गुरुवार, 20 दिसंबर 2012

कबीर के श्लोक - १२१

ढूंढ्त डोलहि अंध गति , अरु चीनत नाही संत॥
कहि नामा किऊ पाईऐ , खिनु भगतहु भगवंतु॥२४१॥


कबीर जी कहते हैं कि नामदेव जी कहते हैं -जीव खोज खोज कर परेशान हो जाता है,लेकिन संत पुरुष पहचान में नही आता।भगवान की भक्ति करने वाला जीव फिर कैसे पहचाने भगवान के भक्त को ।

कबीर जी नामदेव जी के विचारों को व्यक्त करते हुए कहते हैं कि भक्ति करने वालों की संगति के बिना परमात्मा नही मिल सकता।जो जीव प्रभु की भक्ति तो करते हैं लेकिन भगत जनों को पहचान नही पाते,वे भटकते रह जाते हैं।अर्थात वे कहना चाहते हैं कि परमात्मा का भक्त परमात्मा के भक्त को पहचान लेता है।

हरि से हीरा छाडि कै , करहि आन की आस॥
ते नर दोजक जाहिगे , सति भाखै रविदास॥२४२॥


कबीर जी रविदास जी के विचारों को व्यक्त करते हुए कहते हैं कि परमात्मा को छोड़ कर किसी दूसरे से सुख पाने की आशा करनी ठीक ऐसा ही जैसे नरक में सुख पाने की आशा करना।ऐसी आशा करने वाले सदा दुखी ही रहते हैं।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि किसी भी दुनियावी पदार्थ से सुख प्राप्त नही हो सकता।यदि किसी को सुख पानें की इच्छा है तो उसे उस परमात्मा की शरण मे ही जाना पड़ेगा।यदि जीव अन्य जगह सुख पाने की चाह में जायेगा तो अंतत: उसे दुख ही प्राप्त होगा।कबीर जी अपने इसी अनुभव को रविदास जी के शब्दो की मदद से हमे समझाना चाहते हैं।

सोमवार, 10 दिसंबर 2012

कबीर के श्लोक - १२०

कबीर जऊ तुहि साध पिरंम की , सीसु काटि करि गोइ॥
खेलत खेलत हाल करि, जोकिछु होइ त होइ॥२३९॥

कबीर जी कहते हैं कि यदि तुझे परमात्मा पाने की अभिलाषा है तो अपना सिर काट कर गेंद बना ले और खेलता खेलता इतना मस्त हो जा, कि कुछ होता हो होने दे।उसकी जरा भी परवाह मत कर।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि परमात्मा को तभी पाया जा सकता है जब सिर काट कर गेंद बना ली जाये अर्थात अपना अंहकार छोड़ दिया जाये।फिर अंहकार रहित हो कर अपने सभी काम करे अर्थात दुनियादारी को निभाये और दुनियादारी निभाते समय इस बात की जरा भी परवाह ना करें की कोई उसके साथ कैसा सलूक कर रहा है।तभी उस परमात्मा को पाया जा सकता है।

कबीर जऊ तुहि साध पिरंम की, पाके सेती खेलु॥
काची सरसऊं पेलि कै, ना खलि भई न तेलु॥२४०॥

कबीर जी आगे कहते हैं कि यदि तुझे परमात्मा पाने की चाह है तो उसके साथ खेल जो पक चुका है।क्योकि कच्ची सरसों को कोल्हू में पेलने से ना तो तेल निकलता है और ना ही उसकी खल बनती है।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि यदि परमात्मा पानें की अभिलाषा है तो ऐसे सतगुरु की शरण मे जाओ जो उसे पा चुका हो। क्योकि जिसने स्वयं ही ना पाया हो वह तुम्हारा गुरु बन कर तुम्हें कोई लाभ नही दे सकता।कबीर जी ये बात इस लिये कह रहे हैं कि जीव का स्वभाव होता है कि वह मशहूर गुरु के प्रति और दिखावा करने वाले के प्रति बहुत जल्दी आकर्षित हो जाता है या कर्म कांडी ब्राह्मण को ही गुरु मान लेता है।ऐसा करने कि बजाय ऐसे गुरु को चुनना चाहिए जो उस परमात्मा को पा चुका हो।भले ही वो देखने मे वह आम आदमी ही क्यो ना लगता हो।

शुक्रवार, 30 नवंबर 2012

कबीर के श्लोक - ११९

कबीर बामनु गुरु है भगत का,भगतन का गुरु नाहि॥
अरझि उरझि कै पचि मूआ, चारऊ बेदहु माहि॥२३७॥

कबीर जी कहते हैं कि ब्राह्मण उन लोगो का गुरू है जो उसके कहे अनुसार कर्म-कांडों को करने में लगे रहते हैं अर्थात वह दुनियादारों का ही गुरु कहलाया जा सकता है। ऐसा ब्राह्मण भक्ति करने वालों का वह गुरु नही बन सकता।क्योकि ऐसा ब्राह्मण तो स्वयं ही यज्ञ आदि कर्म कांडो में और बेदों को रटने में ही जीवन -भर उलझा रहता है।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि ऐसा ब्राह्मण जो स्वयं ही कर्म-कांडो मे उलझा रहता है और परमात्मा की भक्ति नही करता। यदि उसने अपने भीतर बसे परमात्मा को ही नही जाना तो वह दूसरों को उस से कैसे जोड़ सकता है।मात्र वेदों के उपदेशों को रटने से कोई गुरु नही बन सकता। यही बात कबीर जी हमे समझाना चाहते हैं।

हरि है खांडु, रेतु महि बिखरी,हाथी चुनी न जाइ॥
कहि कबीर गुरि भली बुझाई,कीटी होइ कै खाइ॥२३८॥

कबीर जी कहते हैं कि ऐसा मानो की परमात्मा का नाम खांड अर्थात चीनी है और वह रेत में बिखरी हुई है।इस चीनी को हाथी कभी नही चुन सकता।लेकिन यदि हमारा कोई सतगुरु है तो वह हमे रास्ता सुझा सकता है कि यदि तुझे ये चीनी चुन के खानी है तो तुझे हाथी की बजाय चीटी होना होगा, तभी तू इसे चुन सकता है।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि कर्म-कांडो और मात्र वेदों को रटने से किसी का विवेक नही जाग सकता। ऐसा ब्राह्मण मात्र वेदों का सहारा लेकर ही अपनी बात तुम्हें कहता है,इस लिये समानुसार आने वाली समस्याओ का समाधान वह नही कर सकता।क्योकि सतगुरु जानता है कि हाथी जैसे बड़ा होने से अर्थात अपने को बड़ा मान कर,वह हरि रूप चीनी नही चुन सकता। लेकिन यदि वह चींटी अर्थात नम्रता अपने भीतर पैदा कर ले तो उस परमात्मा को पा सकता है।कबीर जी कहना चाहते हैं कि  अंहकार रहित होने पर ही ,परमात्मा को पाया जा सकता है।

मंगलवार, 20 नवंबर 2012

कबीर के श्लोक - ११८


आठ जाम चऊसठि घरी,तुअ निरखत रहै जीउ॥
नीचे लोइन किउ करऊ,सभ घट देखऊ पीउ॥२३५॥

कबीर जी कहते हैं कि जो जीव आठ पहर चौंसठ घड़ी सिर्फ तुझे ही देखते रहते हैं,उनकी नजरे नीची हो जाती हैं अर्थात उनमे नम्रता आ जाती है।जिस कारण वे सभी में अपने प्रिय को ही देखते रहते हैं।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि जो जीव निरन्तर उस परमात्मा के ध्यान में ही लगा रहता है, उसे हर जगह परमात्मा ही नजर आता है और उसका अंहाकार भी तिरोहित हो जाता है।अंहकार के मिटने के कारण जीव सभी मे अपने प्रिय अर्थात उस परमात्मा को ही निहारते हैं।

सुनु सखी पीअ महि जीउ बसै,जीअ महि बसै कि पीउ॥

जीउ पीउ बूझऊ नही,घट महि जीउ कि पीउ॥२३६॥

कबीर जी आगे कहते हैं कि हे सहेली मैं प्रभु पति मे बस रही हूँ या प्रभु मुझ मे बस गया है। ये बात समझ मे ही नही आती कि कौन किस में बसा है, परमात्मा जीव मे बसा हुआ है या जीव परमात्मा मे बसा है।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि सृष्टी की रचना परमात्मा ने ऐसे कि हुई है कि वह भी उसी में समाया हुआ हैं ।इस लिये उसे जानने के बाद ये बात कभी समझ ही नही आती कि परमात्मा जीव में समाया हुआ है या जीव परमात्मा मे समाया हुआ है।यही बात कबीर जी कहना चाहते हैं।

