कबीर सूखु न ऐह जुगि,करहि जु बहुतै मीत॥
जो चितु राखहि एक सिउ,ते सुखु पावहि नीत॥२१॥
कबीर जी कहते है कि इस मनुष्य जन्म मे सुख कहीं भी नही है।भले ही हम अपने परिवार को बड़ा कर ले। मित्रों की संख्या को बड़ा ले।यदि किसी को सुख चाहिए तो उसे उस परमात्मा से संबध जोड़न ही पड़ेगा।तभी हम वास्तविक सुख पा सकेगें।
इस श्लोक मे कबीर जी बता रहे हैं कि इस संसार मे दुख ही दुख है। कुछ लोग ऐसा सोचते हैं कि यदि हमारा परिवार, मित्रादि अधिक होगे तो हम सुखी हो सकते हैं।लेकिन कबीर जी कहते है कि इस मे भी सुख प्राप्त नही होता।सभी रिश्ते नाते स्वार्थ के कारण ही बनते हैं, जिन से अंतत: दुख ही मिलता है। लेकिन एक परमात्मा का रिश्ता ही ऐसा है जो स्वार्थ रहित है। अत: उस परमात्मा से जुड़ने पर ही हम निरन्तर सुख को पा सकते हैं।
कबीर जिसु मरने ते जगु डरै,मेरे मनि आनंदु॥
मरने ही ते पाईऐ, पूरनु परमानंदु॥२२॥
कबीर जी इस श्लोक मे अपने विषय मे कह रहे हैं कि ये संसार एक ही भय से सबसे ज्यादा भयभीत होता है। वह है मौत का भय। लेकिन मुझे यह मौत आनंददायॊ मालुम होती है।क्योकि मरने के बाद ही उस पूर्ण परमानंद को पाया जा सकता है। जिस को पाने के बाद फिर कोई इच्छा शेष नही रह जाती।
कबीर जी कहना चाहते है कि हम दो तरह से मरते हैं। एक तो भौतिक शरीर के नष्ट होने पर और दुसरा अपने अंहकार के मरने पर। इन दोनों तरह की मौत से ही संसारी आदमी सदा भयभीत रहता है। जिस कारण वह उस आनंद को नही पा सकता जिसे पाने के बाद और किसी प्रकार का आनंद पाने की इच्छा नही रहती।लेकिन कबीर जी कहते है कि यदि उस परमानंद को पाना है तो जीते जी मरना तो पड़ेगा ।अर्थात अंहकार के मरने के बाद ही उसे परमानंद को पाया जा सकता है। अंहकार के मरने के बाद मृत्युभय भी नष्ट हो जाता है।वास्तव मे हमारे भय का मूल कारण यह अंहकार ही होता है। कबीर जी यही बात हमे बार बार समझाना चाह रहे हैं।
जो चितु राखहि एक सिउ,ते सुखु पावहि नीत॥२१॥
कबीर जी कहते है कि इस मनुष्य जन्म मे सुख कहीं भी नही है।भले ही हम अपने परिवार को बड़ा कर ले। मित्रों की संख्या को बड़ा ले।यदि किसी को सुख चाहिए तो उसे उस परमात्मा से संबध जोड़न ही पड़ेगा।तभी हम वास्तविक सुख पा सकेगें।
इस श्लोक मे कबीर जी बता रहे हैं कि इस संसार मे दुख ही दुख है। कुछ लोग ऐसा सोचते हैं कि यदि हमारा परिवार, मित्रादि अधिक होगे तो हम सुखी हो सकते हैं।लेकिन कबीर जी कहते है कि इस मे भी सुख प्राप्त नही होता।सभी रिश्ते नाते स्वार्थ के कारण ही बनते हैं, जिन से अंतत: दुख ही मिलता है। लेकिन एक परमात्मा का रिश्ता ही ऐसा है जो स्वार्थ रहित है। अत: उस परमात्मा से जुड़ने पर ही हम निरन्तर सुख को पा सकते हैं।
कबीर जिसु मरने ते जगु डरै,मेरे मनि आनंदु॥
मरने ही ते पाईऐ, पूरनु परमानंदु॥२२॥
कबीर जी इस श्लोक मे अपने विषय मे कह रहे हैं कि ये संसार एक ही भय से सबसे ज्यादा भयभीत होता है। वह है मौत का भय। लेकिन मुझे यह मौत आनंददायॊ मालुम होती है।क्योकि मरने के बाद ही उस पूर्ण परमानंद को पाया जा सकता है। जिस को पाने के बाद फिर कोई इच्छा शेष नही रह जाती।
कबीर जी कहना चाहते है कि हम दो तरह से मरते हैं। एक तो भौतिक शरीर के नष्ट होने पर और दुसरा अपने अंहकार के मरने पर। इन दोनों तरह की मौत से ही संसारी आदमी सदा भयभीत रहता है। जिस कारण वह उस आनंद को नही पा सकता जिसे पाने के बाद और किसी प्रकार का आनंद पाने की इच्छा नही रहती।लेकिन कबीर जी कहते है कि यदि उस परमानंद को पाना है तो जीते जी मरना तो पड़ेगा ।अर्थात अंहकार के मरने के बाद ही उसे परमानंद को पाया जा सकता है। अंहकार के मरने के बाद मृत्युभय भी नष्ट हो जाता है।वास्तव मे हमारे भय का मूल कारण यह अंहकार ही होता है। कबीर जी यही बात हमे बार बार समझाना चाह रहे हैं।
3 टिप्पणियाँ:
होली की सतरंगी शुभकामनायें
आभार इस पोस्ट का!!
ये रंग भरा त्यौहार, चलो हम होली खेलें
प्रीत की बहे बयार, चलो हम होली खेलें.
पाले जितने द्वेष, चलो उनको बिसरा दें,
खुशी की हो बौछार,चलो हम होली खेलें.
आप एवं आपके परिवार को होली मुबारक.
-समीर लाल ’समीर’
बहुत अच्छी व्याख्या। धन्यवाद। होली की हार्दिक शुभकामनायें
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