कबीर मेरी सिमरनी, रसना ऊपर रामु॥
आदि जुगादी सगल भगत,ता को सुखु बिस्रामु॥१॥
कबीर जी कहते है कि मेरी सिमरनी अर्थात मेरी माला तो मेरी जीभ है जिस पर में राम नाम का जाप जपता हूँ। ऐसा सिर्फ मैं ही कर रहा हूँ यह बात नही है आदि से परमात्मा का सिमरन प्रभु भगत इसी जीह्वा रूपी माला से ही कर रहे हैं और सदा करते रहेगें और इसी तरह सुख पाते रहेगें अर्थात उस परमात्मा से एकाकार होते रहेगें। यहाँ पर कबीर जी लोगों में भ्रम निवारण के लिए ऐसा कह रहे हैं क्योकि कुछ लोगो कि यह धार्मिक मान्यताएं हैं कि किसी विशेष माला से जप करने पर उस जप का विशेष प्रभाव या लाभ मिलता है। कबीर जी इसी बात का खंडन करने के लिए यहाँ कह रहे हैं कि प्रभु के नाम का जप तो हम अपनी जीभ रूपी सिमरनी से करते हैं वास्तव में यही जिह्वा ही हमारी माला है।इसी जिह्वा से सदा भगत उस प्रभु का सिमरन करते रहे हैं, जिस से उन्हें उस परमात्मा का वह सुख प्राप्त हुआ है जो सदा रहता है।
कबीर मेरी जाति कउ,सभु को हसनेहारु॥
बलिहारी इस जाति कउ जिह जपिउ सिरजनहारु॥२॥
कबीर जी इस श्लोक में अपनी जाति के बारे मे कह रहे है कि मैं छोटी जाति का हूँ इस लिए सभी मेरी छोटी जाति के कारण मुझ पर पर हँसते हैं, लेकिन कबीर जी कहते है कि मैं तो अपनी जाति पर बलिहारी जाता हूँ ,जिस के कारण मै उस परमात्मा ,उस सिरजनहार का नाम जप सका। अर्थात कबीर जी कहना चाहते है कि बहुत से लोग अपनी बड़ी जाति के होनें के कारण अपनी से छोटी जाति वालों का हीन भाव से देखते हैं अर्थात उन्हें हेय दृष्टि से देखते हैं और उन पर हँसते हैं ।पुराने समय मे ऐसी मान्यता थी कि छोटी जाति के लोगों को ना तो मंदिर मे प्रवेश की अनुमति थी और ना ही वेद शास्त्र पढ़ने की। वैसे कई जगह यह आज भी वैसी ही बनी हुई है। कबीर जी यहाँ इसी बात का खंडन कर रहे है कि लोग किसी की छोटी जाति के कारण भले ही उस पर हँसते रहे, इस से कोई फर्क नही पड़ता क्योकि वास्तव मे तो वही जाति गर्व करने लायक है जिस जाति में कोई उस परमात्मा की निकटता पा जाता है।
आदि जुगादी सगल भगत,ता को सुखु बिस्रामु॥१॥
कबीर जी कहते है कि मेरी सिमरनी अर्थात मेरी माला तो मेरी जीभ है जिस पर में राम नाम का जाप जपता हूँ। ऐसा सिर्फ मैं ही कर रहा हूँ यह बात नही है आदि से परमात्मा का सिमरन प्रभु भगत इसी जीह्वा रूपी माला से ही कर रहे हैं और सदा करते रहेगें और इसी तरह सुख पाते रहेगें अर्थात उस परमात्मा से एकाकार होते रहेगें। यहाँ पर कबीर जी लोगों में भ्रम निवारण के लिए ऐसा कह रहे हैं क्योकि कुछ लोगो कि यह धार्मिक मान्यताएं हैं कि किसी विशेष माला से जप करने पर उस जप का विशेष प्रभाव या लाभ मिलता है। कबीर जी इसी बात का खंडन करने के लिए यहाँ कह रहे हैं कि प्रभु के नाम का जप तो हम अपनी जीभ रूपी सिमरनी से करते हैं वास्तव में यही जिह्वा ही हमारी माला है।इसी जिह्वा से सदा भगत उस प्रभु का सिमरन करते रहे हैं, जिस से उन्हें उस परमात्मा का वह सुख प्राप्त हुआ है जो सदा रहता है।
कबीर मेरी जाति कउ,सभु को हसनेहारु॥
बलिहारी इस जाति कउ जिह जपिउ सिरजनहारु॥२॥
कबीर जी इस श्लोक में अपनी जाति के बारे मे कह रहे है कि मैं छोटी जाति का हूँ इस लिए सभी मेरी छोटी जाति के कारण मुझ पर पर हँसते हैं, लेकिन कबीर जी कहते है कि मैं तो अपनी जाति पर बलिहारी जाता हूँ ,जिस के कारण मै उस परमात्मा ,उस सिरजनहार का नाम जप सका। अर्थात कबीर जी कहना चाहते है कि बहुत से लोग अपनी बड़ी जाति के होनें के कारण अपनी से छोटी जाति वालों का हीन भाव से देखते हैं अर्थात उन्हें हेय दृष्टि से देखते हैं और उन पर हँसते हैं ।पुराने समय मे ऐसी मान्यता थी कि छोटी जाति के लोगों को ना तो मंदिर मे प्रवेश की अनुमति थी और ना ही वेद शास्त्र पढ़ने की। वैसे कई जगह यह आज भी वैसी ही बनी हुई है। कबीर जी यहाँ इसी बात का खंडन कर रहे है कि लोग किसी की छोटी जाति के कारण भले ही उस पर हँसते रहे, इस से कोई फर्क नही पड़ता क्योकि वास्तव मे तो वही जाति गर्व करने लायक है जिस जाति में कोई उस परमात्मा की निकटता पा जाता है।