शनिवार, 10 नवंबर 2012

कबीर के श्लोक - ११७


आठ जाम चऊसठि घरी,तुअ निरखत रहै जीउ॥
नीचे लोइन किउ करऊ,सभ घट देखऊ पीउ॥२३५॥

कबीर जी कहते हैं कि जो जीव आठ पहर चौंसठ घड़ी सिर्फ तुझे ही देखते रहते हैं,उनकी नजरे नीची हो जाती हैं अर्थात उनमे नम्रता आ जाती है।जिस कारण वे सभी में अपने प्रिय को ही देखते रहते हैं।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि जो जीव निरन्तर उस परमात्मा के ध्यान में ही लगा रहता है, उसे हर जगह परमात्मा ही नजर आता है और उसका अंहाकार भी तिरोहित हो जाता है।अंहकार के मिटने के कारण जीव सभी मे अपने प्रिय अर्थात उस परमात्मा को ही निहारते हैं।

सुनु सखी पीअ महि जीउ बसै,जीअ महि बसै कि पीउ॥

जीउ पीउ बूझऊ नही,घट महि जीउ कि पीउ॥२३६॥

कबीर जी आगे कहते हैं कि हे सहेली मैं प्रभु पति मे बस रही हूँ या प्रभु मुझ मे बस गया है। ये बात समझ मे ही नही आती कि कौन किस में बसा है, परमात्मा जीव मे बसा हुआ है या जीव परमात्मा मे बसा है।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि सृष्टी की रचना परमात्मा ने ऐसे कि हुई है कि वह भी उसी में समाया हुआ हैं ।इस लिये उसे जानने के बाद ये बात कभी समझ ही नही आती कि परमात्मा जीव में समाया हुआ है या जीव परमात्मा मे समाया हुआ है।यही बात कबीर जी कहना चाहते हैं।

मंगलवार, 30 अक्तूबर 2012

कबीर के श्लोक - ११६


कबीर साधू संग परापती,लिखिआ होइ लिलाट॥
मुकति पदारथु पाईऐ,ठाक न अवघट घाट॥२३१॥

कबीर जी कहते हैं कि साधू का संग उन्हें प्राप्त होता है जिनके भाग्य में लिखा होता है अर्थात बिना परमात्मा की इच्छा के कुछ नही मिलता।साधू की संगति के कारण ही जीव संसारिक झंझटों से छूटता है और उसके रास्ते में कोई रूकावट नही आती और वह मुश्किल पहाड़ी रास्तो को आसानी से पार कर लेता है।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि  साधू के  संग से ही प्राप्ती होती है।क्योकि जो साधक उस परमानंद को प्राप्त कर चुका है वही जीव को रास्ता दिखा सकता है।लेकिन साधू भी तभी मिलता है जब परमात्मा की कृपा होती है।कबीर जी कहना चाहते हैं कि जब तक हम अपनी मर्जी चलाते रहते हैं तब तक कुछ नही होता ।विषय -विकारों से मुक्ति भी तभी मिलती है जब साधू का साथ मिल जाता है,फिर कठिन  रास्ते भी आसान हो जाते हैं।

कबीर एक घड़ी आधी घरी,आधी हूँ ते आध॥

भगतन सेती गोसटे,जो कीने सो लाभ॥२३२॥

कबीर जी कहते हैं कि एक घड़ी -भर के लिये या आधी से भी आधी घड़ी के लिये भी परमात्मा के भक्त के साथ परमात्मा के संबध में कोई बात-चीत की जाती है तो उससे भी बहुत लाभ होता है।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि जब जीव उन साधको से परमात्मा के संबध मे वार्तालाप करता है जो उस परमात्मा को जान चुके हैं,तो कम से कम समय मे भी अधिक लाभ पाया जा सकता है।क्योकि भक्त जो भी कहता है वह उस परमात्मा को जानने के अनुभव के आधार पर ही कहता है।जिस के द्वारा जीव का सही मार्गदर्शन होता है।

शनिवार, 20 अक्तूबर 2012

कबीर के श्लोक - ११५


कबीर ऐसा बीजु बोइ,बारह मास फलंत॥
शीतल छाइआ गहिर फल,पंखी केल करंत॥२२९॥

कबीर जी कहते हैं  कि यदि बीज बौना है तो ऐसा बीज बोवो जिस से उगने वाला वृक्ष जो पूरे बारह महीने फल देता रहे और जिससे ठंडी छाँव व वैराग्य पैदा करना वाला फल प्राप्त हो। जिसपर पंछी आनंद पूर्वक रह सके।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि परमात्मा का नाम ही एक ऐसा बीज है जो सदा सुख व आनंद प्रदान करने वाला है।जिस को अपने ह्र्दय मे बसा पर शीतलता व अडोलता को पाया जा सकता है। जिसके ह्र्दय में यह नाम रूपी बीज बस जाता है फिर वह जो भी काम करता है उसे आनंद ही प्राप्त होता है,क्योकि परमात्मा के साथ एकाकार होने के बाद जीव जो भी कर्म करता है उसमे परमात्मा की मर्जी भी शामिल होती है।

कबीर दाता तरवरु दया फलु,उपकारी जीवंत॥

पंखी चले दिसावरी,बिरखा सुफल फलंत॥२३०॥

कबीर जी कहते हैं कि परमात्मा का भक्त एक ऐसा वृक्ष है जिस में सदा दया रूपी फल ही लगता है।ऐसे भक्त सदा दूसरों की भलाई में ही जीवन-भर लगे रहते है।परमात्मा के भक्तों का लक्ष्य ही उपकार करना है।लेकिन संसारी जीव सदा संसारिक धँधों मे ही लगा रहता है और परमात्मा का भक्त सदा यही सीख देता रहता है कि उस घट घट वासी परमात्मा से प्रेम करो जिस से ह्र्दय में दया का निवास हो सके।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि जो साधक परमात्मा के साथ एकाकार हो चुके हैं वे दूसरों के प्रति सदा दया ही दिखाते है और सदा ऐसी कोशिश करते रहते हैं कि सभी उस घट घट वासी परमात्मा की शरण मे जायें। जिस से उनके भीतर दया और प्रेम पैदा हो सके।

बुधवार, 10 अक्तूबर 2012

कबीर के श्लोक - ११४

कबीर आखी केरे माटुके, पलु पलु गई बिहाइ॥
मनु जंजाल न छोडई, जम दीआ दमामा आइ॥२२७॥

कबीर जी कहते हैं कि जीव पलक झपकने जितनी देर भी उस परमात्मा को याद नही करता और इसी तरह उसका जीवन बीत जाता है और वह संसारिक मोह माया में ही रमा रहता है। उसे होश तब आता है जब यमराज आ कर उसे मौत की खबर देता है।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि हम संसारिक कामों मे इतना रम जाते है कि हमें उस परमात्मा का कभी ध्यान ही नही आता।हम इन्ही जंजालो मे उलझे रहते हैं और हमारि मृत्यू का समय आ जाता है।कबीर जी यहाँ हमे होश में जीने का संकेत देना चाहते  हैं ताकि जीव जीवन का सदुपयोग कर सके।

कबीर तरवर रूपी रामु है , फल रूपी वैराग॥ 
छाइआ रूपी साधु है, जिन तजिआ बा्दु बिबादु ॥२२८॥

कबीर जी आगे कहते हैं कि हम संसारिक मोह माया में ही ना रमे रहे और यह जान ले कि राम का नाम एक वृक्ष के समान गुणकारी है जिस पर वैराग रूपी फल लगता है और इस वृक्ष की छाया साधु रूपी है जिस के कारण हम संसारिक वाद-विवादों की उलझनों से निजात पा जाते हैं।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि संसारिक मोह माया को तोड़ने के लिये परमात्मा का आसरा लेना चाहिए। जिसका नाम का ध्यान करने से हमारे भीतर वैराग का जन्म होता है और जीव का मन साधु के स्वाभाव की तरह हो जाता है जो कभी भी व्यर्थ की बातों मे नही उलझता।अर्थात कबीर जी यहाँ हमारी मोह निद्रा को तोड़ने का रास्ता सुझा रहे हैं।ताकि हम सही रास्ते पर चल सके।

