गुरुवार, 14 जुलाई 2011

कबीर के श्लोक - ७७

कबीर जैसी ऊपजी पेड ते , जऊ तैसी निबहै ओड़ि॥
हीरा किस का बापुरा  , पुजहि न रतन करोड़ि॥१५३॥

कबीर जी कहते है कि जिस प्रकार नये उगे पौधे मे कोमलता होती है, यदि ऐसी ही कोमलता सदा बनी रहे तो वह एक हीरे की तरह ही नही बल्कि करोड़ों रत्नों की कीमत से भी ज्यादा है।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि जिस प्रकार नये उगे पौधे में कोमलता होती है यदि मनुष्य में भी वही कोमलता सदा एक-सी बनी रहे तो वह बहुत अमुल्य होगी।अर्थात जिस प्रकार बालक का मन होता है यदि हमारा मन उसी तरह सदा निष्कपट व निश्छल बना रहे तो उस परमात्मा को सहज ही पाया जा सकता है।इसी लिये कबीर जी इस स्वभाव को अमुल्य बता रहे हैं।

कबीर ऐक अचंभौ देखिउ , हीरा हाट बिकाइ॥
बरजनहारे बाहरा , कऊडी बदलै जाइ॥१५४॥

कबीर जी कहते हैं कि मुझे एक आचंभा दिख रहा है कि एक कीमती हीरा बाजार मे बेचा जा रहा है।क्यूकि किसी को भी इस हीरे की कीमत का पता नही है इस लिये यह कौडीयों के भाव बिक रहा है।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि हमारा यह मनुष्य का जन्म बहुत अमुल्य है। लेकिन हम इस बात के महत्व को समझ नही रहे हैं और इसी लिये इस जीवन को बेकार की बातों ,बेकार के कामों में लगाये हुए हैं। हमे यह जो हीरे जैसा जन्म मिला है उसे व्यर्थ ही गवा रहे हैं।इसी लिये कबीर जी कह रहे हैं कि यह हीरा कौडी के भाव जा रहा है।

5 टिप्पणियाँ:

Yashwant R. B. Mathur ने कहा…

कबीर के हर दोहे की अपनी अलग महत्ता है और हर दोहा अपने में घन अर्थों को समते हुए है.
आपने जो दोहे दिये और उनकी व्याख्या दी उसके लिये बहुत बहुत धन्यवाद.


सादर

Yashwant R. B. Mathur ने कहा…

त्रुटि सुधर-कृपया उपरोक्त टिप्पणी में घन को गहन पढ़ें.

सादर

Anupama Tripathi ने कहा…

आपकी किसी पोस्ट की चर्चा शनिवार (१६-०७-११)को नयी-पुरानी हलचल पर होगी |कृपया आयें और अपने विचार दें |आभार.

सदा ने कहा…

वाह ...बहुत ही अच्‍छी प्रस्‍तुति ।

Rajeysha ने कहा…

हमारे पास कबीर के सारे दोहे हैं, उनके अर्थ भी हमें पता हैं, फि‍र भी हम नहीं बदलते, पता नहीं क्‍यों ???

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