रविवार, 21 जून 2009

फरिद के श्लोक - ३७

ढूढेदीऐ सुहाग कू,तउ तनि काई कोर॥
जिना नाउ सुहागणी, तिना झात न होर॥११४॥

सबर मंझ कमाण, ऐ सबरु,का नीहणो॥
सबर संदा बाणु, खालकु खता न करी॥११५॥

सबर अंदरि साबरी,तनु ऐवै जालेनि॥
होनि नजीकि खुदाऐ दै,भेतु न किसै देनि॥११६॥

सबरु ऐहु सुआउ,जे तूं बंदा दिड़ु करहि॥
वधि थीवहि दरीआउ,टुटि न थीवहि वाहड़ा॥११७॥

फरीद जी कहते है कि जिस प्रकार कोई स्त्री अपने सुहाग को खोजती है और उसे खोजने में कोई कौर कसर नही छोड़ती,वैसे ही जीव रूपी स्त्री उस परमात्मा के प्रति मिलन के लिए सदैव आतुर रहती है।दूसरी और जो सुहागिन हैं अर्थात जिन का पति रूपी परमेश्वर उन के करीब है ऐसी जीव रूपी स्त्रीयां कहीं ओर नही झांकती अर्थात किसी अन्य की आस उनके मन में नही जगती।अर्थात फरीद जी कहना चाहते हैं कि यह जो हमारी आत्मा है यह सदा उस परमात्मा को मिलने के लिए आतुर रहती है,जिस कारण वह सभी तरह से उस से मिलने के लिए यत्न करती रह्ती है।असल में यह उस का स्वाभाव ही होता है।इस लिए वह उस से मिलने के लिए उसे खोजती रहती है।वही दूसरी ओर जो उस परमात्मा के निकट पहुंच चुके हैं,उन्हे उस परमात्मा के सिवा दूसरी कोई चाह नही रहती।असल मे फरीद जी हमे जीवात्मा और परमात्मा के यथार्त संबध के बारे में बता रहे हैं जो अटूट है।शाश्वत है।

फरीद जी अगले श्लोक में कहते है कि यदि हमारे मन में सब्र की कमान हो और सब्र का ही तीर हो और वह सब्र के ही चिले पर चड़ा हो तो परमात्मा की ओर निशाना बहुत आसानी से लगता है।अर्थात फरीद जी संकेतिक भाषा का प्रयोग करते हुए कहना चाहते हैं कि परमात्मा की प्राप्ती के लिए धीरज या संयम का बहुत महत्व है।क्योकि परमात्मा किसी के यत्न करने से कभी नही मिलता।उसे पाने के लिए तो धैर्यपूर्वक उस की कृपा बरसनें का इंतजार करना पड़ता है।वह परमात्मा तो सदा से मौजूद ही है,हमारे और उस प्रभु के बीच एक झीनीं -सी परत ही बीच में है ।उसके हटते ही हम उसे पा लेते हैं।इस झीनीं परत के हटने के लिए हमें सब्र से उस के हटनें का इंतजार करना पड़ता है।यहाँ जल्दबाजी काम नही देती.क्युंकि सब्र के कारण हमारा मन शांत होने लगता है,
जब मन शातं हो जाता है तभी हम अपने और परमात्मा के बीच की झीनी परत को देख पानें में समर्थ हो पाते हैं।इसी लिए फरीद जी सब्र का इतना महत्व बता रहे हैं।

फरीद जी आगे सब्र के बारे में बताते हुए कहते हैं कि इस सब्र के अंदर ही शांत होने का गुण छुपा हुआ है,इस के लिए इस शरीर को कष्ट देनें की जरूरत नही है।क्युंकि इस सब्र के कारण ही हम उस खुदा के नजदीक हो पाते हैं,यह बात किसी से कहनें की नही है।अर्थात फरीद जी कहना चाहते हैं कि वास्तव में हमारी प्राकृति ही सब्र वाली है अर्थात हमारा वास्तविक स्वरूप तो शांत ही है लेकिन हम अपने अंदर कई प्रकार की कल्पनाओं को करके उसे आशांत बना देते हैं।यह सब्र तो मन की अवस्था है, इसे शरीर के साधने से कोई फायदा नही होता।इस बात को समझते हुए जो सब्र का दामन थाम लेते हैं वे उस खुदा की समीपता पा जाते हैं,तब कुछ और जानने की उनको कोई जरूरत नही रह जाती।

अगले श्लोक में फरीद जी सब्रके स्वाभाव के बारे में बताते हुए कहते हैं कि सब्र का ऐसा स्वाभाव होता है की यदि एक बार उसे कोई साध ले तो सदा के लिए सध जाता है।जब एक बार इस सब्र का बीज तुम्हारे अंदर पड़ गया तो यह बढता ही जाता है ।यह नदी की भाँति होता जाता है ।फिर इसका बहना रूकता नही।अर्थात सब्र यदि एक बार भीतर पैदा हो जाए तो यह निरन्तर बढता रहता है, फिर किसी प्रकार की रूकावट इस के लिए बाधा नही बनती।अर्थात परमात्मा और जीव की दूरी निरन्तर कम होती चली जाती है।