रविवार, 30 सितंबर 2012

कबीर के श्लोक - ११३

          

कबीर राम रतन मुखु कोथरी,पारख आगै खेलि॥
कोई आइ मिलेगो गाहकी,लेगो महगो मोल॥२२५॥

कबीर जी कहते हैं कि राम का नाम एक बहुत कीमती रत्न है जिसे मुँह रूपी गठरी में बहुत संभाल कर रखना चाहिए और इसे सिर्फ उसी के सामने खोलना चाहिए जो इस राम नाम रत्न की पहचान रखता है। कबीर जी आगे कहते हैं कि जब इस राम रत्न को पहचानने वाला कोई ग्राहक मिल जाता है तो वह इस रत्न के लिये कोई भी कीमत देने को तैयार हो जाएगा।


कबीर जी कहना चाहते हैं कि परमात्मा का नाम दुनिया में सब से कीमती है इसे कभी भूलना नही चाहिए।जब भी इस नाम की महिमा का बखान करना हो तो ऐसे लोगों के सामने करो जो राम नाम के प्रति श्रदा का भाव रखते हो ।ऐसे श्रदावान साधकों मे से ही कोई ऐसा साधक जरूर मिल सकता है जो परमात्मा की भक्ति की खातिर सब कुछ न्यौछावर करने को तैयार हो जाए।अर्थात अपना मन गुरु को समर्पित करके नाम रत्न को ग्रहण कर ले।


कबीर राम नामु जानिउ नही, पालिउ कटकु कुटंबु॥ 
धंधे ही महि मरि गईउ,बाहरि भई न बंब॥२२६॥

कबीर जी आगे कहते हैं कि जो लोग उस राम के नाम की महिमा को नही जानते और अपने कुटुंब के लिये संसारिक सुख साधनों को इकट्ठा करने मे ही लगे रहते हैं।ऐसे लोग परमात्मा को भूल कर इन्हीं कामों मे लगे लगे मर जाते हैं अर्थात उनकी आध्यात्मिक मौत हो जाती है और वह कभी परमात्मा का नाम अपने मुँह से उच्चारित ही नही करते।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि अधिकतर लोग परमात्मा की भक्ति कि जगह सदा अपने परिवार के लिये सुखसाधन जुटाने में ही लगे रहते हैं और संसारिक मोह माया में इस कदर डूब जाते हैं कि उन्हे यह होश ही नही रहता कि जिसकी कृपा द्वारा यह सब संसारिक सुखो का आनंद ले रहा है उसे कभी याद करे। जबकि ये संसारिक सुख तो अस्थाई हैं। वह उसका नाम कभी लेता ही नही जो स्थाई सुख देने वाला है।इसी संसारिक मोह माया में उलझे रहने के कारण जीव की आध्यात्मिक मौत हो जाती है।

गुरुवार, 20 सितंबर 2012

कबीर के श्लोक - ११२

कबीर केसो केसो कूकीऐ, न सोईऐ असार॥
 राति दिवस के कूकने,कबहू को सुनै पुकार॥२२३॥

कबीर जी कहते हैं कि उस परमात्मा केशव को सदा पुकारते रहना चाहिए और कभी लापरवाही नही करनी चाहिए।यदि जीव इस तरह रात -दिन  उस परमात्मा को पुकारता रहेगा तो एक न एक दिन परमात्मा हमारी पुकार जरूर सुन ही लेगा।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि यदि संसारिक मोह माया से बचना है तो उस परमात्मा का ध्यान निरन्तर करते रहना चाहिए।निरन्तर परमात्मा का ध्यान करने से जीव उस परमात्मा के साथ एकाकार होने की ओर बढ़ने लगता है और एक दिन ऐसा भी आता है जब जीव परमात्मा के साथ एकाकार हो जाता है।


कबीर काईआ कजली बनु भईआ,मनु कुचरु मयमंतु॥
अंकसु ग्यानु रतनु है,खेवटु बिरला संतु॥२२४॥

कबीर जी आगे कहते हैं कि जब जीव परमात्मा के नाम से दूर होता है तो वह घने जगंल की तरह हो जाता है,जिस में मन रूपी हाथी मस्त होकर विचरण करने लगता है।लेकिन यदि किसी के पास ज्ञान रूपी अकुंश गुरु कृपा से लग जाये, खेवट के समान तो कोई विरला संत इसे अपने नियंत्रण कर सकता है।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि हमारा मन एक मस्त हाथी के समान है जो विषय-विकारों के कारण मस्त हाथी की तरह हमारे नियंत्रण से बाहर हो जाता है।लेकिन यदि ज्ञान रूपी  अकुंश अर्थात उस परमात्मा का ध्यान हमे गुरु कृपा से प्राप्त हो जाये तो अपने हाथी रूपी इस मन को अपनी मर्जी से चलाया जा सकता है।क्योकि जीव तो सदा मन के पीछे भागता रहता है और विषय वासनाओं के जाल मे फँसाता रहता है।इसी से बचने के लिये कबीर जी हमें उपाय बता रहे हैं।

सोमवार, 10 सितंबर 2012

कबीर के श्लोक - ११३

कबीर केसो केसो कूकीऐ, न सोईऐ असार॥
 राति दिवस के कूकने,कबहू को सुनै पुकार॥२२३॥

कबीर जी कहते हैं कि उस परमात्मा केशव को सदा पुकारते रहना चाहिए और कभी लापरवाही नही करनी चाहिए।यदि जीव इस तरह रात -दिन  उस परमात्मा को पुकारता रहेगा तो एक न एक दिन परमात्मा हमारी पुकार जरूर सुन ही लेगा।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि यदि संसारिक मोह माया से बचना है तो उस परमात्मा का ध्यान निरन्तर करते रहना चाहिए।निरन्तर परमात्मा का ध्यान करने से जीव उस परमात्मा के साथ एकाकार होने की ओर बढ़ने लगता है और एक दिन ऐसा भी आता है जब जीव परमात्मा के साथ एकाकार हो जाता है।


कबीर काईआ कजली बनु भईआ,मनु कुचरु मयमंतु॥
अंकसु ग्यानु रतनु है,खेवटु बिरला संतु॥२२४॥

कबीर जी आगे कहते हैं कि जब जीव परमात्मा के नाम से दूर होता है तो वह घने जगंल की तरह हो जाता है,जिस में मन रूपी हाथी मस्त होकर विचरण करने लगता है।लेकिन यदि किसी के पास ज्ञान रूपी अकुंश गुरु कृपा से लग जाये, खेवट के समान तो कोई विरला संत इसे अपने नियंत्रण कर सकता है।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि हमारा मन एक मस्त हाथी के समान है जो विषय-विकारों के कारण मस्त हाथी की तरह हमारे नियंत्रण से बाहर हो जाता है।लेकिन यदि ज्ञान रूपी  अकुंश अर्थात उस परमात्मा का ध्यान हमे गुरु कृपा से प्राप्त हो जाये तो अपने हाथी रूपी इस मन को अपनी मर्जी से चलाया जा सकता है।क्योकि जीव तो सदा मन के पीछे भागता रहता है और विषय वासनाओं के जाल मे फँसाता रहता है।इसी से बचने के लिये कबीर जी हमें उपाय बता रहे हैं।

गुरुवार, 30 अगस्त 2012

कबीर के श्लोक - १११

कबीर रामु न चेतिउ, फिरिआ लालच माहि॥
पाप करंता मरि गईआ,अऊध पुनी खिन माहि॥२२१॥

कबीर जी कहते हैं कि जब हम उस परमात्मा से दूर होते हैं उस समय हमारे मन में लालच पैदा हो जाता हैं और हम पापों को करने लगते हैं,इसी में हमारी सारी ऊमर व्यतीत हो जाती है।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि जब जीव उस परमात्मा का ध्यान नही करता,उस समय लालच और पाप मन मे जन्म लेते हैं।इसका कारण मात्र इतना है कि परमात्मा को भूलने के कारण जीव जब भी कोई कर्म करता है तो वह मोह-माया मे फँस जाता है और यही मोह -माया लालच और पाप की ओर प्रेरित करता हैं।क्योकि जीव को, जगत नाशवान है इसका स्मरण नही रहता।वह भूल जाता है कि एक दिन सभी कुछ छोड़ कर जाना पड़ेगा।इसी कारण उस के मन में यह लालच और मोह-माया के कारण भ्रम पैदा हो जाता है और जीव द्वारा समस्त पाप इसी लालच के कारण होते हैं। ऐसे मे सारी ऊमर वह इसी में फँसा रहता है और उसकी आध्यात्मिक मौत पहले ही हो जाती है।

