गुरुवार, 8 अप्रैल 2010

कबीर के श्लोक -१६

कबीरा तुही कबीर तू ,तेरो नाऊ कबीरु॥
राम रतनु तब पाईऐ,जऊ पहले तजहि सरीरु॥३१॥


कबीर जी इस श्लोक मे कहते है कि तू ही सब से बड़ा है और सर्वत्र तू ही है। तेरा नाम ही कबीर है अर्थात भगत और भगवान मे कोई भेद नही है।लेकिन यह भेद तभी मिटता जब हम इस शरीर का मोह छोड़ देते है।तभी हमे उस परमात्मा की पहचान हो पाती है अर्थात राम रूपी रतन को पाया जा सकता है।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि हम अपने शरीर के मोह के कारण ही उस से दूर रहते है। शरीर के मोह के कारण ही हम विषय विकारो से ग्रस्त होते हैं। लेकिन शरीर का होते हुए भी नकारना आसान नही होता। इसे तभी नकारा जा सकता है जब हम उस परमात्मा के नाम मे पूरी तरह डूब जाएं। अर्थात कबीर जी अपने अनुभव को बताते हुए हमे समझा रहे हैं कि वह परमात्मा सब से बड़ा है और उस का नाम बी उसी की तरह सबसे बड़ा है। यदि इस राम रूपी रतन को तुझे पाना है तो पहले इस शरीर का मोह छोड़ना होगा। तभी तुझे राम रूपी रतन की प्राप्ती होगी।


कबीर झंखु न झंखीऐ, तुमरो कहिउ न होइ॥
करम करीम जु करि रहे, मेटि न साकै कोइ॥३२॥


कबीर जी पहले कहे गए श्लोक को और अधिक स्पष्ट करते हुए कहते है कि मोह ग्रस्त होने के कारण हम हमेशा उस परमात्मा से शिकायते ही करते रहते हैं कि उसने हमे वह नही दिया जो हमे मिलना चाहिए था। लेकिन कबीर जी कहते है कि तुम्हारे कहे अनुसार तो कुछ हो ही नही रहा और ना कभी होना ही है। होता तो वही है जो कृपालु परमात्मा कर रहा है। उस के किए कामों को कोई बदल नही सकता।

कबीर जी कहना चाहते है कि यदि हमे उस राम रतन को पाना है तो सबसे पहले यह शिकायत करनी छोड़नी पड़ेगी। क्योकि किसी को प्रार्थना और निवेदन करने की जरूरत ही नही है। वह कृपालु परमात्मा तो हमारी जरूरतो के अनुसार ही सब कुछ कर रहे हैं, सभी कुछ हमे देते रहते हैं। अर्थात कबीर जी के कहने का भाव यह है कि हमे उसकी रजा मे ही रहना चाहिए, तभी इस शरीर का मोह छूटगा। जब शरीर का मोह छूटगा तो उस राम रतन रूपी पारस को पाने के हम अधिकारी हो जाएगे।नही तो व्यर्थ ही उस से शिकायते करते रह जाएगें। जबकि सभी जानते है कि उस परमात्मा के कीए को कोई बदल नही सकता।


2 टिप्पणियाँ:

Udan Tashtari ने कहा…

बहुत आभार आपका.

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) ने कहा…

bahut badhiya lagaa yahaan aakar.....badi shaanti mili....

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