सोमवार, 29 मार्च 2010

कबीर के श्लोक - १५



कबीर मरता मरता जगु मुआ, मरि भी न जानिआ कोइ॥
ऐसे मरने जे मरै, बहुरि न मरना होइ॥२९॥

कबीर जी कहते है कि यह संसार निरन्तर मृत्यु का ग्रास बनता जा रहा है,लेकिन यह सब देख कर भी हम मौत को भुलाए बैठे रहते हैं। यदि हम इसी तरह मरते है तो हमारे बार बार मरने पर भी हमे होश नही आने वाला।

कबीर जी यहाँ दो तरह से मरने की बात हमे समझाना चाहते हैं। इस श्लोक मे वह हमे ऐसे लोगो की बात कह रहे हैं जो वस्तुत: अपने मरने को सदा भुले रहते हैं और अंतत: अपने आखिरी समय मे भी दुनियावी माया मे उलझे हुए ही इस संसार से विदा हो जाते हैं।इस तरह से मरने को मरना नही कहा जा सकता। क्योकि प्रत्यक्ष रूप मे यह मृत्यु तो दिखती है लेकिन अंतत: कामनाओ मे रमे रहने के कारण हमे बार बार इस जनम मरण के चक्कर मे पड़े ही रहना पड़ता है।


कबीर मरता मरता जगु मुआ, मरि भी न जानिआ कोइ॥
ऐसे मरने जो मरै, बहुरि न मरना होइ॥३०॥

कबीर जी का यह श्लोक दो बार लिखा गया है लेकिन दोनो बार इसके अर्थ भिन्न हैं। यहाँ कबीर जी कहते है कि यह सारा संसार मरते मरते मृत्यु का घर बन चुका है।लेकिन मरने पर भी हम मौत को नही जान पाते।यदि हम यह जान ले कि मत्यु क्या है तो हमे बार बार मरना नही पड़ता।

इस श्लोक मे कबीर जी हमे कहना चाहते हैं कि जो लोग जीते जी अपने आप को उस परमात्मा मे समाहित कर लेते है, उसका साक्षात्कार कर लेते हैं।वे लोग मृत्यु के रहस्य को जान लेते हैं।इस तरह से मरने पर हम बार बार नही मरते।वास्तव मे कबीर जी के यह विचार स्वानुभव पर आधारित हैं।जब तक हम इस बात का अनुभव ना कर ले तब तक हम इस बात को समझने मे असमर्थ ही रहेगे।

सोमवार, 22 मार्च 2010

कबीर के श्लोक - १४



कबीर ऐह तनु जाइगा, सकहु त लेहु बहोरि॥
नांगे पावहु ते गऐ , जिन के लाख करोरि॥२७॥

कबीर जी कहते है कि ये शरीर निश्चय ही नष्ट हो जाएगा।यदि किसी को यकीन नही है तो वह प्रयत्न कर के देख ले। इस शरीर को नष्ट होने से कभी बचाया नही जा सकता।कबीर जी कहते है कि चाहे कोई कितनी भी धन दौलत का मालिक हो, उन्हें अंत मे नंगे पाँव ही यहाँ से जाना पड़ता है।

कबीर जी हमे बार बार यही समझना चाहते हैं कि ये संसार नाशवान है। इस से कोई नही बच सकता।एक दिन सभी को सभी कुछ यही छोड़ कर खाली हाथ यहाँ से जाना ही पड़ता है।कबीर जी व परमात्मा से एकाकार हुए लोग हमे यह बात बार-बार इस लिए बताते रहते हैं क्योकि संसारी माया इतनी प्रबल है कि हम इस बात को भुले ही रहते हैं कि एक दिन हमे इस संसार को छोड़ कर जाना ही है। हमारे इस शरीर ने नष्ट हो ही जाना है। इस दुनिया से अंत मे हमे खाली हाथ ही जाना है। लेकिन हम इस बात को भुल कर दुनियावी प्रलोभनों की प्राप्ती के लिए सदा प्रयत्नशील रहते हैं।

कबीर ऐह तनु जाइगा, कवनै मारगि लाइ॥
कै संगति करि साध की, कै हरि के गुन गाइ॥२८॥

कबीर जी फिर से कह रहे हैं कि यह शरीर तो निश्चय ही नष्ट हो जाएगा। इस लिए क्या तुम जानते हो इसे किस काम मे लगाना चाहिए ? फिर स्वंय ही कहते है कि या तो साधु की संगत कर लेनी चाहिए या फिर उस परमात्मा की भक्ति मे लग जाना चाहिए।
 कबीर जी कहना चाहते हैं कि इस नाशवान शरीर का उपयोग हमे बहुत सोच समझ कर करना चाहिए। क्योकि एक ओर तो हमारे सामने दुनियावी राग-रंग है। जो सुख का आभास तो हमे कराते है लेकिन अंतत: वे दुख ही देते हैं। वही दुसरी ओर उस प्रभु की भक्ति है, उस के प्यारो की साध संगत है। अत: हमे इसी को चुनना चाहिए।