रविवार, 14 जून 2009

फरीद के श्लोक - ३६

फरीदा दुनी वजाई वजदी तूं भी वजरि नालि॥
सोई जीउ न वजदा जिसु अलरु करदा सार॥११०॥

फरीदा दिल रता इसु दुनी सिउ दुनी न कितै कंमि॥
मिसल फकीरां गाखड़ी सु पाईऐ पुर करंमि॥१११॥

पहले पहरै फुलड़ा, फलु भी पछा राति॥
जो जागंनि,लहंनि से,साई कंने दाति॥११२॥

दाती साहिब संदीआ,किआ चलै तिसु नालि॥
इकि जागंदे ना लहनि,इकना सुतिआ देइ उठालि॥११३॥

फरीद जी की बात को ही आगे बढाते हुए गुरु अर्जुनदेव जी कहते है कि यह जो दुनिया है यह एक साज़ की तरह हैं,इस को माया अपने ढंग से बजा रही है और हम सब को भी वही माया साज़ के रूप में ही बजा रही है।सिर्फ वही इस माया से मुक्त रह पाता है जिस पर माया की कृपा होती है।अर्थात गुरु जी कहते है कि सारे जगत को माया ने अपनें आधीन कर रखा है, हम सभी उस माया के वश में रह कर ही अपने सारे कारविहार करते हैं।लेकिन यदि हम उस परमात्मा की मौजूदगी को पहचान ले तो यह माया हमें नही नचा सकती।हम सभी तो तभी तक माया के हाथों में नाचते है जब तक हम उस परमात्मा की मौजूदगी को नही जान पाते।

गुरू जी आगे कहते है कि हम उस परमात्मा की मौजूदगी को पहचान नही पाते ,इसी लिए दुनियादारी में लगे रहते हैं अर्थात माया मे उलझे रहते हैं।लेकिन यदि हम फकीरों की तरह रहनें लगे,तो हम परमात्मा को भी पा सकेगें और दुनियावी झंझटों से मुक्त हो कर सही रास्ता अपना सकेगें।अर्थात गुरु जी कहना चाहते हैं कि हम दुनीया के मोह माया के वश मे हो कर,विषय विकारॊं मे पढ़ जाते है जिस कारण हम उस परमात्मा को भूल जाते हैं ।लेलिन अगर हम फकीरो की भाँति हो जाएं अर्थात अपनी सारी चिन्ताएं प्रभु पर छोड़ कर निष्काम भाव से अपने कार्य करते रहें तो हम इन कर्मों के साथ नही बंधेगें।जब हम कर्मों के साथ नही बंधेगे तो हम उस परमात्मा को भी जान सकेगें।उसे जानने के बाद किए गए हमारे सारे कर्म,उस परमात्मा के निकट ले जानें में सहायक होगें।

अगले श्लोक में फरीद जी कहते है कि पहला पहर फूल के समान खिला हुआ होता है।लेकिन यह सब पिछ्ली रात के फलस्वरूप ही फलित होता है।क्युँकि जो लोग जाग चुके हैं वही उस परमात्मा की कृपा के पात्र बनते हैं।अर्थात जब कोई इन्सान,प्रभु का प्यारा उस परमात्मा की बंदगी करता है तो वह पहला पहर होता है,जिस में वह बंदगी करता है वह फूल की तरह महकने लगता हैं। अर्थात उस पर प्रभु की कृपा बरसनें लगती है और यह जो प्राप्ती है यह बीते समय में की हुई उस प्रभु की बंदगी के कारण फल के रूप में उसे प्राप्त होती है।क्युंकि जागृत पुरूष अर्थात प्रभु से एकाकर हुआ भक्त ही प्रभु की दी गई कृपा का आनंद उठा पाता है।

अगले श्लोक में फरीद जी की बात को स्पष्ट करते हुए गुरू नानक दे्व जी कहते हैं कि यह जो प्रभु की कृपा प्राप्त होती है, ऐसे समय में कुछ लोग यह समझने लगते हैं कि यह जो प्रभु की कृपा है यह उन्हें उनकी बंदगी करनें के फलस्वरूप प्राप्त होती है। तब कुछ लोग जो जागे हुए तो नही होते,लेकिन अपने किए गए धार्मिक कर्म कांडों को करते हुए संयोग से प्राप्त सुख को प्रभु की कृपा मान लेते हैं।वही दूसरी ओर ऐसे लोग भी हैं जो माया मॆ पड़े हुए होते हैं लेकिन वे माया की निस्सारता,व्यर्थता को जान कर उस प्रभु की कपा के पात्र बन जाते हैं।अर्थात गुरू जी कहना चाहते है कि हमारे किये से कुछ भी नही होता,यह सब तो प्रभु की कृपा से ही हम उस की बंदगी कर पाते हैं,यदि ऐसा ना होता तो हम जो बंदगी करते हैं,उस के फलस्वरूप जो प्रभु कृपा हमें प्राप्त होती है,उसे हम अपने किए कर्म का फल मानने लगेगें।जिस कारण हमारे अदंर द्वैत की भावना पैदा हो सकती है।इस लिए गुरू जी कहते है
ऐसे भक्त जागते हुए भी सोये हुओं के समान हैं।वही दूसरी ओर ऐसे लोग भी हैं जो माया में लीन रहते हुए माया की व्यर्थता को जान लेते हैं ,इस कारण वह सोये हुए भी जाग जाते है। अर्थात उस प्रभु के निकट हो जाते हैं।उस की कपा के पात्र बन जाते हैं।

