कबीर मेरा मुझ महि किछु नही जो किछु है सो तेरा॥
तेरा तुझ को सऊपते किआ लागै मेरा॥२०३॥
कबीर जी कहते हैं कि परमात्मा मेरा तो मुझ मे कुछ भी नही है जो भी मेरे पास हैं वह सब तो तेरा ही दिया हुआ है।यदि तू चाहे तो यह सब मैं तुझी को सौंप देने मे समर्थ हो सकता हूँ। क्योकि मैं जान चुका हूँ कि भी तभी संभव है जब तू चाहेगा।
कबीर जी हमे समझाना चाहते हैं कि द्वैत की भावना से कैसे छुटकारा मिल सकता है वह बताते हैं कि इस द्वैत की भावना से मुक्ति पानें का एक ही उपाय है कि जीव परमात्मा के प्रति पूर्ण समर्पण करदे। तभी हमारे और परमात्मा के प्रति हमारा कुछ करने की भावना का द्वंद समाप्त हो सकेगा।इस के सिवा परमात्मा से मिलने का और कोई रास्ता नही है।
कबीर तूं तूं करता तूं हुआ मुझ महि रहा न हूं॥
जब आपा पर का मिटि गईआ जत देखऊ तत तू॥२०४॥
कबीर जी आगे कहते हैं कि जब एक तू ही है ऐसा भाव आ जाता है तो "मै" का भाव समाप्त हो जाता है और जब यह "मै" का भाव नही रहता तो हर जगह परमात्मा ही परमात्मा नजर आता है।
कबीर जी समझना चाह रहे हैं कि जब हम पूर्ण समर्पण परमात्मा के समक्ष कर देते हैं तो हमारे भीतर से "मै" का भाव समाप्त हो जाता है और इस "मैं"के भाव के समाप्त होने पर ही उस परमात्मा को महसूस किया जा सकता है। तभी हम उस तक पहुँच सकते हैं। अर्थात परमात्मा तक पहुँचने का एक यही रास्ता है कि स्वयं को भी उस परमात्मा को सौंप दे। ताकि हमारे भीतर से "मैं" का भाव पूर्णत: मिट जाए।
तेरा तुझ को सऊपते किआ लागै मेरा॥२०३॥
कबीर जी कहते हैं कि परमात्मा मेरा तो मुझ मे कुछ भी नही है जो भी मेरे पास हैं वह सब तो तेरा ही दिया हुआ है।यदि तू चाहे तो यह सब मैं तुझी को सौंप देने मे समर्थ हो सकता हूँ। क्योकि मैं जान चुका हूँ कि भी तभी संभव है जब तू चाहेगा।
कबीर जी हमे समझाना चाहते हैं कि द्वैत की भावना से कैसे छुटकारा मिल सकता है वह बताते हैं कि इस द्वैत की भावना से मुक्ति पानें का एक ही उपाय है कि जीव परमात्मा के प्रति पूर्ण समर्पण करदे। तभी हमारे और परमात्मा के प्रति हमारा कुछ करने की भावना का द्वंद समाप्त हो सकेगा।इस के सिवा परमात्मा से मिलने का और कोई रास्ता नही है।
कबीर तूं तूं करता तूं हुआ मुझ महि रहा न हूं॥
जब आपा पर का मिटि गईआ जत देखऊ तत तू॥२०४॥
कबीर जी आगे कहते हैं कि जब एक तू ही है ऐसा भाव आ जाता है तो "मै" का भाव समाप्त हो जाता है और जब यह "मै" का भाव नही रहता तो हर जगह परमात्मा ही परमात्मा नजर आता है।
कबीर जी समझना चाह रहे हैं कि जब हम पूर्ण समर्पण परमात्मा के समक्ष कर देते हैं तो हमारे भीतर से "मै" का भाव समाप्त हो जाता है और इस "मैं"के भाव के समाप्त होने पर ही उस परमात्मा को महसूस किया जा सकता है। तभी हम उस तक पहुँच सकते हैं। अर्थात परमात्मा तक पहुँचने का एक यही रास्ता है कि स्वयं को भी उस परमात्मा को सौंप दे। ताकि हमारे भीतर से "मैं" का भाव पूर्णत: मिट जाए।
2 टिप्पणियाँ:
बहुत प्रेरक और ज्ञानवर्धक प्रस्तुति...
जो तू है सो मैं हूँ यह भाव जब आ जाता है तभी साधना की पूर्णता होती है, बहुत सुंदर वाणी !
एक टिप्पणी भेजें
कृपया अपनें विचार भी बताएं।