कंधि कुहाड़ा,सिरि घड़ा,वणि कै सरु लोहारु॥
फरीदा हौ लोड़ी सहु आपणा,तू लौड़हि अंगिआर॥४३॥
फरीदा इकना आटा अगला,इकना नाही लोणु॥
अगै गए सिंयापसनि चोटा खासी कौणु॥४४॥
पासि दमामे,छतु सि्रि,भेरी सडो रड॥
जाऐ सुते जीराण महि,थीऐ अतीमा गड॥४५॥
फरीद जी कहते हैं कि कंधे पर कुल्हाड़ी और सिर पर पानी का घड़ा लेकर यह अपने को जंगल का राजा समझ रहा है।अर्थात जब इन्सान शक्तिशाली होता है और उस के पास बहुत धन संम्पदा होती है तो वह अपने को बहुत मजबूत व शक्तिशाली समझता है।लेकिन ऐसा होने पर भी वह अंगियार अर्थात ऐसी वासनाओ की कामना करता है जो आग की तरह होती है जैसे विषय विकार आदि।इन्सान इन्ही के पीछे भागता रहता है।लेकिन फरीद जी कहते हैं कि मै तो अपना प्यारा ढूंढ रहा हूँ।अर्थात फरीद जी कहना चाहते है जब प्रभू ने तुझे सब कुछ दे रखा है तो ऐसे में व्यर्थ की कामनाओं के पीछे भागना छोड़ कर उस प्रभू की प्राप्ती का यत्न करना चाहिए।
आगे फरीद जी कहते हैं कि यह अक्सर देखने मे आता है कि एक इन्सान तो बहुत संम्पन्न है ।उस के पास दुनियावी सभी पदार्थ हैं।वही दूसरी ओर ऐसे लोग भी हैं जिन के पास कुछ भी नही है।उन का गुजारा बहुत मुश्किल से हो रहा है।लेकिन ऐसा सब होनें पर भी यह तो आगे जा कर पता लगेगा कि कौन चोट खाएगा अर्थात अपमानित होगा और कौन उस परमात्मा की नजर में सम्मानित होगा।
फरीद जी कहते हैं कि भले ही कितना ही धन पास हो।भले ही समाज में हम कितना ही सम्मान पाते हो।लेकिन आखिर में धनी और कंगाल दोनों को श्मशान में लेजा कर जला दिया जाता है।अर्थात अंत में दोनों के शरीर का हाल एक जैसा ही होता है।असल में फरीद जी हमे समझाना चाहते हैं कि यह जो धन संम्पदा है और यह जो हमे लोगो से सम्मान मिल रहा है या फिर हम जो फटेहाल जीवन गुजारते हैं। इन सब की कोई कीमत नही है।हमारी असली कीमत तो प्रभु प्राप्ती से ही हो सकती है।
1 टिप्पणियाँ:
बहुत अच्छा लेख लिखा आप ने इस लेख के लिये आप का धन्यवाद
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