कबीर काइआ काची कारवी,केवल काची धातु॥
साबतु रखहि त राम भजु, नाहि त बिनठी बात॥२२२॥

कबीर जी कहते हैं कि हमारा शरीर कच्चे लोटे के समान है और इसे बनाने मे जिस धातू का इस्तमाल किया गया है वह भी कच्ची मिट्टी के समान है।यदि जीव चाहता है कि इस कच्ची मिट्टी के बने शरीर पर कोई असर ना हो तो परमात्मा का ध्यान करो। नही तो इस धातू पर उसमे डाली गयी वस्तु का असर जरूर होगा। जिस से बात बिगड़ सकती है।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि जिस प्रकार कच्ची मिट्टी के बरतन में कुछ डाला जाता है तो उसका असर उस बरतन पर होता हैं।ठीक उसी तरह यह हमारा शरीर जो कि कच्ची मिट्टी के समान ही बना हुआ है।इसमे रहते हुए जब हम किसी विषय विकार से ग्रस्त होते हैं तो उसका असर हमारे भीतर बना रहता है।इसलिये जीव को सदैव इनसे बचना चाहिए और इससे बचने का एक ही उपाय है कि जीव उस परमात्मा का ध्यान करे ,उसका भजन करे।यदि ऐसा नही किया गया तो इस कच्ची मिट्टी के बने शरीर में विषय-विकारों का प्रभाव बढ़ता ही जायेगा।जिस से हमारा यह जीवन व्यर्थ हो जायेगा और हम इन्ही विकारों में ही उलझे रहेगें।

सोमवार, 20 अगस्त 2012

कबीर के श्लोक - ११०

कबीर जो मै चितवऊ ना करै,किआ मेरे चितवे होइ॥
अपना चितविआ हरि करै, जो मेरे चिति न होइ॥२१९॥

कबीर जी कह्ते हैं कि जिस बारे मे मैं सोचता रहता हूँ वह बात तो परमात्मा कभी पूरी करता ही नही।फिर मेरे सोचने से क्या होगा।क्योकि परमात्मा तो वही करता है जो वह करना चाहता है और जो वह परमात्मा करता है वह मेरे सोचनें मे कभी आता ही नही।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि जीव हमेशा ऐसी बाते सोचता जो उसे माया मोह मे और अधिक फँसाती जाती है।इस लिये हमारा चिंतन हमें हमेशा पतन के रास्ते पर ही ले जाता है।इस लिये मेरे सोचने से कोई लाभ होने वाला नही है। जबकि परमात्मा जो भी हमारे बारे मे करता है या सोचता है वह हमेशा हमारे हित मे ही होता है।भले ही वह कुछ भी कर या करवा रहा हो हमसे। इसी लिये हम मोह माया में फँसे होने के कारण कभी वह नही सोच सकते जो परमत्मा हमारे बारे मे सोचता या करता है।


महला ३॥ चिंता भी आपि कराइसी,अचिंतु भि आपे देइ॥
नानक सो सालाहीऐ,जि सभना सार करेइ॥२२०॥

इस श्लोक में गुरु जी कबीर जी की बात को आगे बढाते हुए कहते हैं कि वास्तव मे तो परमात्मा ही जीवों के मन में दुनिया की फिकर-चिंता को पैदा करता है और वह अवस्था भी परमात्मा ही प्रदान करता है जब जीव संभल जाता है।इसलिये हमे हमेशा उस परमात्मा का ही  गुणगान करना चाहिए,हमेशा उसी का ध्यान करना चाहिए। जो हमेशा सब की चिंता करता रहता है और सदा वही करता है जो हमारे हित मे होता है।

गुरु जी कहना चाहते हैं कि सब कुछ परमात्मा ही कर रहा है वही हमे भटकाता है और वही हमे रास्ता दिखाता है।इस लिये सदा उसी का ध्यान करना चाहिए।जब हम उसका ध्यान करेगे तो हमारी निकटता उस परमात्मा के साथ हो जायेगी।जिस से हम भी वही चिंतन करने लगेगें जो परमात्मा हमारे लिये करता है। फिर हम भी हर प्रकार की चिंता से मुक्त होकर चिंतारहित जीवन जी सकेगें।

शुक्रवार, 10 अगस्त 2012

कबीर के श्लोक - १०९


कबीर लागी प्रीति सुजान सिउ,बरजै लोगु अजानु॥
ता सिउ टूटी किऊ बनै,जा को जीअ परान॥२१७॥

कबीर जी कह्ते हैं कि जब साधक की प्रीत उस परमात्मा के साथ लग जाती है जो घट-घट की जानता है ,तब संगे सबधी जो उस परमात्मा की महिमा से अंजान है तुझे अपने साथ मिलाने के लिये तरह तरह से उस परमात्मा की प्रीत से हटाने की कोशिश करेगें।लेकिन  उस परमात्मा से जिसने हमें यह जीवन दिया है ,उस से बिछड़ कर, चाहे किसी भी कारण से यह प्रीत टूटी हो ।हम सुखी नही रह सकते।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि जब साधक उस परमात्मा से जुड़ता है तो हमारे आस-पास के लोग जो उस परमात्मा से जुड़े हुए नही होते, वे साधक को कभी उलाहना देते हैं और कभी उस के तारीफ के पुल बाधँते हैं जिस से साधक भ्रमित हो, दी गई उलाहना या तारीफ के कारण समाजिक मर्यादाओं के कारण विचलित हो जाता है।परन्तु यदि साधक यह मान चुका है कि उस परमात्मा ने ही हमे जीवन दिया है तो वह उस परमात्मा से अपनी प्रीत कभी नही तोड़गा। इसी बात की ओर कबीर जी संकेत कर रहे हैं।

कबीर कोठे मंडप हेतु करि, काहे मरहु सवारि॥

कारजु साढे तीनि हथ,घनी त पऊने चारि॥२१८॥

कबीर जी आगे कहते हैं कि घर-बार को सजाने-सँवारनें के शॊक के कारण जीव तू क्यों अध्यात्मिक मौत मर जाता है।जबकि जीवन मे हम मात्र रोज साढे तीन या पौनें चार गज जमीन का ही इस्तमाल कर पाते हैं।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि संसारिक मोह माया मे उलझ कर हम दूसरों को बाहरी तड़क-भड़क दिखाने के चक्कर में अपने जीवन लगा देते हैं। जिस कारण उस परमात्मा को याद करने का हमें ध्यान ही नही रहता और समय हाथ से निकल जाता है।जबकि हम अपने जीवन में बहुत कम ही इनका उपयोग कर पाते हैं।

सोमवार, 30 जुलाई 2012

कबीर के श्लोक - १०८


कबीर कीचड़ि आटा गिरि परिआ किछू न आइउ हाथ॥
 पीसत पीसत चाबिआ सोई निबहिआ साथ॥२१५॥

कबीर जी कहते हैं कि जब आटा कीचड़ मे गिर जाता है तो वह किसी काम का नही रहता। जिस का आटा होता है उस के हाथ कुछ भी नही लगता।लेकिन चक्की पीसते समय जितने दानें उसने चख लिये बस वही उसके काम आते हैं।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि परमात्मा का ध्यान करने के लिये किसी विशेष समय या उमर की जरूरत नही होती। बल्कि हमे अपना स्वाभाव ऐसा बना लेना चाहिए की हर समय,चाहे हम किसी भी काम मे लगे हो ,उस परमात्मा का सिमरन करते रहे। अर्थात कुछ दानें खा सके। कहीं ऐसा ना हो कि हम बेकार के कामों मे ही व्यस्त रहें और समय निकल जाये। अर्थात हमारा आटा कीचड़ मे गिर जाये और हमारे हाथ कुछ भी ना लगे।

कबीर मनु जानै सभ बात, जानत ही अऊगनु करै॥ 

काहै की कुसलात, हाथि दीपु कूऐ परै॥२१६॥

कबीर जी आगे कहते हैं कि हमारा मन सभी कुछ  जानता है कि हम क्या अच्छा कर रहे हैं और क्या बुरा।लेकिन सब जानते हुए भी हम बुराईओ की ओर ही जाते हैं। लेकिन कबीर जी कहते हैं कि इस मे भला कौन-सी समझदारी है, जबकि तुम्हारे हाथ मे जलता हुआ दीपक हो और फिर भी तुम कूए में गिर जाओ।.

