रविवार, 21 अगस्त 2011

कबीर के श्लोक - ८२

कबीर काम परे हरि सिमरीऐ, ऐसा सिमरहु नित॥
अमरापुर बासा करहु, हरि गईआ बहोरै बित॥१६३॥

कबीर जी कहते हैं कि बहुत से लोग परमात्मा को सिर्फ जरूरत पडने पर ही याद करते हैं।वैसे इस तरह भी परमात्मा को याद करना सही ही है।यदि हम इस समय को सदा याद रखे और निरन्तर उस परमात्मा का सिमरन करते रहे, तो हमारे निरन्तर इस प्रकार परमात्मा को याद करने के कारण हमारे मन की शुद्धि होने लगती है और हम सहज ही उस परमात्मा की भक्ति को स्थाई रूप से पाने के अधिकारी बन जाते हैं।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि जरूरत पड़ने पर किया गया भला या भक्तिपूर्ण काम अंतत: हमे लाभ ही पहुँचाता है।

कबीर सेवा कौ दुइ भले, ऐक संतु इक रामु॥
रामु जु दाता मुकति को, संतु जपावै नामु॥१६४॥

कबीर जी आगे कहते हैं कि उस परमात्मा कि सेवा अर्थात भक्ति दो प्रकार से की जा सकती है, या तो संतो अर्थात भले लोगो की सेवा करो या फिर सीधे उस परमात्मा का ध्यान करों। राम की भक्ति हमे संसारिक बधनों से मुक्ति प्रदान करती है और सतं की सेवा करने से हमारे भीतर सद्धगुण आते हैं जिस की कूपा के कारण हम उस परमात्मा के ध्यान की ओर प्रेरित होते हैं।

बुधवार, 10 अगस्त 2011

कबीर के श्लोक - ८१

कबीर थूनी पाई थिति भई ,सतिगुरु बंधी धीर॥
कबीर हीरा बनजिआ, मान सरोवर तीर॥१६१॥

कबीर जी कहते हैं कि जिन भक्तों को परमात्मा के शब्दों का सहारा मिल जाता है, वे भक्त भटकने से बच जाते हैं।परमात्मा की कृपा से उस के भीतर धीरज आ जाता है। ऐसा जीव अपने आप को परमात्मा के समर्पित कर के परमात्मा की कृपा को प्राप्त कर लेता है।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि यदि कोई भटकने से बचना चाहता है तो उसे परमात्मा का सहारा लेना पड़ेगा।तभी उस के भीतर ठहराव आ सकेगा।लेकिन इस ठहराव को प्राप्त करने के लिये परमात्मा की कृपा को सहजता से स्वीकारना होगा।तभी परमात्मा के साथ एकाकार हुआ जा सकता है और उस परमात्मा की कृपा पाई जा सकती है।

कबीर हरि हीरा जन जौहरी,ले कै मांडै हाट॥
जब ही पाईअहि पारखू,तब हीरन की साट॥१६२॥

कबीर जी आगे कहते हैं कि परमात्मा का नाम ही हीरा है और परमात्मा का भक्त उसका जौहरी है। जो इसे अपने ह्र्दय रूपी बाजार मे सजाता है। जब कोई इस हीरे की परख करने वाला बन जाता है तो वह इस हीरे के महत्व को समझ पाता है।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि जो संसारिक भोग विलासों की व्यर्तता को परखना जानते हैं ऐसे जौहरी ही उस परमात्मा रूपी हीरे को पहचान पाते हैं और उसे अपने ह्र्दय मे सजाते हैं। वैसे भी हीरे को जौहरी ही पहचान पाता है जबकि आम जन उसे मात्र पत्थर ही मान बैठते हैं।इस लिए जबतक हीरे रूपी उस परमात्मा की पहचान करने वाली बुद्धि हम मे नही होगी, तब तक हम हीरे के महत्व को नही समझ सकते।

सोमवार, 1 अगस्त 2011

कबीर के श्लोक - ८०

कबीर है गै बाहन सघन घन, छ्त्रपती की नारि॥
तासु पटंतर न पुजै, हरि जन की पनिहारि॥१५९॥

कबीर जी कहते हैं कि जो स्त्री परमात्मा की भक्ति करने वालों की श्रदा पूर्वक पानी भरने की सेवा करती है,ऐसी स्त्री भले ही गरीब हो। लेकिन वह उस स्त्री से श्रैष्ट है जो भले ही छ्त्रपति राजा की स्त्री हो और सभी प्रकार के साधनों से सम्पन्न हो।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि परमात्मा की भक्ति करने वालों की सेवा करने से मन में उस परमात्मा के प्रति प्रेम की उत्पत्ति होती है। क्योकि जो उन भक्ति करने वालों की सेवा करता है उस के मन में यह भाव होता है कि वह उसकी सेवा कर रहा है जो उसके प्रिय परमात्मा की भक्तिभाव मे डूबे हुए हैं ऐसे मे परोक्ष रूप से वह भगवान की ही सेवा कर रहा होता है।

कबीर नृप नारी किउ निंदिऐ, किउ हरि चेरी को मानु॥
उह मांग सवारै बिखै कऊ, उह सिमरै हरि नामु॥१६०॥

कबीर जी कहते हैं कि हम उस नृपनारी की क्यों निंदा करते हैं और परमात्मा के सेवको की सेवा करने वाली स्त्री की क्यों बड़ाई करते हैं। उसका कारण है कि नृपनारी तो अपनी मांग सँवारने मे ही अर्थात भोग-विलास मे ही लिप्त रहती है,लेकिन दूसरी स्त्री परमात्मा की भक्ति में लगी रहती है।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि जो लोग अपने जीवन को भोग-विलासों को भोगनें में ही गवा देते है ऐसे लोगो का जीवन व्यर्थ ही जाता है। जबकि जो लोग परमात्मा की भक्ति में डूब कर उस परमात्मा के साथ एकरूपता प्राप्त कर लेते हैं उन का जीवन सफल हो जाता है।इसी लिये कबीर जी भोगविलास में लगे लोगों की निंदा करते हैं।यहाँ पर कबीर जी स्त्री शब्द का प्रयोग परमात्मा के भक्त को इंगित करने के लिये कर रहे हैं।