शनिवार, 8 अगस्त 2009

फरीद के श्लोक - ४१

निवणु सु अखरु,खवणु गुणु,जिहबा मणीआ मंतु॥
ऐ त्रै भैणे वेस करि,तां वसि आवी कंतु॥१२७॥

मति होदी होइ इआणा॥
ताणु होदे होऐ निताणा॥
अणहोदे आपु वंडाऐ॥
कोइ ऐसा भगतु सदाऐ॥१२८॥

इकु फिका न गालाइ,सभना मै सचा धणी॥
हिआउ न कैही ठाहि, माणक सभ अमोलवे॥१२९॥

सभना मन माणिक,ठाहणु मूलि मचांगवा॥
जे तउ पिरीआ दी सिक,हिआउ न ठाहे कही दा॥१३०॥


पिछले श्लोकों में कुछ प्रश्न उठाए गए थे, उन्हीं उठाए गए प्रश्नों के उत्तर देते हुए गुरु जी कहते हैं कि उस परमात्मा की कृपा पाने के लिए तीन गुण होने जरूरी होते हैं और वह है पहला....झुकना पहला अक्षर है,दूसरा गुण है सहनशीलता और तीसरा गुण है मीठा बोलना।गुरू जी कहते है कि हे,बहन यदि किसी मे ऐसे गुण आ जाए तो उस का पति उस के वश में आ जाता है।यहाँ गुरू जी का पति से भाव परमात्मा से है।अर्थात गुरू जी कहना चाहते है कि यदि तुम्हें अपने परमेश्वर को पाना है तो तुम्हारे भीतर यह तीन गुण होने चाहिए। तभी उस परमात्मा की कृपा पाई जा सकती है। यहां उन्होने पहला गुण झुकना कहा है।वह इस लिए कि जब तक जीव अंहकार से रहित नही होता वह किसी के आगे झुक नही सकता। इस लिए गुरू जी पहला गुण झुकना बताते हैं। दूसरा गुण सहनशीलता है।सहनशीलता उसी जीव के भीतर हो सकती है जो क्रोध से रहित हो।तीसरा गुण मीठा बोलना बताया गया है।मी्ठा वही जीव बोल सकता है जो सभी से प्रेम करता हो।(इस विषय पर विस्तृत जानकारी अलग से इसी ब्लोग पर दी जाएगी।)गुरु जी कहना चाहते है कि यदि हमारे भीतर यह तीनों गुण आ जाए तो हम अपने पति को अपने वश मे कर सकते हैं। अर्थात उस परमात्मा की कृपा पा सकते हैं।

इन श्लोकों में गुरु जी कहते है कि ऐसा जीव जो बुद्धि होते हुए भी अंजान बना रहता हो। ताकतवर होते हुए भी सामान्य व्यवाहर करे।अर्थात अपनी शक्ति का प्रयोग ना करे। अपने पास कुछ ना होते हुए भी दूसरों की मदद करे।जिस जीव का ऐसा व्यवाहर होता है वह वास्तव मे भगत कहलाने योग्य है।अर्थात गुरु जी यहाँ पहले श्लोक में कहे हुए भाव के कारण पैदा हुए गुण को यहाँ बताना चाहते हैं। कि जिस में उपरोक्त तीन गुण आ जाते हैं,उस का व्यवाहर ऐअसा हो जाता है कि वह विवेकशील,बुद्धिमान होते हुए भी अपनी विद्धता का प्रदर्शन नही करता। प्रभु द्वारा पाई हुई कृपा से प्राप्त शक्ति का निजि फायदे के लिए प्रयोग नही करता और हमेशा दूसरों की मदद करने के लिए तैयार रहता है,भले ही दुसरो की मदद करते समय वह स्यंम कष्ट मे पड़ जाए,परेशानी में पड़ जाए।गुरु जी कहते है कि ऐसा जीव ही भगत कहलानें के योग्य होता है।ऐसा व्यवाहर करने वाले को ही भगत समझना चाहिए।

अगले श्लोक में भगत के व्यवाहर के और गुण बताते हुए गुरु जी कहते है कि ऐसा जीव किसी से फीका अर्थात अभद्र या ऐसे शब्द कभी नही बोलता जिस से दूसरे का दिल दुखे। क्योकि उसे यह समझ आ जाती है कि सभी जीवों मे वही परमात्मा बसा हुआ है।सभी जीवों मे उस का अपना प्यारा स्वंय बैठा है। इस लिए सभी जीव उस के लिए बहुत अनमोल हो जाते हैं,उसे तो अपना प्यारा परमात्मा ही हरेक जीव में दिखाई देने लगता है।अर्थात गुरू जी कहना चाहते हैं कि जो जीव उस परमात्मा से जुड़ जाता है वह किसी से बुरा व्यवाहर कर ही नही सकता अर्थात उसे हरेक जीव मे वही परमात्मा ही नजर आने लगता है,ऐसे में वह किसी के साथ बुरा नही बोल सकता है।

अंतिम स्लोक मे गुरु जी कहते है कि है जीव यदि तुझे सच में ही उस परमात्मा कि चाह है तो ऐसा व्यवाहर कभी मत करना कि किसी का दिल दुखे।क्योकि सभी के मन बहुत अनमोल हैं ,माणिक के समान है।अर्थात सभी के भीतर ,सभी के मन में वह परमात्मा ही बैठा हुआ है।अर्थात गुरु जी कहना चाहते है कि यदि तू किसी का दिल दुखाएगा तो तू एक तरह से उस परमात्मा को ही स्वीकार नही कर रहा है। क्योकि वह ही उन सभी जीवों मॆ बसा हुआ है।