सोमवार, 28 फ़रवरी 2011

कबीर के श्लोक - ५९

कबीर जगु बाधिउ जिह जेवरी, तिह मत बंधहु कबीर॥
जै हरि आटा लोन जिउ, सोन समानि सरीर॥११७॥

कबीर जी कहते हैं कि ये सारा संसार ममता और मोह रूपी रस्सी के साथ बंधा हुआ  है।कबीर जी कहते हैं कि तुम भी इसी बधंन में मत बंध जाना। इन  भौतिक कामनाओं के मोह के कारण ,तुझे जो यह अमुल्य सोने के समान शरीर मिला है ,इसका मिलना व्यर्थ ही जायेगा यदि तू संसारिक मोह के बधंनों में ही फँसा रहा।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि यह जो मनु्ष्य जन्म मिला है यह बहुत कीमती है। हमे समय रहते इसका उपयोग परमात्मा की प्राप्ती के लिए करना चाहिए।अन्यथा ये मनुष्य का शरीर व्यर्थ के कामों मे ही उलझा रहेगा और बेकार ही जायेगा।कबीर जी इसी लिए हमे सचेत कर रहे हैं।


कबीर हंस उडिउ तनु गाडिउ,सोझाई सैनाह॥
अजहू जीउ न छोडई, रंकाई नैनाह॥११८॥

कबीर जी कहते हैं कि ये संसारिक मोह ममता का बधंन बहुत मजबूत होता है जीव अपने अंतिम समय में, जब मौत उसके सिर पर खड़ी होती है, उस समय भी ये जीव इन मोह ममता आदि के बधंनों से मुक्त नही हो पाता। उस समय भी इसी का चिंतन करता रहता है।

कबीर जी हमे समझाना चाहते हैं कि यदि हम इन  मोह ममता रूपी बधंनो मे बंधें रहेगें तो  अपने जीवन के अंतिम समय में यह बधंन हमे इतनी मजबूती से जकड़ लेगें की हम इन्हें नही छोड़ पायेगें।इसी लिए कबीर जी हमे सचेत करना चाहते हैं कि समय रहते ही हमें इन बधंनो से आजाद हो जाना चाहिए। अन्यथा इनसे छुटकारा पाना हमारे लिए असंम्भव हो जायेगा।

सोमवार, 21 फ़रवरी 2011

कबीर के श्लोक - ५८

बूडा बंसु कबीर का, उपजिउ पूतु कमालु॥
हरि का सिमरनु छाडि कै,घरि ले आया मालु॥११५॥

कबीर जी कहते हैं कि जब मेरा वंश बूढ़ा था उस समय मेरे मन मे नासमझी वाली बातें आती रहती थी।बूढ़ा वंश अर्थात कमजोर मन ने उस परमात्मा का सिमरन करना छोड़ दिया था। ऐसे में मेरे मन मे दुनियावी पदार्थो को इक्ठ्ठा करने की प्रवृति जाग गई।

कबीर जी कहना चाहते हैं जब हमारा मन कमजोर होता है तो हमारे भीतर ऐसे विचारों का जन्म होता है,जिस से हम प्रभू से दूर हो जाते हैं और भौतिक साधनों को इक्ट्ठा करने में ही लगे रहते हैं।अर्थात कबीर जी कहना चाहते हैं कि जो लोग परमात्मा से दूर होते हैं उनका मन भी कमजोर हो जाता है।

कबीर साधू कौ मिलने जाइऐ, साथि ना लीजै कोइ॥
पाछै पाउ न दीजिऐ, आगै होइ सु होइ॥११६॥

कबीर जी कह्ते हैं कि जब हम किसी साधू से मिलने जायें अर्थात परमात्मा के भक्त से मिलने जायें ,तो अपने साथ किसी को भी और कुछ भी ले कर नही जाना चाहिए। किसी बात से घबराकर हमें अपने कदम पीछे नही हटाने चाहिये।बल्कि बिना डरे आगे बढते जाना चाहिए।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि जब  हम किसी परमात्मा के भक्त के पास जाते हैं तो किसी प्रकार की शंकाये लेकर नही जाना चाहिए।क्योकि परमात्मा का भक्त जो भी बात बोलेगा वह अपने अनुभव से प्राप्त बात ही बोलेगा। इस लिए मन मे कोई शंका नही करनी चाहिए और उसके दिये उपदेश के अनुसार निर्भय हो कर उस का पालन करना चाहिए। तभी हम उस अवस्था को पा सकेगें जिसे उसने पाया हुआ है।

सोमवार, 14 फ़रवरी 2011

कबीर के श्लोक - ५७

कबीर सभु जगु हऊ फिरिउ, मांदलु कंध चढाइ॥
कोई काहू को नही, सभ देखी ठोकि बजाइ॥११३॥

कबीर जी कहते हैं कि कंधे पर ढोल टाँग कर मै उसे बजाता फिरता रहा और सारे जगत मे भ्रमण कर देख लिआ है कि यहाँ ऐसा कोई भी नही जो सदा किसी का साथ निभाता है। इस बात को अच्छी तरह समझ कर देख लिआ है।

