मंगलवार, 28 अप्रैल 2009

फरीद के श्लोक - ३०

फरीदा गोर निमाणी सडु करे, निघरिआ घरि आउ॥
सरपर मैथै आवणा,मरणहु न डरिआहु॥९३॥

इंनी लोइणी देखदिआ,केती चलि गई॥
फरीदा लोकां आपो आपणी मैं आपणी पई॥९४॥

आप सवारहि मैं मिलहि,मै मिलिआ सुखु होइ॥
फरीदा जे तू मेरा होइ रहहि,सभु जगु तेरा होइ॥९५॥

फरीद जी कहते है कि कब्र बेचारी हमे आवाज दे रही है और कह रही है कि हे !बेघर जीव ,तू अपने घर मे आ जा।वैसे तू जहाँ मर्जी भटकता रह,आखिर तो तुझे मेरे पास ही आना पड़ेगा। इस लिए तू मुझ से इतना डर मत। अर्थात फरीद जी कहना चाहते है कि मौत तो एक दिन निश्चित आनी ही है,उस का दिन तो तय ही है।इस लिए मौत से इतना भयभीत होने की जरूरत नही है।वास्तव मे फरीद जी ऐसा इस लिए कह रहे हैं क्युंकि हम दुनिया के रागरंग में इतने लीन हो जाते हैं कि हमे यह भूल ही जाता है कि एक दिन सब कुछ छोड़छोड़ कर हमें यहाँ से कूच कर जाना है।

फरीद जी आगे कहते है कि हमारी इन आँखो के सामने ही कितनों को हमने इस दुनिया को छोड़ कर जाते हुए देखा है।कितने अपने और पराय यहाँ सब कुछ छोड़ कर हमारे सामने ही इस संसार को अलविदा कह कर जा चुके हैं।लेकिन फिर भी यह सब कुछ देख कर भी जीव अपने-अपने निहित स्वार्थो को पूरा करने मे ही लगा हुआ।यहाँ हम सब उस मौत से बेखबर अपने-अपने स्वार्थो को साधने के लिए हर तरह के हथकंडे अपनाने मे लगे हुए हैं।अर्थात फरीद जी कहना चाहते है कि हम अपने सामने होती मौतों को देख रहे है,लेकिन फिर भी मूर्खो की भाँति अपने निहित स्वार्थों को पूरा करने मे ही लगे रहते हैं।

फरीद जी आगे कहते हैं कि यदि यह जीव अपने आप को सँवार ले,अर्थात अपना ध्यान सही दिशा की ओर कर ले।तभी यह जीव अपने आप को पा सकेगा और जब यह अपने आप को जान सकेगा इसे सुख की अनुभूति होगी।फरीद जी आगे कहते हैं कि यदि तू मेरा हो कर रहेगा तो यह सारा संसार भी तेरा हो कर ही रहेगा । अर्थात फरीद जी कहना चाहते हैं कि जो जीव अपने को जान लेता है वह सुखी हो जाता है।जब कोई जीव अपने को जान जाता है तो उसे यह समझते देर नही लगती कि यहाँ परमात्मा के सिवा दूसरा कोई भी नही है। ऐसा जानने पर सारा संसार ही अपना लगने लगता है।

मंगलवार, 21 अप्रैल 2009

फरिद के श्लोक - २९

फरीदा तनु सुका, पिंजरु थीआ, तलीआं खूंढहि काग॥
अजै सु रबु न बाहुडिउ, देखु बंदे के भाग॥९०॥

कागा करंग डडोलिआ,सगला खाइआ मासु॥
ऎ दुइ नैना मति छुहऊ,पिर देखन की आस॥९१॥

कागा चूंडि न पिजंरा, बसै त उडरि जाहि॥
जित पिजंरै मेरा सहु वसै, मास न तिदू खाहि॥९२॥

फरीद जी कहते हैं कि यह शरीर अब बहुत कमजोर हो चुका है,यह अब इतना कमजोर हो चुका है कि पिजंर मात्र ही रह चुका है। लेकिन इतना सब होने पर भी यह जो काक रूपी लोभ,वासनाएं हैं यह अब भी सता रही हैं।रह रह कर यह हम पर हावी हो जाती हैं।जरा देखो तो सही, इन विकारो में पड़े इन्सान की किस्मत, यह इन विकारों के कारण अपना सर्वस खोता जा रहा है और परमात्मा की कृपा इस पर नही हो पा रही। अर्थात फरीद जी कहना चाहते हैं कि हम विषय विकारों में खोये हुए इन्सान अपनी शक्ति को गँवाते जा रहे हैं।विषय विकारों मे रमे रहने के कारण हम प्रभु कृपा से वंचित होते जा रहे,अब यही हमारी किस्मत बनती जा रही है अर्थात संसारी प्रलोभनों के कारण हम प्रभु को भूलते जा रहे हैं।