रविवार, 7 जून 2009

फरीद के श्लोक - ३५

फरीदा पिछल राति न जागिउरि जीवदड़े मुइउरि॥
जे तै रबु विसारिआ त रबि न विसरिउरि॥१०७॥

फरीदा कंतु रंगावला वडा वेमुरताजु॥
अलर सेती रतिआ ऐहु सचावां साजु॥१०८॥

फरीदा दुखु सुखु इक करि दिल ते लाहि विकारु॥
अलर भावै सो भला तां लभी दरबारु॥१०९॥

फरीद जी कहते हैं कि यदि तू पिछली रात को नही जागा तो यह जो तेरा जीवन है यह जीवन मरे हुए जीवन के समान गुजर जाएगा।यदि तू उस परमात्मा को भुला बैठा है,तो तू तो भले भूला रह,लेकिन वह परमात्मा तुझे कभी नही भुलाता। अर्थात फरीद जी कहना चाहते है कि इस जीवन में जो दुख के समय भी उस परमात्मा को याद नही करता है ,उसका जीवन व्यर्थ ही जाता है।ऐसे मे कुछ लोग सोचते हैं कि ईश्वर ने हमें भुला दिया है,लेकिन ऐसा कुछ भी नही है।परमात्मा हमे कैसे भूल सकता है।जबकि यहाँ परमात्मा के बिना दूसरा कुछ है ही नही।यह सब परमात्मा ने स्वयं ही अपना विस्तार ही तो किया हुआ है।ऐसे मे हम उस से बाहर कैसे हो सकते हैं,वह हमें कैसे भूल सकता है।

अगले श्लोक में गुरु अर्जुन देव जी फरीद जी की बात को आगे बढाते हुए उस परमात्मा के संबध मे कहते है कि वह परमात्मा बहुत रंगावला अर्थात सभी रंगों से भरपूर,आनंददायी व सदा शातंमयी रहता है,ऐसे मे यदि हम भी उसी के रंग मे रंग जाएं तो हम सभी पापों और विकारों से मुक्त हो कर,उस आन्ण्द मयी अवस्था को प्राप्त हो सकेगें अर्थात उस परमात्मा को पा सकेगे। अर्थात गुरु जी कहना चाहते है कि वह परमात्मा बहुत रगों वाला है,इस लिए हम कैसे भी हो वह हम सभी को अपने अन्दर समाहित कर लेता है।हम पापी हो पुण्यात्मा हो चाहे कोई भी हो।हम जब उस की शरण में जाते हैं तो वह हमें उसी रूप मे स्वीकार कर लेता है।वह परमात्मा शांती स्वरूप है अत: हमे भी वैसा ही बना देता है।

अगले श्लोक मे गुरू अर्जुन देव जी फरिद जी की बात को आगे बढाते हुए कहते हैं कि यह जो सुख और दुख है इसे एक ही करके जानना,जिस से तेरे भीतर के विकार दूर हो सकें।इस तरह उनको स्वीकार करने पर तुझे उस परमात्मा के द्वार मे प्रवेश मिल जाएगा।अर्थात प्रभु कृपा प्राप्त हो जाएगी।अर्थात गुर जी हम से यह कहना चाहते है कि यह जो सुख दुख हैं, वास्तव में यह दो नही हैं,यह सुख दुख एक ही सिक्के के दो पहलू हैं,सुख के साथ दुख जुड़ा हुआ है और दुख के साथ सुख।इस लिए जब हम इन्हें अलग अलग मानते हैं तो हमारी तकलीफ शुरू होती है।हम परेशान होते हैं।यदि हम इस बात को समझ ले की सुख और दुख दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं तो हम इस से बच सकते हैं।तब हमें यह समझ आ जाएगा कि ईश्वर का प्रत्येक कार्य हमारे भले के लिए ही होता है।इस तरह उस परमात्मा की मर्जी को स्वीकारने से हम सहज ही उस परमात्मा की कृपा पा सकेगें।उस के दरबार में प्रवेश पा सकेगें।