कबीर जी कहना चाहते हैं कि हमारा मन जानता है कि हम दिखावे के लिये तो मंदिर गुरूद्वारे जाते हैं लेकिन बाकि समय चोरी ठगी मे लगे रहते हैं।इस तरह की चालाकी करने से हमे क्या लाभ मिलने वाला है? जबकि परमात्मा का नाम रूपी दीपक हमारे हाथ में है जो हमारे मन का सारा अंधेरा दूर कर सकता है। यदि फिर भी हम परमात्मा की भक्ति की जगह विषय-विकारों मे ही फँसें रहते हैं तो यह ठीक ऐसा ही है कि जैसे तुम्हारे हाथ मे जलता हुआ दीया हो और तुम फिर भी कूए में जा गिरो।

शुक्रवार, 20 जुलाई 2012

कबीर के श्लोक - १०७

नामा कहै तिलोचना मुख ते राम संम्हालि॥
हाथ पाउ करि कामु सभु चीतु निरंजन नालि॥२१३॥

कबीर जी कहते हैं कि नामा जी त्रिलोचन को जवाब देते हैं कि मुँह से राम नाम को बोलते हुए उस का ध्यान कर के और हाथ-पाँव से अपनी रोटी-रोजी के लिए कार्य करके उस परमात्मा को मैं सदा अपने चित मे रखता हूँ।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि भक्त भले ही संसारिक कार्यो मे उलझे हुए लगते हो लेकिन वास्तव में उन का ध्यान सभी कार-विहार करते हुए भी उस परमात्मा में ही लगा रहता है। यहाँ कबीर जी हमे भी संकेत द्वारा कहना चाहते हैं कि हमे परमात्मा की प्राप्ती के लिये संसार छोड़ कर कहीं भागने की जरूरत नही हैं बल्कि संसार के कार-विहार करते हुए उस परमात्मा के ध्यान मे डूबा रहना है। सभी भक्तों ने ऐसा ही किया है।

महला ५॥ कबीरा हमरा को नही, हम किस  हू के नाहि॥
जिनि इहु रचन रचाइआ, तिस ही माहि समाहि॥२१४॥

(यह श्लोक गुरु अरजन देव जी का है)वे कहते हैं कि हे कबीर! जिस परमात्मा ने यह सब रचना रची है हम तो उसी की याद में लगे रहते हैं,क्यूँकि ना तो हमारा कोई सदा के लिये साथी हो सकता है और ना ही हम सदा किसी के लिये साथी हो सकते हैं।

गुरु जी इस श्लोक में उपरोक्त श्लोक के संदर्भ में कहना चाहते हैं कि यदि जीव को इस सत्य का आभास हो जाये कि इस संसार मे कोई भी किसी का नही हो सकता।अर्थात वे कहना चाहते हैं कि भले ही ऊपरी तौर पर हम एक दूसरे के मित्र नजर आते हैं लेकिन एक व्यक्ति किसी दूसरे की शारिरिक व मानसिक पीड़ा को सांत्वना तो दे सकता है लेकिन कम नही कर सकता। इसी लिये गुरु जी कहते हैं कि ना तो कोई हमारा है और ना ही हम किसी के हो सकते हैं।हमे तो अंतत: उसी मे समाना है जिस ने यह सारी रचना इस प्रकार बनाई है।

मंगलवार, 10 जुलाई 2012

कबीर के श्लोक - १०६

कबीर चावल कारने तुख कऊ मुहली लाइ॥
संगि कुसंगी बैसतै तब पूछै धरम राइ॥२११॥

कबीर जी कहते हैं कि चावलों के लिये हमे कैसी कैसी मेहनत करनी पड़ती है,गारे मे हाथ डाल कर चावल की पौधे रोपनें पड़ते है और अच्छे बुरे की परवाह ना करते हुए क्या कुछ करना पड़ता है। कबीर जी कहते हैं कि हम जो कुछ भी करते हैं, अच्छा या बुरा उसका हिसाब धर्मराज जरूर माँगेगा।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि परमात्मा हमारे सभी कामों पर नजर रखे हुए हैं हम जो भी करते हैं उसका हिसाब जरूर देना पड़ेगा।कबीर जी इस लिये कह रहे हैं, क्योकि ज्यादातर जीव इस बात को सदा भूले रहते हैं कि परमात्मा की नजर सदा उनके कर्मों पर लगी रहती है।

नामा माइआ मोहिआ कहै तिलोचनु मीत॥
 काहे छीपहु छाइलै राम न लावहु चीतु॥२१२॥

कबीर जी यहाँ त्रिलोचन और नामा जी के वार्तालाप का जिक्र करते हुए कहते हैं कि त्रिलोचन जी नामा से कहते हैं कि तुम माया में क्यो उलझे हुए लगते हो। जब देखो अपने काम मे लगे रहते हो, रजाईयो को टाँकने मे लगे रहते हो। उस परमात्मा का नाम क्यो नही लेते।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि भक्त भी देखने मे तो ऐसे ही लगते हैं की वे संसारिक कार-विहार में उलझे हुए हैं। ऐसे लगता है जैसे वे अपने कामों मे डूबे हुए हैं और परमात्मा का ध्यान करने के लिये उनके पास समय ही नही है।

शनिवार, 30 जून 2012

कबीर के श्लोक - १०५



महला ५॥ कबीर कूकर बऊकना,करंग पिछै उठि धाइ॥
करमी सतिगुरु पाइआ,जिनि हऊ लीआ छडाइ॥२०९॥

कबीर जी कहते हैं कि कुत्ता मुरदार के पीछे भौंकता हुआ भागता रहता है लेकिन जिस को सुकर्मों के कारण परमात्मा की कृपा से सतगुरु मिल गया है वह अंहकार रूपी विकारों से छूट गया है।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि लालच व विषय -विकारों के पीछे जिस प्रकार कुत्ता भौंकता हुआ भागता रहता है ठीक उसी तरह विकारग्रस्त जीव विकारों के पीछे परमात्मा को भूल कर भागता रहता है। लेकिन परमात्मा की कृपा से यदि सतगुरु मिल जाये तो वह अंहकार रुपी विकारों से छूट सकता है।

महला५॥कबीर धरती साध की,तसकर बैसहि गाहि॥

धरती भारि न बिआपई,उन कऊ लाहू लाहि॥२१०॥

कबीर जी कह्ते हैं कि यह धरती तो उन के लिये है जो परमात्मा की कृपा को पहचानते हैं लेकिन इस धरती पर अक्सर चोर विकारी ही ज्यादातर देखे जाते हैं।लेकिन फिर भी धरती पर इनके भार का कोई असर नही होता ।क्योकि उनको अपना भार स्वयं ढोना पड़ता है।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि परमात्मा ने हमे उस परमानंद को भोगने के लिये भेजा है लेकिन हम यहाँ विषय -विकारों में ही फँसे रहते हैं और अपना जीवन व्यर्थ गवा जाते हैं।जिस से हमारा अपना ही नुकसान होता है।

बुधवार, 20 जून 2012

कबीर के श्लोक - १०४

कबीर घाणी पीड़ते, सतिगुर लिए छडाइ॥
परा पूरबली भावनी, परगटु होइ आइ॥२०७॥

कबीर जी कहते हैं कि लोग विषय -विकारों में इस तरह पीसे जा  रहे हैं जैसे कोल्हू में तिल पीसे जाते हैं।लेकिन जो परमात्मा की शरण मे चले गये हैं उन्हें परमात्मा अपनी कृपा से बचा लेता है।क्योकि जन्म से पहले जब हम ईश्वर के साथ एकाकार थे उस समय का आभास हमारे भीतर परमात्मा का चिन्तन करने से स्वयं ही प्रगट हो जाता हैं।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि भले ही संसार मे आ कर हम विषय-विकारों में फँस जाते हैं लेकिन हमारे भीतर परमात्मा सदा मौजूद रहता है।हमें तो सिर्फ उस का ध्यान करने की जरूरत है वह हमारे भीतर फिर से प्रगट हो जाता है।अर्थात परमात्मा का ध्यान सभी विषय -विकारों से बचा लेता है।

