कबीर रोड़ा हुआ त किआ भैआ पंथी कौ दुखु देइ॥
ऐसा तेरा दासु है जिउ धरती महि खेह॥१४७॥
कबीर जी पिछले श्लोक की बात को आगे बढ़ाते हुए कहते है कि पत्थर की तरह एक जगह पड़े रहने से भी क्या होगा। क्योकि उसमे भी कठोरता का एक दोष होता है ,वह भी उन लोगो के पैरों मे तकलीफ देता है जो नंगे पैर होते हैं। इस लिये मै तो चरणों पर पड़ी धूल हो जाऊँ। तभी तेरा दास कहला सकूँगा।
कबीर जी कहना चाहते हैं कि हमारा स्वाभाव ऐसा होना चाहिए कि जैसे चरण धूल होती है।जो हमारे पैरों के नीचे रहती है।अर्थात हमारा मन इतना अंहकार रहित होना चाहिए।तभी हम उस परमात्मा की भक्ति को पाने के हकदार हो सकते हैं।
कबीर खेह हुई तौ किआ भैआ जौ उड लागै अंग॥
हरि जन ऐसा चाहिऐ जिउ पानी सरबंग॥१४८॥
कबीर जी आगे कहते हैं कि धूल होने से भी कुछ नही होने वाला। क्योकि धूल मे भी एक दोष होता है,वह भी उड़ कर आँखों में पड़ सकती है। जिस से दूसरों को कष्ट पहुँच सकता है।इस लिये प्रभू भक्त तो ऐसा होना चाहिए जैसा पानी होता है। क्योंकि पानी वैसा ही हो जाता है, पात्र होता है।
कबीर जी यहाँ प्रभू भक्ति के लिये हमारे मन को कैसा पात्र बनना चाहिए,यही बात समझाना चाह रहे हैं।कबीर जी धूल से भी ज्यादा विनम्र होने के लिये कह रहे हैं। इसी लिये वे अपने आप को पानी जैसा होने की बात कह रहे है। क्योकि पानी अपने आप को वैसा ही ढाल लेता है जैसा पात्र होता है।
ऐसा तेरा दासु है जिउ धरती महि खेह॥१४७॥
कबीर जी पिछले श्लोक की बात को आगे बढ़ाते हुए कहते है कि पत्थर की तरह एक जगह पड़े रहने से भी क्या होगा। क्योकि उसमे भी कठोरता का एक दोष होता है ,वह भी उन लोगो के पैरों मे तकलीफ देता है जो नंगे पैर होते हैं। इस लिये मै तो चरणों पर पड़ी धूल हो जाऊँ। तभी तेरा दास कहला सकूँगा।
कबीर जी कहना चाहते हैं कि हमारा स्वाभाव ऐसा होना चाहिए कि जैसे चरण धूल होती है।जो हमारे पैरों के नीचे रहती है।अर्थात हमारा मन इतना अंहकार रहित होना चाहिए।तभी हम उस परमात्मा की भक्ति को पाने के हकदार हो सकते हैं।
कबीर खेह हुई तौ किआ भैआ जौ उड लागै अंग॥
हरि जन ऐसा चाहिऐ जिउ पानी सरबंग॥१४८॥
कबीर जी आगे कहते हैं कि धूल होने से भी कुछ नही होने वाला। क्योकि धूल मे भी एक दोष होता है,वह भी उड़ कर आँखों में पड़ सकती है। जिस से दूसरों को कष्ट पहुँच सकता है।इस लिये प्रभू भक्त तो ऐसा होना चाहिए जैसा पानी होता है। क्योंकि पानी वैसा ही हो जाता है, पात्र होता है।
कबीर जी यहाँ प्रभू भक्ति के लिये हमारे मन को कैसा पात्र बनना चाहिए,यही बात समझाना चाह रहे हैं।कबीर जी धूल से भी ज्यादा विनम्र होने के लिये कह रहे हैं। इसी लिये वे अपने आप को पानी जैसा होने की बात कह रहे है। क्योकि पानी अपने आप को वैसा ही ढाल लेता है जैसा पात्र होता है।
2 टिप्पणियाँ:
कबीर की पंक्तियों में अद्भुत जीवन दर्शन ...!!
abhar ..is prayas ke liye.
कबीर की वाणी में जीवन का सार छिपा है...
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