रविवार, 28 नवंबर 2010

कबीर के श्लोक -४७




कबीर संगति कहिए साध की, अंति करै निरबाहु॥
साकत संगु ना कीजीए, जा ते होइ बिनाहु॥९३॥

कबीर जी कहते है कि हमे हमेशा ऐसे लोगों की संगति करनी चाहिए जो उस परमात्मा के नाम मे रमे रहते हैं,जो अपने जीवन मे उस परमात्मा को साधने मे लगे हुए हैं ताकि उस परमात्मा के साथ एकरूप हो सके।ऐसे लोगों की संगति सदा स्थाई होती है।जो आखिर तक साथ देती है।इस के विपरीत जो लोग साकत है अर्थात उस परमात्मा को भूल कर बैठे हुए हैं,ऐसे लोगो से सदा ही बचना चाहिए। क्योंकि ऐसे लोगो की सगंति उस परमानंद की प्राप्ती मे बाधक बन जाती है।

कबीर जी इस श्लोक मे हमे सगंति के पड़ने वाले प्रभाव को समझाना चाहते हैं।जीव के मन पर सगंति का बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है। भले ही पहले उस का प्रभाव नजर ना आए, लेकिन समय आने पर जब परिस्थियां प्रतीकूल होने लगती है तो जीव हमेशा पतन के रास्ते पर चला जाता है। इसी लिए कबीर जी समझाना चाहते है कि हमें हमेशा ऐसे लोगो की सगंति करनी चाहिए जो हमे आत्मिक उन्नति प्रदान करे।


कबीर जग महि चेतिउ जानि कै,जग महि रहिउ समाइ॥
जिन हरि का नामु न चेतिउ,बादहि जनमें आइ॥९४॥

कबीर जी आगे कहते हैं कि जिन लोगो को यह समझ आ गया है कि उस परमात्मा के सिवा और कोई भी ठौर ऐसा नही है जो हमे शांती प्रदान कर सके।क्योकि एक परमात्मा ही सारे ब्रंह्माड मे व्याप्त है,वही इस सारे चराचर जगत का आधार है, इस लिए उसके सिवा कही भी कोई स्थाई ठिकाना नही मिल सकता।जो इस बात को समझ चुके हैं वास्तव मे ऐसे लोगो का जन्म लेना ही सार्थक हो सकता है। इस के विपरीत जो लोग उस परमात्मा को इस तरह नही जान पाते ,उन का जन्म बेकार ही जाता है।

कबीर जी हमे समझना चाहते हैं कि जब जीव उस परमात्मा की साधना मे लगता है तो वह जान जाता है कि इस ब्रंह्माड मे वही एक व्याप्त है।इसे जानाने वाले का का जन्म लेना ही सार्थक कहलाता है।वहीं जीव मन की शांती पाता है। इस के विपरीत जो नही जान पाता वह अपना जीवन व्यर्थ  ही गँवा कर जाता है।

रविवार, 21 नवंबर 2010

कबीर के श्लोक -४६

कबीर एक मरंते दुइ मूऐ, दोइ मरंतह चारि॥
चारि मरंतह छ्ह मूऐ, चारि पुरख दुइ नारि॥९१॥


कबीर जी इस श्लोक मे कुछ रहस्यमय बातों की ओर इशारा कर रहे है जिन्हे वही समझ सकता है जो सत्य से साक्षात्कार कर चुका है। कबीर जी कहते हैं कि एक के मरने पर दो मर जाते हैं और दो के मरने पर चार मर जाते हैं और इन चारों के मरने पर छे मर जाते हैं जिन मे चार पुरूष और दो नारीयां हैं।

कबीर जी कहना चाहते है कि वह कौन है जिस एक के मरने पर दो मर जाते हैं ? वह क्या है जिन दो के मरने पर चार मर जाते हैं और वह क्या है जिन चार के मरने पर छे मर जाते हैं । जिन मे चार पुरूष है और दो स्त्रीयां। इस श्लोक का वास्तविक अर्थ यहां नही दिया जा रहा ।   कबीर जी ने भी इस रहस्य को प्रकट नही किया। क्योंकि हम लोग किसी भी अर्थ को याद कर लेते है और फिर मानने लगते है कि हम इस के ज्ञाता है। इस तरह हमारी आध्यात्मिक यात्रा वही अटक जाती है। इस रहस्य को जानने के लिए  भीतर की यात्रा करके जानने की कोशिश करनी पड़ेगी।

कबीर देखि देखि जग ढूंढिआ, कहू ना पाइआ ठउरु॥
जिनि हरि का नामु ना चेतिउ, कहा भुलाने अऊरु॥९२॥


कबीर जी कहते हैं कि सब जगह देख देख कर हम इस संसार में ऐसी जगह ढूंढना चाहते है जहां हमें ठौर मिल सके। लेकिन हमे ऐसी कोई जगह कहीं नही मिलती। क्योंकि जो जीव उस परमात्मा के नाम का ध्यान नही करता, वह भटकता ही रह जाता है।

कबीर जी इस श्लोक मे हमे कहना चाहते हैं कि जब तक हम बाहर ही शांती की तलाश करते रहेगें हमे शांती कभी नही मिल सकती। हमे वह ठिकाना कभी नही मिल सकता,जहाँ पर हमारा मन टिक जाए। अर्थात यह मन अपनी भाग-दोड़ को छोड़ दे। कबीर जी कहना चाहते है कि यह तभी संभव हो सकता है जब हम बाहर की बजाय अपने भीतर उस शांती उस परमानंद को खोजें। क्योकिं कि वह परमात्मा का नाम ही हमे वहाँ तक ले जा सकता है, इस लिए उसे भूलकर हम सिर्फ भटक ही सकते हैं।

