बुधवार, 28 सितंबर 2011

कबीर के श्लोक - ८६

कबीर परभाते तारे खिसहि, तिऊ इहु खिसै सरीरु॥
ऐ दुइ अखर ना खिसहि, सो गहि रहिउ कबीरु॥१७१॥

कबीर जी कहते हैं कि जिस प्रकार प्रभात होने पर तारों का दिखाई देना बंद होता जाता है .जो रात की शांती में सुशोभित हो रहे होते हैं। उसी प्रकार संसारिक पदार्थो के नजर आने पर उन के प्रभाव से उस परमात्मा के प्रति हमारा लगाव घटता जाता है। हम भौतिक पदार्थों के प्रति आसक्त होने के कारण  कमजोर पड़ने लगते है।लेकिन कबीर जी कहते हैं कि यदि हमारे भीतर परमात्मा का नाम बसा हुआ है तो हम सभी प्रकार के बंधनो से मुक्त रहते हैं।क्योकि परमात्मा का नाम एक बार जिस के भीतर बस जाता है तो ऐसा जीव सभी तरह के संसारिक कारविहार  करते हुए भी उसी मे लीन रहता है।

कबीर जी कहना चाहते है कि संसारिक प्रलोभन जब हमारे सामने होते हैं तो हमारे भीतर परमात्मा की याद कमजोर पड़ जाती है। लेकिन यदि हम उस परमात्मा के नाम का सहारा न छोड़े तो हम इस से बच सकते है और उस को पा सकते है जो सदा मौजूद रहता है।

कबीर कोठी काठ की, दह दिसि लागी आगि॥
पंडित जलि मूऐ, मूरख ऊबरे भागि॥१७२॥

कबीर जी आगे कहते है कि ये दुनिया एक प्रकार से लकड़ी का घर है जिस के चारो ओर माया रूपी आग लगी हुई है।अर्थात अनेक प्रकार के प्रलोभन हमारे चारो ओर भरे पड़े हैं। बहुत से लोग जो अपने आप को पंडित अर्थात समझदार समझते हैं। वे लोग इन प्रलोभनों मे फँस कर इन्हें एकत्र करने मे लग जाते हैं और समझते हैं हम बहुत समझदारी कर रहे हैं और बहुत से लोग ऐसे हैं जो इन भौतिक पदार्थो की नशवरता को पहचानते है इस लिए वे संसार मे रहते हुए भी इन के प्रति विरक्त ही रहते हैं अर्थात इस माया रूपी जाल मे नही फँसते। ऐसे लोग पंडितों की नजर मे मूरख कहलाते है। क्योकि वे इस आग को देख कर भाग जाते हैं।

कबीर जी कहना चाहते है कि जो लोग माया मे ही उलझ जाते है वे उस परमात्मा से बहुत दूर हो जाते है लेकिन जो लोग इस माया मे नही फँसते वे ही उस परमात्मा की निकटता प्राप्त कर पाते है।




बुधवार, 21 सितंबर 2011

कबीर के श्लोक - ८५

कबीर दावै दाझनु हेतु है, निरदावै रहै निसंक॥
जो जनु निरदावै रहै,सो गनै इंद्र सो रंक॥१६९॥

कबीर जी कहते है कि जब हम किसी वस्तु या चीज पर अपना अधिकार समझने लगते हैं तो हमारे भीतर एक प्रकार से उसे अपने अधिकार मे रखने की भावना जन्म ले लेती है। जो हमारी खीज व दुख का कारण बन सकती है।लेकिन जो किसी पर अपने अधिकार को नही जताता उस के मन में कभी भी किसी प्रकार की शंका पैदा  नही होती।ऐसा व्यक्ति इन्द्र के समान होता है जो सभी संम्पदा का मालिक बना रहता है।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि किसी वस्तु पर आसक्ति पैदा होने पर हम उस वस्तु के गुलाम हो जाते है जिस कारण हमारी मलकियत खो जाती है ।अत: हमे संसार मे ऐसे रहना चाहिए कि हम मालिक बने रहे ऐसा ना हो कि वस्तु के प्रति मोह या आसक्ति के कारण वह हमारी मालिक बन जाए।कबीर जी हमे संसार मे रहते हुए इन प्रलोभनों से बचने का उपाय बता रहे हैं।

कबीर पालि समुहा सर्वरु भरा, पी न सकै कोई नीरु॥
भाग बडे तै पाइउ, तू भरि भरि पीऊ कबीर॥१७०॥

कबीर जी आगे कहते है कि इस संसार मे एक ओर जहाँ संसारिक प्रलोभन दिखाई देते हैं वही दूसरी ओर एक ऐसा सरोवर भी सदा से मौजूद है जो पानी से पूरी तरह भरा हुआ है। जिस के कारण कोई अच्छे  भाग्य होने के कारण ही उस पानी तक पहुँच पाता है।यदि तू उस तक पहुँच गया है तो अब उस पानी को प्यालों मे भर भर कर पी और आनंदित हो।
कबीर जी कहना चाहते है कि यदि जीव संसारिक मोह माया से बच जाता है तो वह परमात्मा के सरोवर के करीब पहुँच जाता है जहा पर भक्ति रूपी जल लबालब भरा हुआ है। फिर वह उस भक्ति रूपी जल का  स्वाद जी भर कर ले सकता है।