कबीर जी हमें समझाना चाहते हैं कि इस जगत में तुम्हारा साथ सदा किसी ने नही देना।चाहो तो किसी से भी पूछ लो कि ऐसी कोई चीज या आदमी है जो सदा तुम्हारा साथ निभा सके ? इन प्रश्नों का उत्तर होगा "नही!" सभी यही जवाब देगें। भले ही जितनी मर्जी जाँच -पड़ताल कर लो। अर्थात कबीर जी हमे समझाना चाहते हैं कि एकमात्र ईश्वर का नाम ही ऐसा हैं जो सदा साथ निभा सकता है।

मारगि मोती बीथरे, अंधा निकसिउ आइ॥
जोति बिना जगदीस की,जगतु उलंघे जाइ॥११४॥

कबीर जी आगे कहते हैं कि हमारे मार्ग में मोती बिखरे पड़े हैं लेकिन अंधा उन्हें देख नही पाता और आगे निकल जाता है। उस का एकमात्र कारण यही है कि हमारे पास उस परमात्मा की दी हुई ज्योति नही है। इस कारण सारा जगत ही इन्हें लाँघता हुआ  चला जा रहा है।

कबीर जी ने पिछले श्लोक मे हमे समझाया था कि एकमात्र परमात्मा का नाम ही हमारा साथ निभाता है लेकिन यह साथ तभी मिलता है जब ईश्वर हमे अपने आप को पहचानने की समझ देता है।यदि यह ज्योति हमारे पास नही है तो हम मोतीयो रूपी यह जो जीवन दिया है, जिस मे हम ईश्वर के नाम रूपी मोतीयों को पा सकते हैं, नही पा पाते।अर्थात कबीर जी कहना चाहते हैं कि हमे ईश्वर की कृपा पाने की चैष्टा करनी चाहिए ताकी ईश्वर हमपर कृपा करे और हम अपने जीवन को ईश्वरमय कर परमानंद मे जीयें।

सोमवार, 7 फ़रवरी 2011

कबीर के श्लोक - ५६

कबीर सोई कुल भली, जा कुल हरि को दासु॥
जिहु कुल दासु न ऊपजै, सो कुल ढाकु पलासु॥१११॥

कबीर जी कहते हैं कि जिस कुल मे परमात्मा का साधक पैदा हो जाता है वही कुल सब से अच्छी है और जिस कुल मे परमात्मा की भक्ति करने वाला कोइ नही होता वही कुल ढाक पलाश की तरह व्यर्थ है ।

कबीर जी हमे समझाना चाहते हैं कि किसी कुल का बड़ा होना और छोटा होना जैसा की समाज देखता है वह सही नही है। वास्तव में कुल तो वह बड़ी होती है जिस में परमात्मा का भक्त होता है अर्थात जिस कुल के लोग भलाई व  सही रास्ते पर चलने वाले होते हैं वही कुल श्रैष्ट है। भले ही समाज उसे हीन दृष्टि से देखता हो। जैसे कबीर जी जुलाहा जाति के होते हुए भी परमात्मा को प्राप्त कर सके और सदैव भलाई के कामों मे लगे रहे।जिस का कारण उन के कुल को सम्मान मिला।जबकि उन्हे समाज छोटे कुल का मानता था।यही कबीर जी हमे इस श्लोक मे समझाना चाहते हैं।


कबीर है गइ बाहन सघन घन,लाख धजा फहराइ॥
इआ सुख ते भिख्खा भली,जऊ हरि सिमरत दिन जाइ॥११२।

कबीर जी कहते हैं कि यदि सवारी करने के लिए अनेक घोड़ें हो और महल आदि के ऊपर अनेक झंडें झूल रहे हों। लेकिन इन सब साधनों के होने पर भी इन का कोई फायदा नही है। इन सब से प्राप्त सुख से तो वह सुख अच्छा है कि भले ही भीख माँगनी पड़े ,लेकिन उस परमात्मा का ध्यान सदा बना रहे।

कबीर जी हमे समझना चाहते हैं कि भौतिक सुखों से हम कभी सुखी नही हो सकते,क्योकि ये सभी सुख अस्थाई हैं। वैसे भी भौतिक सुख सिर्फ शरीरिक सुख ही दे पाते हैं और जो साधन आज तुम्हारे पास हैं वे कल छिन भी सकते है। इसी लिए कबीर जी कहना चाहते हैं कि इन साधनों के ना होने पर भी यदि उस परमात्मा की भक्ति का सहारा लिआ जाए तो उस से मानसिक सुख मिलेगा। जो कि सदा स्थाई बना रहेगा।