कबीर टालै टोलै दिनु गईआ, बिआजु बढतऊ जाइ॥
 न हरि भजिउ न खतु फटिउ, कालु पहूँचो आइ॥२०८॥

कबीर जी आगे कहते हैं कि बहुत से लोग ऐसे होते हैं जो परमात्मा की शरण में जाने से टाल-मटोल करते रहते हैं। लेकिन वे नही जानते कि उनके ऐसा करने से ब्याज बढता ही जाता है। ऐसे लोगो का बही खाता बढता ही जाता है और उनकी मृत्यू का समय भी आ जाता है लेकिन वे सचेत नही होते।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि विषय -विकारों के पीछे लग कर लोग परमात्मा के ध्यान करने को टालते रहते हैं । वे सोचते हैं कि अभी तो मौज-मस्ती कर ली जाये । जब समय आयेगा तब उस परमात्मा का भजन कर लेगें, लेकिन वे नही जानते कि उन के इस तरह करने से विषय-विकार उन पर और भी अधिक हावी होते जाते हैं। जिस कारण उन से बचना और भी अधिक कठिन हो जाता है।फिर हम इन विकारों में फँस इसके इतने आदि हो जाते हैं कि हम उन्ही मे उलझे रहते हैं और मृत्यू का समय हमारे सामने आ जाता है।इसी लिये कबीर जी हमे सचेत कर रहे हैं।


शुक्रवार, 27 अप्रैल 2012

कबीर के श्लोक - १०३


कबीर बिकारह चितवते झूठे करते आस॥
मनोरथु कोइ न पूरिउ चाले ऊठि निरास॥२०५॥

कबीर जी कहते हैं कि जो लोग भौतिक पदार्थो को पाने की लालसा से उस परमात्मा का चिन्तन करते हैं वे झूठी आशा मे ही जीते रहते हैं। क्योकि कोई भी संसारिक मनोरथ या कामना पूरी हो जाने के बाद भी तृप्त नही करती।इस लिये अंत मे निराशा ही हाथ लगती है।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि एक परमात्मा के सिवा जब जीव अन्य पदार्थो की कामना लेकर परमात्मा की शरण मे जाता है तो भले ही उस को वह पदार्थ मिल जाते हैं लेकिन उसे संतोष प्राप्त नही होता। किसी भी कार्य के पूरा हो जाने से भी मन में यदि तृपति नही होती वह अधूरा ही रहता है ।अर्थात कबीर जी कहना चाहते हैं कि संसार मे एक परमात्मा के सिवा किसी भी मनोरथ से कभी भी पूर्ण तृपति नही मिल सकती।

कबीर हरि का सिमरनु जो करै, सो सुखीआ संसारि॥
इत कतहि न डोलई जिस राखै सिरजनहार॥२०६॥

कबीर जी आगे कहते हैं कि इस लिये पदार्थो का चिन्तन न करके उस परमात्मा का ही चिन्तन करना चाहिए। तभी स्थाई सुख की प्राप्ती हो सकती है और जीव संसार मे सुखी रह सकता है। क्योकि जब जीव परमात्मा की शरण मे चले जाता है तो उस का भटकाव समाप्त हो जाता है।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि यदि किसी को  सुख चाहिए चाहिए तो वह भौतिक पदार्थो से नही बल्कि परमात्मा की भक्ति करने से ही मिलेगा। क्योकि भौतिक पदार्थो भले ही हमे कितने भी मिल जाये। लेकिन उन्हे और पाने की लालसा हमेशा बनी ही रहती हैं ।जबकि एक बार परमात्मा की शरण मे जाने से मन मे ठहराव आ जाता है और मन का ठहराव ही सुख प्रदान करता है।



बुधवार, 18 अप्रैल 2012

कबीर के श्लोक - १०२

कबीर मेरा मुझ महि किछु नही जो किछु है सो तेरा॥
 तेरा तुझ को सऊपते किआ लागै मेरा॥२०३॥


कबीर जी कहते हैं कि परमात्मा मेरा तो मुझ मे कुछ भी नही है जो भी मेरे पास हैं वह सब तो तेरा ही दिया हुआ है।यदि तू चाहे तो यह सब मैं तुझी को सौंप देने मे समर्थ हो सकता हूँ। क्योकि मैं जान चुका हूँ कि भी तभी संभव है जब तू चाहेगा।

कबीर जी हमे समझाना चाहते हैं कि द्वैत की भावना से कैसे छुटकारा मिल सकता है वह बताते हैं कि इस द्वैत की भावना  से मुक्ति पानें का एक ही उपाय है कि जीव परमात्मा के प्रति पूर्ण समर्पण करदे। तभी हमारे और परमात्मा के प्रति हमारा कुछ करने की भावना का द्वंद समाप्त हो सकेगा।इस के सिवा परमात्मा से मिलने का और कोई रास्ता नही है।

कबीर तूं तूं करता तूं हुआ मुझ महि रहा न हूं॥
जब आपा पर का मिटि गईआ जत देखऊ तत तू॥२०४॥


कबीर जी आगे कहते हैं कि जब एक तू ही है ऐसा भाव आ जाता है तो "मै" का भाव समाप्त हो जाता है और जब यह "मै" का भाव नही रहता तो हर जगह परमात्मा ही परमात्मा नजर आता है।

कबीर जी समझना चाह रहे हैं कि जब हम पूर्ण समर्पण परमात्मा के समक्ष कर देते हैं तो हमारे भीतर से "मै" का भाव समाप्त हो जाता है और इस "मैं"के भाव के समाप्त होने पर ही उस परमात्मा को महसूस किया जा सकता है। तभी हम उस तक पहुँच सकते हैं। अर्थात परमात्मा तक पहुँचने का एक यही रास्ता है कि स्वयं को भी उस परमात्मा को सौंप दे। ताकि हमारे भीतर से "मैं" का भाव पूर्णत: मिट जाए।


सोमवार, 9 अप्रैल 2012

कबीर के श्लोक - १०१


कबीर लेखा देना सुहेला जऊ दिल सूची होइ॥
उसु साचे दीबान महि पला न पकरै कोइ॥२०१॥

कबीर जी कहते हैं कि परमात्मा जीव की नही तेरे दिल के पाकीजगी की कुरबानी माँगता है।यदि जीव का दिल पवित्र व सच्चा है तो परमात्मा के दरबार में हिसाब-किताब देना आसान हो जायेगा। तब उस सच्चे दरबार में किसी प्रकार की रोक-टोक नही रहेगी।।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि जीवों के कुरबानी देने से परमात्मा खुश नही होता । यदि तुम्हारा ह्र्दय पवित्र है, सच्चा है तो उस परमात्मा के दरबार मे बिना रोक-टोक स्थान मिलता है।हम तभी निश्चिंत हो कर उस परमात्मा के सामने टिक सकते है जब हमारे कर्म अच्छे व नेक हो तभी हम आसानी से अपना हिसाब -किताब उस के सामने रख सकेगें।

कबीर धरती अरू आकास महि दुइ तूं बरी अबध॥
खट दरसन संसे परे अरु चऊरासीह सिध॥२०२॥

कबीर जी कहते हैं कि धरती और आकास सभी जगह जीव के लिये द्वैत की भावना ही सबसे बड़ी रूकावट है। इस द्वैत के कारण ही उस परमात्मा की प्राप्ती मे लगे साधक और चौरासी सिध परमात्मा तक ना पहुँच पाने के कारण शंका मे पड़े हुए हैं। क्योकि वे अपनी तरफ से सभी उपाय व यत्न ईश्वर को पाने के लिये करते हैं लेकिन लक्ष्य तक नही पहुँच पाते।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि जब साधक किसी जीव की बलि देता है या फिर परमात्मा की प्राप्ती के लिये अपनी ओर से कोई उपाय करता है तो साधाक व सिध के मन में यह भाव आ जाता है कि मै कुछ कर रहा हूँ। इस ’मैं कुछ करता हूँ’ के भाव  के कारण साधक द्वैत अर्थात दो की भावना से ग्रस्त हो जाता है। इस लिये ईश्वर प्राप्ती मे बाधा उत्पन्न हो जाती है। यहाँ कबीर जी हमे बताना चाहते हैं कि हम किस कारण से परमात्मा तक पहुँचने मे समर्थ नही हो पाते।


