शुक्रवार, 16 दिसंबर 2011

कबीर के श्लोक - ९२

कबीर चोट सुहेली सेल की.लागत इ उसास॥
चोट सहारे सबद कीतासु गुरु मैं दास॥१८३॥



कबीर जी कहते हैं कि यदि गुरु द्वारा कोई चोट दी जाती है तो वह जीव के लिये बहुत सुखद होती है। ऐसा जीव जो गुरू द्वारा दी गई चोटें खानें को राजी होता है ऐसे जीव का दास होना भी मुझे स्वीकार है।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि ऐसा जी जो गुरु द्वारा दिये आदेश का प्रेम पूर्वक पालन करता है ऐसा जीव उस परमात्मा की कृपा पाने का अधिकारी हो जाता है। इस लिये ऐसे जीव परमात्मा को प्राप्त हुए जीव का मैं दास होना बी मुझे स्वीकार है।अर्थात प्रभु भक्त जीव सदा पूजनीय होता है।

कबीर मुलां मुनारे किआ चडहि सांई न बहरा होइ॥
जा कारनि तूं बांग देहि.दिल ही भीतर जोइ॥१८४॥

कबीर जी इस दोहे में दिखावे के प्रति संकेत करते हुए कह रहे हैं कि ये जो मस्जिद के मुनारे पर चड कर मुल्ला खुदा को जोर-जोर से पुकार रहा है इस से ऐसा लगता है कि खुदा ऊँचा सुनता है।लेकिन वह नही जानता कि वह जिसे पुकार रहा है वह खुदा तो तेरे दिल के भीतर रहता है।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि परमात्मा को तभी हम पुकारते हैं जब हम ऐसा मानते हैं कि वह बाहर है। लेकिन जीव को अगर पता लग जाये कि वह जिसे पुकार रहा है वह तो उसके भीतर ही है तो उसकी यह पुकार बाहर की बजाय भीतर की ओर उठेगी ।इस लिये कबीर जी कहते हैं कि उसे अपने दिल के अंदर ही तलाश करों।



0 टिप्पणियाँ:

एक टिप्पणी भेजें

कृपया अपनें विचार भी बताएं।