ढूढेदीऐ सुहाग कू,तउ तनि काई कोर॥
जिना नाउ सुहागणी, तिना झात न होर॥११४॥
सबर मंझ कमाण, ऐ सबरु,का नीहणो॥
सबर संदा बाणु, खालकु खता न करी॥११५॥
सबर अंदरि साबरी,तनु ऐवै जालेनि॥
होनि नजीकि खुदाऐ दै,भेतु न किसै देनि॥११६॥
सबरु ऐहु सुआउ,जे तूं बंदा दिड़ु करहि॥
वधि थीवहि दरीआउ,टुटि न थीवहि वाहड़ा॥११७॥
फरीद जी कहते है कि जिस प्रकार कोई स्त्री अपने सुहाग को खोजती है और उसे खोजने में कोई कौर कसर नही छोड़ती,वैसे ही जीव रूपी स्त्री उस परमात्मा के प्रति मिलन के लिए सदैव आतुर रहती है।दूसरी और जो सुहागिन हैं अर्थात जिन का पति रूपी परमेश्वर उन के करीब है ऐसी जीव रूपी स्त्रीयां कहीं ओर नही झांकती अर्थात किसी अन्य की आस उनके मन में नही जगती।अर्थात फरीद जी कहना चाहते हैं कि यह जो हमारी आत्मा है यह सदा उस परमात्मा को मिलने के लिए आतुर रहती है,जिस कारण वह सभी तरह से उस से मिलने के लिए यत्न करती रह्ती है।असल में यह उस का स्वाभाव ही होता है।इस लिए वह उस से मिलने के लिए उसे खोजती रहती है।वही दूसरी ओर जो उस परमात्मा के निकट पहुंच चुके हैं,उन्हे उस परमात्मा के सिवा दूसरी कोई चाह नही रहती।असल मे फरीद जी हमे जीवात्मा और परमात्मा के यथार्त संबध के बारे में बता रहे हैं जो अटूट है।शाश्वत है।
फरीद जी अगले श्लोक में कहते है कि यदि हमारे मन में सब्र की कमान हो और सब्र का ही तीर हो और वह सब्र के ही चिले पर चड़ा हो तो परमात्मा की ओर निशाना बहुत आसानी से लगता है।अर्थात फरीद जी संकेतिक भाषा का प्रयोग करते हुए कहना चाहते हैं कि परमात्मा की प्राप्ती के लिए धीरज या संयम का बहुत महत्व है।क्योकि परमात्मा किसी के यत्न करने से कभी नही मिलता।उसे पाने के लिए तो धैर्यपूर्वक उस की कृपा बरसनें का इंतजार करना पड़ता है।वह परमात्मा तो सदा से मौजूद ही है,हमारे और उस प्रभु के बीच एक झीनीं -सी परत ही बीच में है ।उसके हटते ही हम उसे पा लेते हैं।इस झीनीं परत के हटने के लिए हमें सब्र से उस के हटनें का इंतजार करना पड़ता है।यहाँ जल्दबाजी काम नही देती.क्युंकि सब्र के कारण हमारा मन शांत होने लगता है,
जब मन शातं हो जाता है तभी हम अपने और परमात्मा के बीच की झीनी परत को देख पानें में समर्थ हो पाते हैं।इसी लिए फरीद जी सब्र का इतना महत्व बता रहे हैं।
फरीद जी आगे सब्र के बारे में बताते हुए कहते हैं कि इस सब्र के अंदर ही शांत होने का गुण छुपा हुआ है,इस के लिए इस शरीर को कष्ट देनें की जरूरत नही है।क्युंकि इस सब्र के कारण ही हम उस खुदा के नजदीक हो पाते हैं,यह बात किसी से कहनें की नही है।अर्थात फरीद जी कहना चाहते हैं कि वास्तव में हमारी प्राकृति ही सब्र वाली है अर्थात हमारा वास्तविक स्वरूप तो शांत ही है लेकिन हम अपने अंदर कई प्रकार की कल्पनाओं को करके उसे आशांत बना देते हैं।यह सब्र तो मन की अवस्था है, इसे शरीर के साधने से कोई फायदा नही होता।इस बात को समझते हुए जो सब्र का दामन थाम लेते हैं वे उस खुदा की समीपता पा जाते हैं,तब कुछ और जानने की उनको कोई जरूरत नही रह जाती।
अगले श्लोक में फरीद जी सब्रके स्वाभाव के बारे में बताते हुए कहते हैं कि सब्र का ऐसा स्वाभाव होता है की यदि एक बार उसे कोई साध ले तो सदा के लिए सध जाता है।जब एक बार इस सब्र का बीज तुम्हारे अंदर पड़ गया तो यह बढता ही जाता है ।यह नदी की भाँति होता जाता है ।फिर इसका बहना रूकता नही।अर्थात सब्र यदि एक बार भीतर पैदा हो जाए तो यह निरन्तर बढता रहता है, फिर किसी प्रकार की रूकावट इस के लिए बाधा नही बनती।अर्थात परमात्मा और जीव की दूरी निरन्तर कम होती चली जाती है।
7 टिप्पणियाँ:
बाली जी फरीद के श्लोक और उनकी इतनी सुन्दर व्याख्या पढ़ कर मन गद गद हो गया...बहुत बहुत शुक्रिया आपका...
नीरज
umda.......atisundar
हार्दिक आभार।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
वाह!! बहुत आभार इस व्याख्या का!
सुन्दर श्लोकों से ही नहीं बल्कि तर्कसंगत व्याख्या से भी दिल जीत लिया, बधाई.
चन्द्र मोहन गुप्त
baba fareed ki rachna sirf padhne ki nahin balki peene aur jeene ka amrit hai.................aapne yah amrit hamen pilaya
_____________aap dhnya hain
badhaai !
श्लोक और उनकी व्याख्या पढ़कर अच्छा लगा, धन्यवाद!
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