मंगलवार, 27 मार्च 2012

कबीर के श्लोक - १००

कबीर जीअ जु मारहि जोरु करि कहते हहि जु हलालु॥
दफतर बही जब काडि है होइगा कऊनु हवालु॥१९९॥


कबीर जी कहते हैं कि जो लोग जीवों   के साथ जोर  जबरदस्ती करते हैं  और उन्हें मार कर कहते ही कि हमनें इस जीव को हलाल किया है अर्थात इस जीव को मार कर इसी का भला किया है।क्योकि इसे ईश्वर के नाम पर मारा गया है।लेकिन कबीर जी कहते हैं कि तेरे इस कृत्य का फल तुझे जरूर भुगतना पड़ेगा।जब वह ऊपर वाला अपने बही खाते मे तेरे इस कृत्य को देखेगा।उस समय तेरे इस कर्मफल से कौन बचाएगा।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि हमारे प्रत्येक कर्म का हिसाब-किताब हमे ही देना पड़ेगा। भले ही हम परमात्मा के नाम का सहारा लेकर यह कहे की हमारे द्वारा दी गयी कुर्बानी जायज़ है।


कबीर जोरु कीआ सो जुलमु है लेइ जवाबु खुदाइ॥
दफतरि लेखा नीकसै मार मुहै मुहि खाइ॥२००॥


कबीर जी इसी बारे मे आगे कहते हैं कि इस तरह के कृत्य भले ही कोई हलाल माने लेकिन यह एक तरह का जुल्म ही है। इस काम का हिसाब खुदा तुझ से जरूर माँगेगा। कबीर जी कहते हैं कि जब तेरे खाते में तेरे इन कर्मों को खुदा देखेगा तो तुझे इस की सजा जरूर मिलेगी।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि हमारे द्वारा किये गये पाप भले ही वह परमात्मा के नाम का सहारा लेकर किये हो।लेकिन इन पाप कर्मों की सजा जरूर भुगतनी पड़ती हैं। वा्स्तव मे कबीर जी विभिन्न धर्मों व संप्रदायों में इस प्रकार की भ्रांतियों का विरोध कर रहे हैं जो धर्म के नाम पर तो की जाती हैं लेकिन जिस से दूसरे जीवों को कष्ट पहुँचता है।



रविवार, 18 मार्च 2012

कबीर के श्लोक - ९९

कबीर हज काबै हऊ जाइ बा आगै मिलिआ खुदाइ॥
सांई मुझ सिऊ लरि परिआ  तुझे किनि फुरमाई गाइ॥१९७॥


कबीर जी कह्ते हैं कि जब मैं हज के लिये काबा की यात्रा पर निकला तो मुझे रास्ते में खुदा मिल गया। जब वह मुझ से मिला तो वह सांई मुझ से लड़ने लगा। कहने लगा कि इस गाय की कुर्बानी मेरे नाम पर करने के लिये तुझे किसने कहा ?

कबीर जी समझाना चाहते है कि परमात्मा के लिये तो सभी जीव समान हैं ऐसे में यह मान कर कि गाय आदि किसी पशु की कुरबानी खुदा के नाम पर देने से वह खुदा खुश हो जायेगा और तेरे सभी गुनाह बख्श देगा यह सब नासमझी की बातें हैं। इसी ओर संकेत करने के लिये कबीर जी ने उपरोक्त विचार व्यक्त किया है।

कबीर हज काबै होइ होइ गईआ केती बार कबीर॥
सांईं मुझ महि किआ खता मुखहु न बोलै पीर॥१९८॥


कबीर जी आगे कहते हैं कि मैं कितनी ही बार सांई के घर उसका दीदार करने के लिये गया हूँ लेकिन सांई मेरे साथ बात ही नही करता। ऐसा लगता है वह मुझ से नाराज हो गया हैं। पता नही तू मुझ मे कैसी कैसी खता देख रहा हैं जो मुझ से हुई हैं।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि परमात्मा के नाम पर जब हम किसी जीव की बलि देते हैं या किसी से कोई जोर जबर्दस्ती करते हैं तो हमारे इस कृत्य से परमात्मा हम से नाराज हो जाता है।जब कि हम यह सब कृत्य उस परमात्मा के नाम पर उसे खुश करने के लिये करते हैं।अर्थात जब हम परमात्मा कि शरण मे जाते हैं तो परमात्मा की हम पर कृपा ना होने का कारण मात्र हमारी ही कुछ भूलें होती है। यदि हम अपनी इन भूलों को सुधार ले तो परमात्मा की कृपा प्राप्त हो सकती है।कबीर जी इसी ओर इशारा कर रहे हैं।





शुक्रवार, 9 मार्च 2012

कबीर के श्लोक - ९८


कबीर निरमल बूंद अकास की परि गई भुमि बिकार॥
बिनु संगति इऊ मांनई होइ गई भठ छार॥१९५॥

कबीर जी कहते हैं कि जब बरसात होती है आकाश से जो बूँदें धरती पर गिरती हैं यदि वह कुछ सँवार ना सके तो बेकार ही जाती है। धरती की तपिश में नष्ट हो जाती हैं।यही हाल जीव का होता है। जबकि वह परमात्मा की ही अंश है लेकिन बुरी संगत होने के कारण अपना जीवन व्यर्थ ही गवा देता है।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि यदि आकाश की बूँद बंजर धरती पर पड़े तो उस से किसी को कोई फायदा नही होता लेकिन यदि यही बूँद किसी खेत खलिहान पर पड़े तो धरती को लाभ पहुँचाती हैं।इसी तरह मनुष्य के जीवन पर संगत का प्रभाव पड़ता हैं यदि वह अच्छी व साध लोगों की संगत मे रहता है तो अपने जीवन को सँवार लेता है अन्यथा उसका यह जीवन विषय -विकारों से ग्रस्त लोगो की संगत करने के कारण व्यर्थ जी जाता है। कबीर जी यहाँ हमें सगति के प्रभाव के बारे मे बताना चाह रहे हैं।

कबीर निरमल बूंद अकास की लीनी भूमि मिलाऐ॥
 अनिक सिआने पचि गए ना निरवारी जाऐ॥१९६॥

कबीर जी आगे कहते हैं कि धरती उस बूँद को अपने भीतर समाहित कर लेती है फिर वह उससे अलग होना उस बूँद के लिये कठिन होता है। भले ही कितने सयाने हो वह बूँद को धरती में मिलने के बाद पूर्णत: अलग नही कर सकते।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि बूँद का धरती  मे समाहित होने के बाद जैसे उन्हें अलग करना कठिन हो जाता है ।ठीक वैसे ही जब कोई सतगुरू की कृपा का पात्र बन जाता है तो ऐसे साधक परमात्मा के रंग मे रंग कर विषय विकारों से दूर हो जाते हैं। फिर कोई भी विकार या बुरी संगति उन्हें नुकसान नही पहुँचा सकती।अर्थात कबीर जी कहना चाह रहे हैं कि जिस प्रकार उपजाऊ व बंजर धरती और बूँद के मिलने से परिणाम निकलते हैं ठीक वैसे ही अच्छी और बुरी संगत करने से प्रभाव पडता है।

बुधवार, 8 फ़रवरी 2012

कबीर के श्लोक - ९७

कबीर गूंगा हूआ बावरा बहरा हूआ कान॥
पावहु ते पिंगल भईआ मारिआ सतिगुर बान॥१९३॥


कबीर जी कहते हैं कि जब कोई सच्चा गुरु साधक पर कृपा करता है तो साधक गूंगे और बहरे की तरह बाँवरा-सा नजर आने लगता हैं। ऐसा देखने वालो को लगने लगता है कि साधक दुनियावी कार-विहार के लिये अब नकारा हो गया है।किसी काम का नही रहा।ऐसा साधक चलना छोड देता है अर्थात उस के मन मे संतोष आ जाता है जिस कारण उस की इच्छाओं पर अंकुश लग जाता है।यह सब सतगुरू की कृपा से ही होता है।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि सतगुरू की कृपा होने पर जीव का जीने का ढंग ही बदल जाता है। वह प्रभुमय हो जाता है।इसी लिये उस का व्यवाहर ऐसा हो जाता है जिसे दुनियावी दृष्टि से बावरा कहते हैं।

