बुधवार, 16 नवंबर 2011

कबीर के श्लोक - ८९

कबीर भली भई जो भऊ परिआ,दिसा गई सभ भूलि॥
उरा गरि पानी भईआ, जाइ मिलिउ डलि कूलि॥१७७॥


कबीर जी कहते हैं कि जब जीव को भय महसूस होता है तब हम सब कुछ भूल जाते हैं अर्थात भयभीत जीव को कोई रास्ता नही सूझता अर्थात परमात्मा से दूर होने पर कोई ठौर नजर नही आती। उसी तरह बारिश की बूँदें ओलों का रूप धारण कर धरती मे समाने के जगह इधर उधर लुड़कता नजर आती हैं।लेकिन तपिश मिलने पर फिर पानी बन धरती मे समा जाती है।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि जब जीव के अंदर ये भय पैदा होता है कि परमात्मा से दूर होने पर माया के कारण जीव को दुख ही भोगना पड़ेगा।तब जीव अपनी ओले जैसी मन की कठोरता को परमात्मा रूपी तपिश से सही रास्ते पर आना ही पड़ता है।

कबीर धूरि सकेलि कै, परिआ बांधी देह॥
दिवस चारि को पोखना, अंति खेह की खेह॥१७८॥


कबीर जी आगे कहते हैं कि सब जानते है कि मिट्टी से ही सारी बस्ती बनी है और इसी तरह पँच तत्व से ये जीव का शरीर बना हुआ है जो देखने मे सुन्दर लगता है लेकिन एक दिन ये जिस मिट्टी से बना है उसी मे मिल जाना है।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि शरीर ने तो फिर मिट्टी मे मिल जाना है तब क्यों नही सही रास्ते पर ही चला जाए अर्थात उस परमात्मा की कृपा प्राप्त की जाये।

2 टिप्पणियाँ:

Anita ने कहा…

बहुत सुंदर भाव!

Pallavi saxena ने कहा…

कबीर वाणी मुझे भी बहुत पसंद है उनके दोहों को यहाँ प्रस्तुत करने के लिए आपका आभार...

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