कबीर मनु निरमलु भईआ, जैसा गंगा नीरु॥
पाछै लागो हरि फिरै, कहत कबीर कबीर॥५५॥
कबीर जी कह्ते है कि जब मन गंगा के पानी के समान निर्मल हो जाता है तो तुम परमात्मा के पीछे जाओ इसकी बजाय निर्मल मन होने पर परमात्मा तुम्हारे पीछे तुम्हे तलाशता हुआ पहुँच जाता है।स्वाभाविक रूप से तो हम सभी का मन जब हम संसार मे आते हैं तो निर्मल ही होता है।लेकिन जैसे जैसे हम बड़े होते जाते हैं हमारे मन मे विकारों का जन्म होने लगता है।जिस कारण मन कलुषित हो जाता है।इसी लिए कबीर जी कह रहे हैं कि यदि हमारा मन निर्मल हो अर्थात वैसा ही हो जैसा प्रकृति द्वारा हमे दिया गया था। तो ऐसे मे परमात्मा के साथ स्वाभाविक रुप से हमारा मन एकाकार हो जाता है।
कबीर जी समझाना चाहते है कि बाहरी परिवर्तन की अपेक्षा भीतरी परिवर्तन करने से ही परमात्मा की समीपता को पाया जा सकता है। जिस तरह दो समान गुण धर्म वाली वस्तुएं स्वत:आपस मे मिल कर एक ही हो जाती है। उसी तरह हमारे मन के निर्मल हो जाने से परमात्मा भी हमारी ओर आकर्षित हो कर हमे अपने मे समाहित कर लेता है। अर्थात कबीर जी हमे समझाना चाहते है यदि हमे परमात्मा को पाना है तो हमे उसी के समान गुण धर्म का होना होगा। तब हमे उस से एकाकार होने के लिए कोई कोशिश नही करनी पड़ेगी। बल्कि यह स्वत: ही हो जाएगा।
कबीर हरदी पीआरी, चूंनां ऊजल भाइ॥
राम सनेही तऊ मिलै, दोनउ बरन गवाइ॥५६॥
कबीर जी कहते हैं कि हल्दी पीले रंग की होती है और चूना सफेद रंग का होता है। लेकिन जब ये दोनो परस्पर मिलते है तो दोनो ही अपना अपना रंग छोड़ देते हैं और किसी तीसरे रंग मे नजर आने लगते हैं।
कबीर जी कहना चाहते है कि जिस प्रकार हल्दी और चूना अर्थात अलग अलग वर्ण और जाति के लोग जो कि उस राम के प्रेम में डूबे हुए हो यदि परस्पर मिलते हैं जो दोनों ही अपनी जाति,वर्ण का अभिमान भुल कर एक नये रंग में रंगे हुए आपस मे मिलते हैं। जैसे हल्दी और चूना आपस मे मिलने पर तीसरा रंग धारण कर लेते हैं। अर्थात कबीर जी कहना चाहते है कि राम से प्रेम करने वालो को सभी मे राम के ही दर्शन होने लगते हैं।
पाछै लागो हरि फिरै, कहत कबीर कबीर॥५५॥
कबीर जी कह्ते है कि जब मन गंगा के पानी के समान निर्मल हो जाता है तो तुम परमात्मा के पीछे जाओ इसकी बजाय निर्मल मन होने पर परमात्मा तुम्हारे पीछे तुम्हे तलाशता हुआ पहुँच जाता है।स्वाभाविक रूप से तो हम सभी का मन जब हम संसार मे आते हैं तो निर्मल ही होता है।लेकिन जैसे जैसे हम बड़े होते जाते हैं हमारे मन मे विकारों का जन्म होने लगता है।जिस कारण मन कलुषित हो जाता है।इसी लिए कबीर जी कह रहे हैं कि यदि हमारा मन निर्मल हो अर्थात वैसा ही हो जैसा प्रकृति द्वारा हमे दिया गया था। तो ऐसे मे परमात्मा के साथ स्वाभाविक रुप से हमारा मन एकाकार हो जाता है।
कबीर जी समझाना चाहते है कि बाहरी परिवर्तन की अपेक्षा भीतरी परिवर्तन करने से ही परमात्मा की समीपता को पाया जा सकता है। जिस तरह दो समान गुण धर्म वाली वस्तुएं स्वत:आपस मे मिल कर एक ही हो जाती है। उसी तरह हमारे मन के निर्मल हो जाने से परमात्मा भी हमारी ओर आकर्षित हो कर हमे अपने मे समाहित कर लेता है। अर्थात कबीर जी हमे समझाना चाहते है यदि हमे परमात्मा को पाना है तो हमे उसी के समान गुण धर्म का होना होगा। तब हमे उस से एकाकार होने के लिए कोई कोशिश नही करनी पड़ेगी। बल्कि यह स्वत: ही हो जाएगा।
कबीर हरदी पीआरी, चूंनां ऊजल भाइ॥
राम सनेही तऊ मिलै, दोनउ बरन गवाइ॥५६॥
कबीर जी कहते हैं कि हल्दी पीले रंग की होती है और चूना सफेद रंग का होता है। लेकिन जब ये दोनो परस्पर मिलते है तो दोनो ही अपना अपना रंग छोड़ देते हैं और किसी तीसरे रंग मे नजर आने लगते हैं।
कबीर जी कहना चाहते है कि जिस प्रकार हल्दी और चूना अर्थात अलग अलग वर्ण और जाति के लोग जो कि उस राम के प्रेम में डूबे हुए हो यदि परस्पर मिलते हैं जो दोनों ही अपनी जाति,वर्ण का अभिमान भुल कर एक नये रंग में रंगे हुए आपस मे मिलते हैं। जैसे हल्दी और चूना आपस मे मिलने पर तीसरा रंग धारण कर लेते हैं। अर्थात कबीर जी कहना चाहते है कि राम से प्रेम करने वालो को सभी मे राम के ही दर्शन होने लगते हैं।
2 टिप्पणियाँ:
बहुत सुन्दर विचार । काश कि सब पालन कर सकें ।
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