रविवार, 21 नवंबर 2010

कबीर के श्लोक -४६

कबीर एक मरंते दुइ मूऐ, दोइ मरंतह चारि॥
चारि मरंतह छ्ह मूऐ, चारि पुरख दुइ नारि॥९१॥


कबीर जी इस श्लोक मे कुछ रहस्यमय बातों की ओर इशारा कर रहे है जिन्हे वही समझ सकता है जो सत्य से साक्षात्कार कर चुका है। कबीर जी कहते हैं कि एक के मरने पर दो मर जाते हैं और दो के मरने पर चार मर जाते हैं और इन चारों के मरने पर छे मर जाते हैं जिन मे चार पुरूष और दो नारीयां हैं।

कबीर जी कहना चाहते है कि वह कौन है जिस एक के मरने पर दो मर जाते हैं ? वह क्या है जिन दो के मरने पर चार मर जाते हैं और वह क्या है जिन चार के मरने पर छे मर जाते हैं । जिन मे चार पुरूष है और दो स्त्रीयां। इस श्लोक का वास्तविक अर्थ यहां नही दिया जा रहा ।   कबीर जी ने भी इस रहस्य को प्रकट नही किया। क्योंकि हम लोग किसी भी अर्थ को याद कर लेते है और फिर मानने लगते है कि हम इस के ज्ञाता है। इस तरह हमारी आध्यात्मिक यात्रा वही अटक जाती है। इस रहस्य को जानने के लिए  भीतर की यात्रा करके जानने की कोशिश करनी पड़ेगी।

कबीर देखि देखि जग ढूंढिआ, कहू ना पाइआ ठउरु॥
जिनि हरि का नामु ना चेतिउ, कहा भुलाने अऊरु॥९२॥


कबीर जी कहते हैं कि सब जगह देख देख कर हम इस संसार में ऐसी जगह ढूंढना चाहते है जहां हमें ठौर मिल सके। लेकिन हमे ऐसी कोई जगह कहीं नही मिलती। क्योंकि जो जीव उस परमात्मा के नाम का ध्यान नही करता, वह भटकता ही रह जाता है।

कबीर जी इस श्लोक मे हमे कहना चाहते हैं कि जब तक हम बाहर ही शांती की तलाश करते रहेगें हमे शांती कभी नही मिल सकती। हमे वह ठिकाना कभी नही मिल सकता,जहाँ पर हमारा मन टिक जाए। अर्थात यह मन अपनी भाग-दोड़ को छोड़ दे। कबीर जी कहना चाहते है कि यह तभी संभव हो सकता है जब हम बाहर की बजाय अपने भीतर उस शांती उस परमानंद को खोजें। क्योकिं कि वह परमात्मा का नाम ही हमे वहाँ तक ले जा सकता है, इस लिए उसे भूलकर हम सिर्फ भटक ही सकते हैं।

2 टिप्पणियाँ:

daanish ने कहा…

विचारणीय आलेख
अच्छी प्रस्तुति...
ज्ञानवाणी की तरह शुद्ध और सशक्त .

Anita ने कहा…

बहुत सुंदर वाणी है कबीर की , आभार!

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