रविवार, 14 नवंबर 2010

कबीर के श्लोक -४५

कबीर भार पराई सिरि चरै, चलिउ चाहै बाट॥
अपने भावहि ना डरै, आगै अऊघट घाट॥८९॥


कबीर जी कहते हैं कि हमारे ऊपर जो भार पराई निंदा करने के कारण चड़ता है , उस से बच पाना बहुत मुश्किल हैं।क्योंकि हरेक को पराई निंदा करने मे बड़ा रस आता है.....इस कारण वह उसे छोड़ नही पाता। वह यह जानते हुए भी कि यह निंदा करनी सही नही है, फिर भी उसी रास्ते पर चलता जाता है। निरन्तर इसी रास्ते पर चलते हुए एक दिन वह सही और गलत का फर्क भी भूल जाता है।

इस श्लोक मे कबीर जी हमे समझाना चाहते हैं कि जब हम पराई निंदा मे रस लेने लगते हैं तो यह भूल जाते हैं कि इस निंदा के कारण हमारे भीतर भी वह बुराई घर करती जा रही है। जैसे कोई व्यक्ति जगह जगह में पड़ा कूड़ा बीनता रहे तो उस के पास कूड़ा ही एकत्र होता जाएगा। जिस कारण  उस की बुद्धि मलीन हो जाएगी, फिर वह ईश्वर को क्युँकर याद करेगा ? इसी बात की ओर  कबीर जी इशारा कर रहे हैं।


कबीर बन की दाधी लाकरी, ठाढी करै पुकार॥
मति बसि परऊ लुहार के, जारै दूजी बार॥९०॥


कबीर जी कहते है कि वन की अधजली लकड़ी जो जमीन के भीतर दबी पड़ी रहती है वह पुकारती रहती है, प्रभू से प्रार्थना करती रहती है कि मैं किसी लुहार के हाथ ना पड़ जाऊँ क्योकि वह मुझे दुबारा भट्टी मे झॊंक देगा।

कबीर जी इस श्लोक में पिछले श्लोक की अवस्था का प्रभाव बताते हुए हमे कहना चाहते हैं कि जिस प्रकार जंगल की जली लकड़ी जमीन मे दबी रहने के बाद फिर कच्चे कोयले के रूप मे प्रकट हो जाती है और लौहार द्वारा पुन: जला दी जाती है, ठीक उसी तरह जो लोग पराई निंदा कर कर के मलीन हो चुके होते हैं उन्हें उसी मलीनता के ढेर मे फैंक दिया जाता है। अर्थात जिस तरह के भाव या बुद्धि हमारी होती है हम उसी ओर जाने को बाध्य हो जाते हैं।

रविवार, 7 नवंबर 2010

कबीर के श्लोक -४४



कबीर जा कऊ खोजते, पाइउ सोई ठऊरु॥
सोई फिरि कै तू भईआ, जा कऊ कहता अऊरु॥८७॥

कबीर जी कहते है कि हम जिस सच्चे सुख की तलाश करते रहते हैं, उस स्थान को खोजते हुए जब हम उस परमात्मा की भक्ति की ओर आगे बढ़ते हैं तो हम आगे बढ़्ते हुए एक दिन उस स्थान पर अवश्य ही पहुँच जाते हैं जिस स्थान की हम खोज कर रहे थे। क्योकि हम जिस परमात्मा की तलाश में निकलते है एक दिन उसे खोजते खोजते उसी के रंग में रंग के उसी के समान हो जाते हैं जिसे हम कोई दूसरा मान कर खोज रहे थे।

वास्तव मे कबीर जी हमे कहना चाहते है कि जीव की भावना जितनी गहरी होती है, जीव उसी भावना मे डूब कर उसी जैसे होने लगता है। ऐसे मे एक दिन उसे समझ आती है कि वह जिसे खोज रहा था वह तो स्वयं उसी के भीतर समाया हुआ था।सिर्फ प्रेम और सच्ची भावना की कमी के कारण ही हम भटक रहे थे। जबकि वह हमारे भीतर पहले से ही मौजूद है।


कबीर मारी मरऊ कुसंग की, केले निकटि जु बेरि॥
उह झूलै, उह चीरीऐ, साकत संग न हेरि॥८८॥

आगे कबीर जी कहते हैं कि यदि हमारा संग ऐसे लोगो के साथ है जो बुरे स्वाभाव वाले हैं ,तो ऐसे मे भी हम अपने मार्ग से भटक सकते हैं । वह उदाहरण देते हुए कहते हैं जिस प्रकार केले और बेर का वृक्ष यदि पास -पास होते हैं तो बेर और केले का वृक्ष हवा के झोंकों के कारण आपस मे टकराते हैं तो ऐसे मे बेर का वृक्ष केले के वृक्ष को छलनी कर देता है ....जगह जगह से चीर देता है। ठीक इसी प्रकार ऐसे लोगो का संग करने से जो उस परमात्मा से दूर हैं, अपने स्वाभाव के कारण हमेशा नुकसान ही पहुँचाते हैं। इस लिए कबीर जी हमे कहते हैं कि ऐसे लोगो का संग कभी भी नही करना चाहिए।

इस श्लोक मे कबीर जी हमे समझाना चाहते है कि हमें हमेशा बुरे स्वाभाव वाले लोगों से सदा दूर रहना चाहिए।क्योकि मानव स्वबा ऐसा है कि उस पर संगत का असर देर -सबेर जरूर पड़ने लगता है।