शुक्रवार, 30 नवंबर 2012

कबीर के श्लोक - ११९

कबीर बामनु गुरु है भगत का,भगतन का गुरु नाहि॥
अरझि उरझि कै पचि मूआ, चारऊ बेदहु माहि॥२३७॥

कबीर जी कहते हैं कि ब्राह्मण उन लोगो का गुरू है जो उसके कहे अनुसार कर्म-कांडों को करने में लगे रहते हैं अर्थात वह दुनियादारों का ही गुरु कहलाया जा सकता है। ऐसा ब्राह्मण भक्ति करने वालों का वह गुरु नही बन सकता।क्योकि ऐसा ब्राह्मण तो स्वयं ही यज्ञ आदि कर्म कांडो में और बेदों को रटने में ही जीवन -भर उलझा रहता है।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि ऐसा ब्राह्मण जो स्वयं ही कर्म-कांडो मे उलझा रहता है और परमात्मा की भक्ति नही करता। यदि उसने अपने भीतर बसे परमात्मा को ही नही जाना तो वह दूसरों को उस से कैसे जोड़ सकता है।मात्र वेदों के उपदेशों को रटने से कोई गुरु नही बन सकता। यही बात कबीर जी हमे समझाना चाहते हैं।

हरि है खांडु, रेतु महि बिखरी,हाथी चुनी न जाइ॥
कहि कबीर गुरि भली बुझाई,कीटी होइ कै खाइ॥२३८॥

कबीर जी कहते हैं कि ऐसा मानो की परमात्मा का नाम खांड अर्थात चीनी है और वह रेत में बिखरी हुई है।इस चीनी को हाथी कभी नही चुन सकता।लेकिन यदि हमारा कोई सतगुरु है तो वह हमे रास्ता सुझा सकता है कि यदि तुझे ये चीनी चुन के खानी है तो तुझे हाथी की बजाय चीटी होना होगा, तभी तू इसे चुन सकता है।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि कर्म-कांडो और मात्र वेदों को रटने से किसी का विवेक नही जाग सकता। ऐसा ब्राह्मण मात्र वेदों का सहारा लेकर ही अपनी बात तुम्हें कहता है,इस लिये समानुसार आने वाली समस्याओ का समाधान वह नही कर सकता।क्योकि सतगुरु जानता है कि हाथी जैसे बड़ा होने से अर्थात अपने को बड़ा मान कर,वह हरि रूप चीनी नही चुन सकता। लेकिन यदि वह चींटी अर्थात नम्रता अपने भीतर पैदा कर ले तो उस परमात्मा को पा सकता है।कबीर जी कहना चाहते हैं कि  अंहकार रहित होने पर ही ,परमात्मा को पाया जा सकता है।

मंगलवार, 20 नवंबर 2012

कबीर के श्लोक - ११८


आठ जाम चऊसठि घरी,तुअ निरखत रहै जीउ॥
नीचे लोइन किउ करऊ,सभ घट देखऊ पीउ॥२३५॥

कबीर जी कहते हैं कि जो जीव आठ पहर चौंसठ घड़ी सिर्फ तुझे ही देखते रहते हैं,उनकी नजरे नीची हो जाती हैं अर्थात उनमे नम्रता आ जाती है।जिस कारण वे सभी में अपने प्रिय को ही देखते रहते हैं।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि जो जीव निरन्तर उस परमात्मा के ध्यान में ही लगा रहता है, उसे हर जगह परमात्मा ही नजर आता है और उसका अंहाकार भी तिरोहित हो जाता है।अंहकार के मिटने के कारण जीव सभी मे अपने प्रिय अर्थात उस परमात्मा को ही निहारते हैं।

सुनु सखी पीअ महि जीउ बसै,जीअ महि बसै कि पीउ॥

जीउ पीउ बूझऊ नही,घट महि जीउ कि पीउ॥२३६॥

कबीर जी आगे कहते हैं कि हे सहेली मैं प्रभु पति मे बस रही हूँ या प्रभु मुझ मे बस गया है। ये बात समझ मे ही नही आती कि कौन किस में बसा है, परमात्मा जीव मे बसा हुआ है या जीव परमात्मा मे बसा है।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि सृष्टी की रचना परमात्मा ने ऐसे कि हुई है कि वह भी उसी में समाया हुआ हैं ।इस लिये उसे जानने के बाद ये बात कभी समझ ही नही आती कि परमात्मा जीव में समाया हुआ है या जीव परमात्मा मे समाया हुआ है।यही बात कबीर जी कहना चाहते हैं।

शनिवार, 10 नवंबर 2012

कबीर के श्लोक - ११७


आठ जाम चऊसठि घरी,तुअ निरखत रहै जीउ॥
नीचे लोइन किउ करऊ,सभ घट देखऊ पीउ॥२३५॥

कबीर जी कहते हैं कि जो जीव आठ पहर चौंसठ घड़ी सिर्फ तुझे ही देखते रहते हैं,उनकी नजरे नीची हो जाती हैं अर्थात उनमे नम्रता आ जाती है।जिस कारण वे सभी में अपने प्रिय को ही देखते रहते हैं।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि जो जीव निरन्तर उस परमात्मा के ध्यान में ही लगा रहता है, उसे हर जगह परमात्मा ही नजर आता है और उसका अंहाकार भी तिरोहित हो जाता है।अंहकार के मिटने के कारण जीव सभी मे अपने प्रिय अर्थात उस परमात्मा को ही निहारते हैं।

सुनु सखी पीअ महि जीउ बसै,जीअ महि बसै कि पीउ॥

जीउ पीउ बूझऊ नही,घट महि जीउ कि पीउ॥२३६॥

कबीर जी आगे कहते हैं कि हे सहेली मैं प्रभु पति मे बस रही हूँ या प्रभु मुझ मे बस गया है। ये बात समझ मे ही नही आती कि कौन किस में बसा है, परमात्मा जीव मे बसा हुआ है या जीव परमात्मा मे बसा है।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि सृष्टी की रचना परमात्मा ने ऐसे कि हुई है कि वह भी उसी में समाया हुआ हैं ।इस लिये उसे जानने के बाद ये बात कभी समझ ही नही आती कि परमात्मा जीव में समाया हुआ है या जीव परमात्मा मे समाया हुआ है।यही बात कबीर जी कहना चाहते हैं।