्थ की छोटी-छोटी वस्तुओ के लिए,जो हमे लाभ की जगह हमेशा हानि ही पहूँचाती हैं उन के लिए हम मेहनत करते रहते हैं , उन के लिए हम सदा अधीर रहते हैं।
इस लिए जो भी हमें प्रभू कृपा से प्राप्त होता है,उस के लिए हमें उस परमात्मा का ध्यान करना चाहिए ,उस का सिमरन करना चाहिए।

शब्द कीर्तन का एम.पी.३ का लिकं यह है-
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