फरीद जी आगे कहते हैं कि इस काक ने मेरे पिजंर को,शरीर व मन को पूरी तरह से छान मारा है।यह शरीर का सारा मास खा गया है।लेकिन फिर भी फरीद जी कहते हैं कि काक तुम मेरे इन दो नैनों को मत खाना अर्थात इन्हें विकार ग्रस्त मत करना।क्युँकि इन दो नैनों मे उस परमात्मा को देखने की आस बनी रहे।अर्थात फरीद जी कहना चाहते है कि विषय -विकार रूपी इस काक ने हम को विषय विकारों से भर दिया है,ऐसी कोई भी राह नही छोड़ी कि हमारा ध्यान उस परमात्मा की ओर जा पाए। लेकिन फिर भी यह जो हमारी आँखें हैं, विषय विकारों की चपेट में पूरी तरह नही आई हैं ।इस लिए हे काक तू इन दो आँखॊ को मत खाना अर्थात विषय विकारो से ग्रस्त मत करना,ताकी इन मे उस प्रभु को देखने की आस बनी रहे।

आगे फरीद जी कहते हैं कि विषय विकार रूपी काक अब तू मेरे शरीर को छोड़ दे,अब तू यहाँ से उड़ जा।अब तुझे यहाँ से उड़ना ही होगा ।क्युँकि अब हमने जान लिआ है कि इस शरीर में मेरा परमात्मा वास करता है।अब यह काक मेरे शरीर का मास नही खा पाएगा। अर्थात फरीद जी कहना चाहते है कि जब तक हमे यह ज्ञान नही होता कि परमात्मा हमारे भीतर रहता है ,तभी तक हम विषय विकार रूपी काक के भोजन बनते रहते हैं अर्थात विषय विकारों मे डूबे रहते हैं।लेकिन जब हम उस परमात्मा को पहचान जाते हैं,उस परमात्मा की भक्ति करने लगते हैं, तो यह विषय विकार अपने आप ही हमें छोड़ कर चले जाते हैं।

मंगलवार, 14 अप्रैल 2009

फरीद के श्लोक -२८

फरीदा गलीं सु सजण वीह,इक ढूंढदी न लहां॥
धुखां जिउ मांलीह, कारणि, तिंना मा पिरी॥८७॥

फरीदा इहु तनु भऊकणा, नित नित दुखीऎ कऊणु॥
कंनी बुजे दे रहां ,किती वगै पऊणु॥८८॥

फरीदा रब खजूरी पकीआं, माखिआ लई वहंनि॥
जो जो वंजैं डीहड़ा,सो उमर हथ पवंनि॥८९॥

फरीद जी कहते हैं कि इस दुनिया में बातों से बहलाने वाले मित्र तो बहुत मिल जाते हैं,लेकिन ऐसा मित्र कभी नही मिलता जो इस जीवन के दुखों को दूर करने में मददगार साबित हो।हम तो जीवन भर ऐसे मित्र को पानें की आस मे, सूखे गोबर की तरह धीरे-धीरे सुलगते रहते हैं।अर्थात फरीद जी कहना चाहते हैं कि ऐसे मित्र तो बहुत मिल जाते हैं जो अपना स्वार्थ पूरा करने के लिए हमारे साथ-साथ चलने लगते हैं।अर्थात मित्र होने का दम भरते हैं।लेकिन ऐसे मित्र कभी लाभ नही पहुँचाते अर्थात हमारे दुखो को कम करने में हमारे सहायक नही होते।

फरीद जी आगे कहते है कि हमारा यह शरीर भी अजीब है इस मे हमेशा नित नयी इच्छाएं पैदा होती रहती हैं यह नित नयी-नयी माँग करता रहता है।इस की नित नयी-नयी माँगो को पूरा करने की खातिर कौन परेशान होता रहे ?इस लिए मैने अपने कान ही बंद कर लिए हैं ।इस लिए अब वह जितनी भी माँग करता रहे,मुझे सुनाई ही नही पड़ेगीं।अर्थात फरीद जी कहना चाहते हैं कि हमारा यह शरीर और मन तो कभी भी तृप्ति नही पा सकता।क्युंकि हमारी वासनाएं कभी समाप्त नही होती।वह तो निरन्तर बढ़्ती ही रहती हैं। इस लिय यदि इस से बचना है तो हमें इस की बात ही नही सुननी चाहिए।अर्थात अपने शरीर और मन पर नियंत्रण रखना चाहिए

