मंगलवार, 29 दिसंबर 2009

कबीर के श्लोक -३

कबीर ऐसा एक आधु,जो जीवत मिरतकु होइ॥
निरभै होइ के गुन रवै,जत पेखऊ तत सोइ॥५॥

कबीर जी कहते है कि इस संसार मे कोई बिरला ही होता है जो अपने जीवन को इस तरह जीए जैसे कोई जीवत व्यक्ति किसी मरे हुए के समान इस संसार से संबध रखता है।निरभय हो कर सुख और दुख से ऊपर उठ जाए।अर्थात सुख और दुख को एक समान महसूस करे और उस परम पिता परमात्मा को ही हर जगह देखे।

कबीर जी कहना चाहते है कि दुनिया में कोई विरला व्यक्ति ही होता है परमात्मा की रजा मे रहता है और उस परमात्मा द्वारा दिए गए सुख दुख को समान भाव से स्वीकार करता है।ऐसा व्यक्ति विरला ही होता है जो इस सुख दूख से बेपरवाह होकर उस परमात्मा से बिना कोई शिकायत किए उस का यशोगान,उस की भक्ति करता रहता है।ऐसा इन्सान वही हो सकता है जो हर जगह,हरेक में उस परमात्मा को देखता है। अर्थात कबीर जी कहना चाहते हैं कि हमे उस परमात्मा की भक्ति इसी तरह करनी चाहिए।

कबीर जा दिन हऊ मुआ,पाछै भईआ अनंदु॥
मोहि मिलिउ प्रभु आपना,संगी भजहि गोबिंदु॥६॥

इस श्लोक मे कबीर जी कहते है जिस दिन हमारे भीतर से अंहकार नष्ट हो जाता है,उसी दिन से हमे आनंद की प्राप्ती होनी आरम्भ हो जाता है और उस परमात्मा की ओर हमारा ध्यान स्वत: ही जाने लगता है। हमे उस परमात्मा की मौजूदगी का एहसास होने लगता है और हमारा मन उस मे स्वत: ही रमने लगता है।

इस श्लोक मे कबीर जी पहले कहे गए श्लोक पर अमल करने के बाद जो होता है उस का वर्णन कर रहे हैं। कि जब अंहकार की निवृति हो जाती है तो ही हमे आनंद की प्राप्ती होती है। वास्तव मे यह अंहकार ही हमे उस आनंद को पाने में बाधक होता है।लेकिन जिस दिन यह अंहकार मर जाता है अर्थात हम इसे छोड़ देते हैं उसी समय यह आनंद हमारे भीतर नजर आने लगता है ,हमे महसूस होने लगता है। वास्तव में यह आनंद तो हरेक के भीतर पहले से ही मौजूद होता है लेकिन हमारे अंहकार के कारण हमे नजर नही आता।इस प्रकार अंहकार के मरते ही वह परमानंद स्वरूप परमात्मा से हमारा मिलन हो जाता है।फिर हमे परमात्मा का ध्यान करने के लिए किसी प्रकार की चेष्टा नही करनी पड़ती। वह परमात्मा स्वत: ही हमे अपने साथ मौजूद नजर आने लगता है।

मंगलवार, 22 दिसंबर 2009

कबीर के श्लोक -२

कबीर डगमग किआ करहि,कहा ढुलावहि जीउ॥
सरब सूख के नाइको,राम नाम रसु पीउ॥३॥

कबीर जी कहते है कि हे प्राणी तू अपने मन को किन बातों मे उलझा रहा है,क्यो तू क्षणिक सुखो मे लग कर अपने मन को बहला रहा है। तुझे तो उस परमपिता परमेश्वर जो कि सभी सुखो का स्वामी है, सभी सुखो को देने वाला है,उस राम के नाम का महारस पीना चाहिए। वास्तव मे कबीर जी हम से कहना चाहते है कि इन्सान उस सुख को भूला रहता है जो सदा रहने वाला है, वह ऐसे सुखो के पीछे भागता है जो वास्तव में सुख लगते तो हैं लेकिन सुख होते नही।क्योकि कोई भी सुख वास्तविक सुख तभी हो सकता है जिस को भोगने के बाद मन शांत हो जाता है।ऐसे सुखो का क्या फायदा जिसे भोगने के बाद नये सुख की तलाश आरम्भ हो जाती हो।इस लिए हमे सदा सुख की नही बल्कि उस सुख को देने वाले की तलाश करनी चाहिए।ताकि हम सदा उस महा सुख का आनंद उठा सके। उस महा सुख को भोग सके।जिसे भोगने के बाद,पाने के बाद और पाने की लालसा ही समाप्त हो जाती है।