सोमवार, 15 मार्च 2010

कबीर के श्लोक - १३

कबीर प्रीति इक सिउ कीऐ, आन दुबिधा जाइ॥
भावै लांबे केस करु, भावै घररि मुडाइ॥२५॥


कबीर जी कहते है कि जब तक उस एक परमात्मा से हमारा संबध नही बन जाता, तब तक संसारी परेशानीयों से, मान अपमान से,नही बचा जा सकता। किसी मजहब या मान्यता का दिखावा मात्र कर लेने से उस परमात्मा की कृपा नही मिल जाती।

इस श्लोक मे कबीर जी उन लोगो के बारे मे कहना चाहते है कि जो लोग लम्बी जटाए या केस रख कर या मुडंन करा कर यह दिखाने की कोशिश करते है कि वे परमात्मा की शरण मे जा चुके हैं। वे साधु महात्मा है। ऐसे लोगो का विरोध करते हुए कबीर जी कह रहे है कि जब तक उस एक परमात्मा से संबध ना जुड़ जाए तब तक कोई संसारी परेशानियों से,दुखो से, छुटकारा नही पा सकता।जैसे बहुत से लोग ऐसा वेश बना कर जंगल आश्रमो मे जा कर बैठ जाते हैं लेकिन वहाँ भी वे लोग सुखी नही हो पाते।क्योकि बिना मन को बदले बिना उस परमात्मा से जुड़े परेशानीयों चिंताओ से मुक्त नही हुआ जा सकता।इसी लिए कबी जी कहते है की यदि इन सभी परेशानियो से मुक्ति चाहता है तो उस एक परमात्मा के साथ प्रीत कर। इन परेशानियो से बचने का यही एक रास्ता है।

कबीर जगु काजल की कोठरी, अंध परे तिस माहि॥
हउ बलिहारी तिन कउ, पैसि जु नीकसि जाहि॥२६॥


कबीर जी कहते है कि यह संसार एक काजल की कोठरी के समान है जिस मे अंधे लोग फँस जाते है। क्योकि उन्हें इस कोठरी की कालिमा दिखाई नही पड़ती।मै तो उन के बलिहारी जाता हूँ जो इस काजल की कोठरी से बाहर निकल जाते हैं।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि यह संसार विषय विकारों से,प्रलोभनों से भरा पड़ा है। इस मे वे अंधे लोग गिर जाते है जिन के पास प्रभु नाम की ज्योति नही है। लेकिन इन से भी ज्यादा वे लोग धन्य हैं जो इस मोह माया में फँसने के बाद भी उस प्रभु का सहारा ले कर बाहर आ जाते हैं। वास्तव मे संसारी सुखो को भोगने के बाद त्यागना बहुत कठिन होता है। इन्हे इंसान तभी छोड़ता है जब या तो यह उस की पहुँच से बाहर हो जाए या वह इन संसारी सुखो की निस्सारता को पहचान ले। यह पहचान तभी हो पाती है जब वह उस परमात्मा से संबध जोड़ लेता है।

सोमवार, 8 मार्च 2010

कबीर के श्लोक - १२


राम पदारथु पाइ कै, कबीरा गांठि न खोल॥
नही पटणु नही पारखू , नही गाहकु नही मोलु॥२३॥


कबीर जी कहते है कि जिसने उस परमात्मा को पा लिया है, उस परमात्मा की कृपा पा ली है। उसे इस बारे मे दुसरो से नही कहना चाहिए।क्योकि ऐसा कोई बाजार नही है जहाँ कोई इस राम पदार्थ को परख सके और ना ही ऐसा कोई खरीदार है जो इस का सही मोल आंक सके।

इस श्लोक मे कबीर जी कहना चाहते हैं कि जिसे उस परमात्मा की कृपा प्राप्त हो जाती है उसे इस की चर्चा दुसरो के सामने नही करनी चाहिए। क्योकि ऐसे मे वही तुम्हारी बात को समझ सकता है जिसने तुम्हारी तरह उस प्रभु की कृपा पाई हो।यदि तुम किसी ऐसे व्यक्ति के सामने इस की चर्चा करते हो ,जिस को उस प्रभु की कभी झलक तक ना मिली हो। तो ऐसा व्यक्ति तुम्हारी बात समझ ही नही पाएगा। अर्थात कबीर जी कहना चाहते है कि सुपात्र के सामने ही चर्चा करनी चाहिए। कुपात्र के सामने की गई चर्चा व्यर्थ ही जाती है।वास्तव में प्रभु की कृपा भीतर के आनंद और अनुभव की बात है। जिसे कहीं भी प्रमाणित नही किया जा सकता।इसे वही समझ सकता है जिसने तुम्हारी तरह उस प्रभु कृपा को पा लिया हो।