फरीद जी आगे कहते है कि यह शरीर और मन भी आखिर क्या करे?परमात्मा ने हमारे चारो ओर पकी हुई खजूर और शहद की नदीयां पैदा कर रखी हैं। इस लिए हम सदा इन को पाने के लिए चिन्तन करते रहते है,इस चिन्तन और हमारी पाने की लालसा मे ही हमारी उमर हमारे हाथ से निकलती जाती है।अर्थात फरीद जी कहना चाहते है कि इस संसार में हमारे चारो और प्रलोभन ही प्रलोभन फैले हुए हैं,जिस कारण हमारा मन उस ओर बरबस खिचनें लगता है और हमारे मन मे उसे पाने की इच्छा पैदा हो जाती है।जिस का परिणाम यह निकलता है कि हम व्यर्थ के पदार्थो को पाने मे ही अपना अनमोल समय गवाँ बैठते हैं।फरीद जी हमे इस से सचेत रहने के लिए ही यहाँ इस की चर्चा कर रहे हैं।

मंगलवार, 7 अप्रैल 2009

फरीद के श्लोक -२७

कंधी वहण न ढाहि,तौ भी लेखा देवणा॥
जिधरि रब रजाइ,वहुण तिदाऒ गंउ करे॥८४॥

फरीदा डुखा दिह गईआ,सूलां सेती राति॥
खता पुकारे पातणी,बेड़ा कपर वाति॥८५॥

लंमी लंमी नदी वहै,कंधी करै हेति॥
बेड़े नो कपरु किआ करे, जे पातण सु चेति॥८६॥

फरीद जी कहते है कि जब नदी बहती है तो वह अपने किनारों पर पड़ने वाली हर चीज को अपने साथ बहा कर ले जाती है।लेकिन इस नदी को भी इस सब कामों का हिसाब देना पड़ता है।यह बात सही है कि यह जो कुछ भी होता है वह सब परमात्मा की मर्जी से होता है।नदी की धार तो उसी दिशा में बहती है जिधर उसे रास्ता मिलता जाता है और यह रास्ता परमात्मा द्वारा ही निश्चित किया हुआ होता है।अर्थात फरीद जी कहना चाहते हैं कि हम जो भी कर्म करते हैं उस का फल हमें ही भुगतना पड़ता है।लेकिन इस के साथ वह यह भी कह्ते हैं कि यह सब कुछ ईश्वर की मर्जी से ही होता है।लेकिन फिर सवाल उठता है कि हम दुख क्यों भोगते हैं?असल मे हमारे दुखो का कारण हमारा अंहकार ही होता है।

फरीद जी आगे कहते है कि इन दुखों से हम सारा दिन दुखी होते रह्ते हैं इस तरह हमारे सारे दिन दुखों के कारण दुखी होते हुए बीतते है,और रात को हम इन्ही की चिन्ता में परेशान होते रहते हैं।किनारे पर खड़ा मल्लाह(गुरु) हमे पुकार-पुकार कर कहता रहता है कि देख!दुखों के भार के कारण तेरा जिन्दगी का बेड़ा डूबने ही वाला है।अर्थात फरीद जी कहना चाहते है कि इन दुखों और दुनियावी समस्याओ में उलझ कर हमे अपनी इस जिन्दगी को बर्बाद नही करना चाहिए।

फरीद जी आगे कहते है कि भले ही यह दुख रूपी लम्बी नदी बह रही है जिस कारण हम दुख भोगते रहते हैं,लेकिन यह दुख रुपी नदी हमारे जीवन को दुखी नही कर सकती यदि हमारे बेड़े को चलाने वाला परमात्मा हो।अर्थात फरीद जी पहले संसार के दुखों के होनें का कारण बताते है कि इस संसार में सुख दुख परमात्मा की मर्जी से ही जीवन में आते हैं और यह दुख हमें अपने अंहकार के कारण ही महसूस होते हैं। लेकिन यदि हम इन दूखो से निजात पाना चाहते हैं तो हमे उस प्रभु का सहारा ही लेना चाहिए।