कबीर साचा सतिगुरु मै मिलिआ,सबदु जु बाहिआ ऐकु॥
लागत ही भुइ मिलि गईआ, परिआ कलेजे छेकु॥१५७॥
कबीर जी कहते हैं कि जब मुझे सच्चा सतगुरू मिला तो उसने मुझे उस एक शब्द के साथ जोड़ दिया जो निरन्तर चलता रहता है। उस के कारण मेरा अंहकार व विकार मिट्टी मे मिल गये और यह शब्द मेरे ह्र्दय मे सदा के लिये बस गया।
कबीर जी कहना चाहते हैं कि जब किसी को ऐसा गुरु मिलता है जो उस परमात्मा से एकाकार हो चुका है तो ऐसा सतगुरु हमें उस परमसत्ता के मूल से जोड़नें का रास्ता हमें दिखा देता हैं । जब हम उस शब्द के साथ जुड कर उसी के साथ आगे बहने लगते है तो हमारे भीतर के सभी विकार स्वयं ही नष्ट हो कर मिट्टी में मिल जाते हैं। सतगुरू का सब्द हमारे ह्र्दय में तीर की तरह धस जाता है अर्थात सदा के लिये ह्र्दय मे समाहित हो जाता है।
कबीर साचा सतिगुरु किआ करै, जऊ सिखा महि चूक॥
अंधे ऐक न लागई, जिउ बॊस बजाईऐ फूक॥१५८॥
कबीर जी आगे कहते हैं कि लेकिन सतगुरू क्या कर सकता है ? यदि सीखने वाला ही गलत हो।ऐसे विषय विकारों के मद में अंधे हुए जीव को सतगुरू के उपदेश का कोई असर नही होता। यह तो ठीक ऐसा ही होता है जैसे बाँसुरी में एक ओर से फूँकने पर वह हवा दूसरे छिद्रो से बाहर हो जाती है।
कबीर जी कहना चाहते हैं कि विषय विकारों मे ग्रस्त लोगों को सच्चा सतगुरू भी नही समझा सकता। ऐसे अंहकारी लोग उपदेश सुन कर याद तो रख सकते है,लेकिन उस उपदेश को, उस बताये रास्ते पर कभी चलते नही हैं।अर्थात कबीर जी कहना चाहते हैं कि बहुत से लोग सतगुरू द्वारा दी गई सीख को सीख तो लेते हैं लेकिन कभी स्वंय उस पर चलते नही है। इस तरह ऐसे लोग इस शाब्दिक ज्ञान का प्रयोग दूसरो को प्रभावित करने के लिये करते हैं।
लागत ही भुइ मिलि गईआ, परिआ कलेजे छेकु॥१५७॥
कबीर जी कहते हैं कि जब मुझे सच्चा सतगुरू मिला तो उसने मुझे उस एक शब्द के साथ जोड़ दिया जो निरन्तर चलता रहता है। उस के कारण मेरा अंहकार व विकार मिट्टी मे मिल गये और यह शब्द मेरे ह्र्दय मे सदा के लिये बस गया।
कबीर जी कहना चाहते हैं कि जब किसी को ऐसा गुरु मिलता है जो उस परमात्मा से एकाकार हो चुका है तो ऐसा सतगुरु हमें उस परमसत्ता के मूल से जोड़नें का रास्ता हमें दिखा देता हैं । जब हम उस शब्द के साथ जुड कर उसी के साथ आगे बहने लगते है तो हमारे भीतर के सभी विकार स्वयं ही नष्ट हो कर मिट्टी में मिल जाते हैं। सतगुरू का सब्द हमारे ह्र्दय में तीर की तरह धस जाता है अर्थात सदा के लिये ह्र्दय मे समाहित हो जाता है।
कबीर साचा सतिगुरु किआ करै, जऊ सिखा महि चूक॥
अंधे ऐक न लागई, जिउ बॊस बजाईऐ फूक॥१५८॥
कबीर जी आगे कहते हैं कि लेकिन सतगुरू क्या कर सकता है ? यदि सीखने वाला ही गलत हो।ऐसे विषय विकारों के मद में अंधे हुए जीव को सतगुरू के उपदेश का कोई असर नही होता। यह तो ठीक ऐसा ही होता है जैसे बाँसुरी में एक ओर से फूँकने पर वह हवा दूसरे छिद्रो से बाहर हो जाती है।
कबीर जी कहना चाहते हैं कि विषय विकारों मे ग्रस्त लोगों को सच्चा सतगुरू भी नही समझा सकता। ऐसे अंहकारी लोग उपदेश सुन कर याद तो रख सकते है,लेकिन उस उपदेश को, उस बताये रास्ते पर कभी चलते नही हैं।अर्थात कबीर जी कहना चाहते हैं कि बहुत से लोग सतगुरू द्वारा दी गई सीख को सीख तो लेते हैं लेकिन कभी स्वंय उस पर चलते नही है। इस तरह ऐसे लोग इस शाब्दिक ज्ञान का प्रयोग दूसरो को प्रभावित करने के लिये करते हैं।