बुधवार, 14 सितंबर 2011

कबीर के श्लोक - ८४

कबीर डुबहिगो रे बपुरे,बहु लोगन की कानि॥
पारोसी के जो हुआ,तू अपने भीजानु॥१६७॥

कबीर जी कहते हैं कि जो लोग लोक-लाज में फँस कर अपने आप को भक्ति से वंचित कर लेते हैं ऐसे लोग अक्सर लोक-लाज मे ही डूब जाते हैं ।इस तरह की आत्मिक मौत मर जाने से जीवन ऐसे ही व्यर्थ हो जाता है जैसा कि हमे अपने आस-पास अक्सर देखने को मिलता रहता है।इस रास्ते पर चलकर तो एक दिन हम भी ऐसी ही मौत मर जायेगें।

कबीर जी समझाना चाहते हैं कि हम लोका-चार को निभाने की खातिर दिखावा करने में ही पड़े रहते हैं और ऐसे ही अपना जीवन व्यर्थ गँवा देते हैं।जैसा कि हमे अपने आस-पास अक्सर ऐसा देखने को मिलता रहता है।इस लिये हमे दूसरों की परवाह ना करके उस सही रास्ते को चुन लेना चाहिए जिसके लिये हमें यह जीवन मिला है।

कबीर भली मधूकरी, नाना बिधि के नाजु॥
दावा काहू को नही बडा देसु बड काजु॥१६८॥

कबीर जी कहते है कि लोकाचार की खातिर जमीन जयदातों को इक्ठठा करने से बेहतर है कि भिक्षा पर गुजर बसर कर ली जाये। ऐसा करने से उसे किसी पर दावा करने का अंहकार नही सताता।ऐसे अंहकार रहित इंसान को तो सभी कुछ वैसे ही अपना लगने लगता है।

कबीर जी समझाना चाहते हैं कि परमात्मा कि मेहर से जो भी मिले उसी को अपना भाग्य समझना चाहिए और परमात्मा का धन्यवाद करना चाहिए इस तरह का भाव आने पर मन में किसी प्रकार का मन मे संशय नही रहता।

बुधवार, 7 सितंबर 2011

कबीर के श्लोक - ८३

कबीर जिह मारगि पंडित गए, पाचै परी बहीर॥
इक अवघट घाटी राम की, तिह चड़ि रहिउ कबीर॥१६५॥


कबीर जी कहते हैं कि कि पंडित लोग जिस मार्ग पर ले जा रहे हैं भीड़ उधर ही चली जा रही है।क्योकि पंडितो का मार्ग कर्म-कांड पर अधारित होता है जिसे कोई भी धन दे कर अपने लिये करवा सकता है।लेकिन कबीर जी कहते हैं कि परमात्मा का रास्ता तो ऊँचाई की ओर चड़ने जैसे है जिस के लिये यत्न करना पड़ता है।कबीर जी कहते हैं कि मैं तो इसी मार्ग पर चल रहा हूँ।

कबीर जी हमे समझाना चाहते हैं कि पंडितो द्वारा सुझाये गये परमात्मा प्राप्ती के मार्ग पंडितो के निहित स्वार्थों की पूर्ति पर आधारित ही होते हैं।।उन मार्गों को चल कर कुछ मिलता तो है नही, बल्कि उन मार्गों पर चलने के कारण साधक व्यर्थ के कर्म-कांडों में उलझ कर रह जाता है और अपना जीवन व्यर्थ ही गँवा देता है। अर्थात कबीर जी कहना चाहते हैं कि यदि आपके मन मे परमात्मा की चाह है तो आप को उसे पाने के लिये स्वयं ही यत्न करना पड़ेगा। कोई दूसरा तुम्हे वहाँ तक नही ले जा सकता।

 कबीर दुनिआ के दोखे मूआ, चालत कुल की कानि॥
तब कुलु किसका लाजसी, जब ले धरहि मसानि॥

कबीर जी आगे कहते हैं कि जो लोग लोकाचार के बधंन मे बंध कर लोक व्यवाहर मे पडे रहते हैं ऐसे लोग अंतत: डूब जाते हैं। अर्थात मर जाते हैं। कबीर जी आगे कहते हैं कि ऐसे लोकाचार  या कुल का क्या फायदा जिस को अपनाने से हमारी आध्यात्मिक मौत हो जाती है। और हम मसान में पहुँच जाते हैं।

कबीर जी हमे समझाना चाहते हैं कि हम अपने कुल की मर्यादा अनुसार रिति रिवाजों के अनुसार ही चलते रह जाते हैं और पंडितो के कहे अनुसार कर्म- कांड कर के अपने धार्मिक कार्यो की इति श्री मान लेते हैं। जब कि इस से हमारे जीवन मे कोई बदलाव नही आता। इस तरह इस रास्ते पर चल कर हम आध्यात्मिक मौत मर जाते हैं और अंतत: मुक्ति आनंद की बजाय संसारिक बधंनो मे ही बंधे हुए अपना जीवन गँवा लेते हैं।