कबीर ता सिउ प्रीति करि, जा के ठाकुरु रामु॥
पंडित राजे भूपती, आवहि कउनै काम॥२४॥


कबीर जी कह रहे है कि हमे ऐसे लोगो के साथ ही प्रीती बढ़ानी चाहिए जो परमात्मा को ही अपना सब कुछ मानते हैं। पंडितो से या बड़े बड़े पदाधिकारीयों से या भुमि के स्वामीयों अर्थात धनी लोगो से संबध बनाने का कोई लाभ नही है। यह किसी  प्रकार से तुम्हारे काम आने वाले नही है।

कबीर जी कहना चाहते है कि जिन्होनें उस परमात्मा को अपना सब कुछ मान लिया है,उन्हे फिर किसी की क्या जरूरत ?पंडित लोगो के पास शब्द अर्थात शाब्दिक ज्ञान तो हैं लेकिन उस परमात्मा का कोई अनुभव नही है। राजे लोगों के पास पद तो हैं, लेकिन ये पद भी दुनियावी हैं और धनी लोगों के पास धन तो है,लेकिन उस धन से प्रभु कृपा को नही पाया जा सकता। अर्थात कबीर जी कहना चाहते है कि दुनिया के सभी कार-विहार सुख पाने के लिए आनंद पाने के लिए ही किए जाते है। यदि कोई उस परमानंद को ही अपना स्वामी बना ले,जो सभी को सुख और आनंद को देने वाला है तो फिर ये पंडित,राजे और भूपति हमारे कि्सी  काम नही आ सकते हैं। इस लिए हमे उसी परमात्मा से प्रीत करनी चाहिए।

सोमवार, 1 मार्च 2010

कबीर के श्लोक - ११


कबीर सूखु न ऐह जुगि,करहि जु बहुतै मीत॥
जो चितु राखहि एक सिउ,ते सुखु पावहि नीत॥२१॥

कबीर जी कहते है कि इस मनुष्य जन्म मे सुख कहीं भी नही है।भले ही हम अपने परिवार को बड़ा कर ले। मित्रों की संख्या को बड़ा ले।यदि किसी को सुख चाहिए तो उसे उस परमात्मा से संबध जोड़न ही पड़ेगा।तभी हम वास्तविक सुख पा सकेगें।

इस श्लोक मे कबीर जी बता रहे हैं कि इस संसार मे दुख ही दुख है। कुछ लोग ऐसा सोचते हैं कि यदि हमारा परिवार, मित्रादि अधिक होगे तो हम सुखी हो सकते हैं।लेकिन कबीर जी कहते है कि इस मे भी सुख प्राप्त नही होता।सभी रिश्ते नाते स्वार्थ के कारण ही बनते हैं, जिन से अंतत: दुख ही मिलता है। लेकिन एक परमात्मा का रिश्ता ही ऐसा है जो स्वार्थ रहित है। अत: उस परमात्मा से जुड़ने पर ही हम निरन्तर सुख को पा सकते हैं।

कबीर जिसु मरने ते जगु डरै,मेरे मनि आनंदु॥
मरने ही ते पाईऐ, पूरनु परमानंदु॥२२॥

कबीर जी इस श्लोक मे अपने विषय मे कह रहे हैं कि ये संसार एक ही भय से सबसे ज्यादा भयभीत होता है। वह है मौत का भय। लेकिन मुझे यह मौत आनंददायॊ मालुम होती है।क्योकि मरने के बाद ही उस पूर्ण परमानंद को पाया जा सकता है। जिस को पाने के बाद फिर कोई इच्छा शेष नही रह जाती।

कबीर जी कहना चाहते है कि हम दो तरह से मरते हैं। एक तो भौतिक शरीर के नष्ट होने पर और दुसरा अपने अंहकार के मरने पर। इन दोनों तरह की मौत से ही संसारी आदमी सदा भयभीत रहता है। जिस कारण वह उस आनंद को नही पा सकता जिसे पाने के बाद और किसी प्रकार का आनंद पाने की इच्छा नही रहती।लेकिन कबीर जी कहते है कि यदि उस परमानंद को पाना है तो जीते जी मरना तो पड़ेगा ।अर्थात अंहकार के मरने के बाद ही उसे परमानंद को पाया जा सकता है। अंहकार के मरने के बाद मृत्युभय भी नष्ट हो जाता है।वास्तव मे हमारे भय का मूल कारण यह अंहकार ही होता है। कबीर जी यही बात हमे बार बार समझाना चाह रहे हैं।