गुरुवार, 21 मई 2009

फरीद के श्लोक - ३३

फरीदा हउ बलिहारी तिन पंखिआ जंगल जिंना वासु॥
ककरु चुगनि थलि वसनि रब न छोडनि पासु॥१०१॥

फरीदा रुति फिरी वणु कंबिआ पत झड़े झड़ि पारि॥
चारे कुंडा ढूंढीआं रहणु किथाउ नारि॥१०२॥

फरीदा पाड़ि पटोला धज करी कंबलड़ी परिरेउ॥
जिनी वेसी सरु मिलै सेई वेस करेउ॥१०३॥

फरीद जी कहते हैं कि मैं उन पंछीओ के बलिहारी जाता हूँ जो जंगल में रहते है और जो भी मिलता है वह कंकर पत्थर सब चुग लेते हैं।लेकिन कभी भी उस परमात्मा का ध्यान नही छोड़ते।अर्थात फरीद जी कहना चाहते है हैं कि वे लोग धन्य हैं जो प्रभु की मर्जी के अनुसार प्रभु जहाँ भी उन्हें रखता है,वहीं बहुत खुशी से रहते हैं।,परमात्मा जैसे भी उन्हें रखता है वह वैसे ही खुश रहते हैं । कभी भी परमात्मा से कोई शिकायत नही करते।परमात्मा की जो भी देता है उसे वह सहज ही स्वीकार करते हैं,खुशी से उस का दिया भोगते हैं।अपनी कोई भी माँग उस परमात्मा पर नही थोपते। कि हे प्रभू तूनें हमे यह नही दिया,वह नही दिया।बल्कि उस परमात्मा के प्रति सदा धन्यवाद से भरे रहते हैं।

आगे फरीद जी कहते हैं कि इस जगंल का मौसम,इस दुनिया,संसार का मौसम निरन्तर बदलता रहता है।यहाँ पर
ऐसा मौसम भी आता है जब किसी भी वृक्ष पर कोई भी पत्ता नही रहता।बस ठूँठ मात्र ही शेष रह जाता है।चारों दिशाओ में ढूँढने पर भी कुछ भी स्थिर नही नज़र आता।अर्थात फरीद जी कहना चाहते हैं कि समय कभी एक-सा नही रहता।कभी जीवन में दुख तो कभी सुख जीवन मे आते जाते रहते हैं।जैसे मौसम बदलता है वैसे ही यह जीवन बदलता रहता है।इस संसार मे कुछ भी ऐसा नही है जो सदा एक-सा बना रहता है।नारि अर्थात यह प्राकृति कही भी स्थिर,अपरिवर्तनशील नही है।यह निरन्तर बदलती रहती है।

फरीद जी कहते हैं कि एक ही कपड़े को फाड़ कर अपने ओड़नें और पहनने के लिए वस्त्रों का उपयोग करना भी मेरे लिए बहुत सुखद साबित होगा,यदि ऐसा करने से मेरा परमात्मा मुझ पर खुश हो जाता है। अर्थात फरीद जी कहना चाहते हैं कि परमात्मा यदि हम को अभावों में भी रखता है तो हमें उस से शिकायत क्या करनी।क्योकि यदि हमारे इसी तरह रहने से परमात्मा की कृपा हमे मिलती है तो ऐसे ही उस की रजा में रहने मे क्या हर्ज है।क्युँकि हमारा मूल ध्येय तो आनंद की प्राप्ती करना ही होता है।

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