कबीर सतिगुर सूरमे बाहिआ बानु जु ऐकु॥
लागत ही भुइ गिरि परिआ परा करेजे छेकु॥१९४॥


कबीर जी आगे कहते हैं कि सतगुरू के इस बाण का असर ऐसा होता है कि जीव कितना ही मोह माया से ग्रस्त रहा हो लेकिन जब यह सतगुरु का कृपा रूपी बाण उसे लगता है तो उस के ह्र्दय पर ऐसा असर डालता है कि परमात्मा के रंग में हमेशा के लिये रंग जाता है।फिर वह उसी में डूबा रहता है।

कबीर जी हमे सतगुरू की महिमा के बारे में बताना चाहते हैं कि उसकी कृपा रूपी बाण जब किसी जीव  को लगता है तो वह माया मे कितना ही पहले लिप्त रहा हो लेकिन सतगुरू की कृपा रूपी बाण लगने के कारण उस के भीतर प्रभू भक्ति की जोत जलने लगती है।अर्थात फिर उस साधक को परमात्मा की भक्ति के सिवा कुछ नही भाता।


मंगलवार, 24 जनवरी 2012

कबीर के श्लोक - ९६


कबीर रामै राम कहु कहिबे माहि बिबेक॥
ऐकु अनेकहि मिलि गईआ एक समाना एक॥१९१॥

कबीर जी कहते हैं कि राम का नाम तो सभी जपते हैं लेकिन राम का नाम जपते समय यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि एक राम तो सभी जीवों मे समाया हुआ है और एक अवतारी पुरूष है। लेकिन जपते समय यह तुम्हारे विवेक पर निर्भर करता है कि तुम किसे जप रहे हो। जबकि नाम की दृष्टि से दोनों समान है।

कबीर जी समझाना चाहते हैं कि परमात्मा के नाम को सर्वव्यापी सर्वशक्तिमान की भावना से ही जपना चाहिए। तभी उसका लाभ मिल सकता है।अर्थात कबीर जी कहना चाहते हैं कि तुम जिस परमात्मा के नाम को जप रहे हो वह किसी दायरे में. किसी एक धर्म मे बँधा हुआ नही होना चाहिए। बल्कि ऐसी भावना होनी चाहिए कि वह राम सभी में रमा हुआ हैं ।

कबीर जा घर साध न सेवीअहि हरि की सेवा नाहि॥
ते घर मरहट सारखे भूत बसहि तिन माहि॥१९२॥

कबीर जी आगे कहते हैं कि जिस घर मे साधु संतों की सेवा नही होती अर्थात ऐसे लोगो की सेवा होती है जो अपने स्वार्थ के कारण तुम्हें कर्म कांडो मे उलझा देते हैं और लोग उन्हे ही साध -संत मान कर उनकी सेवा करने लगते हैं।ऐसे लोगो की सेवा करने से परमात्मा की प्राप्ती का रास्ता नही मिल सकता। ऐसे घर मसान की तरह हो जाते हैं जहाँ भूतों का वास हो जाता है।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि हमे ऐसे साधू -संतों की सेवा करनी चाहिए जो परमात्मा के ध्यान में ही मगन रहते हैं। क्योकि जो साधक उस परमात्मा से एकाकार हो चुके है वही हमें सही रास्ते पर ले जा सकते हैं। अन्यथा हम भटकाव मे पड सकते हैं।


सोमवार, 16 जनवरी 2012

कबीर के श्लोक - ९५



कबीर गुरु लागा तब जानीऐ मिटे मोह तन ताप॥
हरख सोग दाझै नही तब हरि आपहि आप॥१८९॥

कबीर जी कहते हैं कि गुरु मिल गया है यह तभी जाना जा सकता है जब जीव मोह और शरीरिक तापों से मुक्त हो गया हो।गुरु की कृपा होने पर खुशी और गमी जीव को प्रभावित नही कर पाते।ऐसे में जीव प्रभु कृपा का अनुभव भी करने लगता है।

कबीर जी वास्तविक सच्चे गुरू की पहचान को बताना चाहते हैं। सहज रूप में हम अक्सर गुरू तो धारण कर लेते हैं लेकिन उस से हमारे जीवन में जरा-सा भी परिवर्तन या आनंद प्राप्त नही होता। ऐसे गुरू धारण करने से कोई लाभ नही होता। यदि गुरू धारण करने के बाद जीव मोह और खुशी गमीं से ऊपर उठ जाता है . उस का मन शांत हो जाता है उसकी तृषणा मिट जाती है तभी जानना चाहिए कि गुरू मिल गया।अर्थात ऐसा गुरू ही धारण करने योग्य होता है।

कबीर राम कहन महि भेदु है ता महि एक बिचार।॥
सोई राम सभै कहहि सोई कोतकहार॥१९०॥

कबीर जी आगे कहते हैं कि परमात्मा के नाम राम में भी एक भेद है क्योकि सभी उस राम का विचार अपने ढंग से करते हैं। कबीर जी आगे प्रश्न पर विचार करने के लिये कहते हुए कहते हैं कि क्या जिस राम को सभी जपते हैं क्या वह कोई चमत्कारी पुरूष है ?

कबीर जी हमे समझाना चाहते हैं कि परमात्मा का नाम किसी व्यक्ति विशेष का भी हो सकता है और प्राकृति के संपूर्ण अस्तित्व का भी हो सकता है। यही वह भेद है कि हम किस राम की आराधना करते हैं । जिसे समझनें के लिये वे हम से कह रहे हैं।


रविवार, 8 जनवरी 2012

कबीर के श्लोक - ९४



कबीर जोरी कीऐ जुलमु है. कहड़ा नाउ हलालु॥
दफतरि लेखा मांगीऐ तब होइगो कऊनु हवालु॥१८७॥

कबीर जी कहते हैं कि किसी जीव की परमात्मा के नाम पर हत्या करना जुल्म हैं ।क्या तूनें कभी सोचा है कि जब ऊपर वाला तेरे से तेरे कर्मों का हिसाब-किताब माँगेंगा तब तू उसे क्या जवाब देगा।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि कुछ धर्मों में ऐसी प्रथा है कि वे परमात्मा के नाम पर जानवरों की कुर्बानी देते हैं और परमात्मा का नाम लेकर कहते हैं कि ये जीव अब उस परमात्मा के लिये कुर्बानी देने लायक हो गया है। उन्हों का मानना है कि इस तरह कुर्बानी देने से परमात्मा उन पर खुश होगा।लेकिन उस जानवर को मार कर खुद ही प्रसाद मान कर खा लेते हैं।कबीर जी कहते हैं कि इस तरह के किए पापों का हिसाब एक ना एक दिन देना पडता है जरा सोच तब तेरा क्या हाल होगा।तू उस परमात्मा से क्या कहेगा।

कबीर खूबु खाना खीचरी जा महि अंमृत लोनु॥
जेहा रोटी कारने गला कटावै कऊन॥१८८॥

कबीर जी आगे कहते हैं कि परमात्मा के नाम पर किसी जीव की हत्या करने की बजाय खिचडी खा लेनी अच्छा है जिसमे स्वादिस्ट नमक डाला गया हो। ऐसा नही होना चाहिए कि यदि हमें मास और रोटी खाने की नियत हो और हम भगवान के नाम पर किसी जीव की हत्या करने का बहाना बनाये।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि वास्तव में परमात्मा किसी चीज की कुर्बानी या कोई भी भेंट तुम से अपने नाम के बदले मे नही चाहता। बल्कि हमीं अपने जिह्वा के स्वाद के कारण परमात्मा को जीव की कुर्बानी देते हैं और बाद मे प्रसाद के रूप में उसे खा लेते हैं।अर्थात कबीर जी हमें समझाना चाहते हैं कि ऐसा करने से बेहतर है कि हम स्वादिस्ट खीचडी जिस मे अमृत रूपी नमक पड़ा होता है उसे परमात्मा के नाम पर खा लें।