कबीर कंचन के कुंडल बने,उपरि लाल जड़ाऊ॥
दीसहि दाधे कान जिउ,जिन मनि नाही नाऊ॥४॥

कबीर जी इस श्लोक मे कहते है कि यदि सोने के कुडंल हो और उस पर लाल रत्न जड़े हुए हो और उन्हे ऐसे कानों मे पहना गया हो जो भीतर से सड़ चुके हो, जिस कान मे उस परमात्मा का नाम सुनाई ही ना देता हो। ऐसे कानों मे पहने हुए यह सोने के लाल रत्न जड़ित कुडंलो का क्या लाभ। कबीर जी यहाँ कहना चाहते हैं कि मात्र दिखावा करने से कुछ नही होता।यदि कोई सब के सामने ऐसा दिखावा करता रहता है कि वह सदा हरि भजन मे लगा रहता है, ऐसे मे मुँह से तो वह भले ही हरि हरि जपता रहता है लेकिन उस का मन कहीं और दुनियावी पदार्थो में विषय वासनाओ मे भटकता रहता है। ऐसे इन्सान के कान सड़े हुए ही तो माने जाएगें । जिस के मन मे परमात्मा का नाम है ही नही।वासतव मे कबीर जी इस प्रकार के दिखावे का विरोध कर हमे यहाँ सही रास्ता दिखाना चाहते हैं।

मंगलवार, 15 दिसंबर 2009

कबीर के श्लोक - १


कबीर मेरी सिमरनी, रसना ऊपर रामु॥
आदि जुगादी सगल भगत,ता को सुखु बिस्रामु॥१॥

कबीर जी कहते है कि मेरी सिमरनी अर्थात मेरी माला तो मेरी जीभ है जिस पर में राम नाम का जाप जपता हूँ। ऐसा सिर्फ मैं ही कर रहा हूँ यह बात नही है आदि से परमात्मा का सिमरन प्रभु भगत इसी जीह्वा रूपी माला से ही कर रहे हैं और सदा करते रहेगें और इसी तरह सुख पाते रहेगें अर्थात उस परमात्मा से एकाकार होते रहेगें। यहाँ पर कबीर जी लोगों में भ्रम निवारण के लिए ऐसा कह रहे हैं क्योकि कुछ लोगो कि यह धार्मिक मान्यताएं हैं कि किसी विशेष माला से जप करने पर उस जप का विशेष प्रभाव या लाभ मिलता है। कबीर जी इसी बात का खंडन करने के लिए यहाँ कह रहे हैं कि प्रभु के नाम का जप तो हम अपनी जीभ रूपी सिमरनी से करते हैं वास्तव में यही जिह्वा ही हमारी माला है।इसी जिह्वा से सदा भगत उस प्रभु का सिमरन करते रहे हैं, जिस से उन्हें उस परमात्मा का वह सुख प्राप्त हुआ है जो सदा रहता है।

कबीर मेरी जाति कउ,सभु को हसनेहारु॥
बलिहारी इस जाति कउ जिह जपिउ सिरजनहारु॥२॥

कबीर जी इस श्लोक में अपनी जाति के बारे मे कह रहे है कि मैं छोटी जाति का हूँ इस लिए सभी मेरी छोटी जाति के कारण मुझ पर पर हँसते हैं, लेकिन कबीर जी कहते है कि मैं तो अपनी जाति पर बलिहारी जाता हूँ ,जिस के कारण मै उस परमात्मा ,उस सिरजनहार का नाम जप सका। अर्थात कबीर जी कहना चाहते है कि बहुत से लोग अपनी बड़ी जाति के होनें के कारण अपनी से छोटी जाति वालों का हीन भाव से देखते हैं अर्थात उन्हें हेय दृष्टि से देखते हैं और उन पर हँसते हैं ।पुराने समय मे ऐसी मान्यता थी कि छोटी जाति के लोगों को ना तो मंदिर मे प्रवेश की अनुमति थी और ना ही वेद शास्त्र पढ़ने की। वैसे कई जगह यह आज भी वैसी ही बनी हुई है। कबीर जी यहाँ इसी बात का खंडन कर रहे है कि लोग किसी की छोटी जाति के कारण भले ही उस पर हँसते रहे, इस से कोई फर्क नही पड़ता क्योकि वास्तव मे तो वही जाति गर्व करने लायक है जिस जाति में कोई उस परमात्मा की निकटता पा जाता है।