शुक्रवार, 27 अप्रैल 2012

कबीर के श्लोक - १०३


कबीर बिकारह चितवते झूठे करते आस॥
मनोरथु कोइ न पूरिउ चाले ऊठि निरास॥२०५॥

कबीर जी कहते हैं कि जो लोग भौतिक पदार्थो को पाने की लालसा से उस परमात्मा का चिन्तन करते हैं वे झूठी आशा मे ही जीते रहते हैं। क्योकि कोई भी संसारिक मनोरथ या कामना पूरी हो जाने के बाद भी तृप्त नही करती।इस लिये अंत मे निराशा ही हाथ लगती है।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि एक परमात्मा के सिवा जब जीव अन्य पदार्थो की कामना लेकर परमात्मा की शरण मे जाता है तो भले ही उस को वह पदार्थ मिल जाते हैं लेकिन उसे संतोष प्राप्त नही होता। किसी भी कार्य के पूरा हो जाने से भी मन में यदि तृपति नही होती वह अधूरा ही रहता है ।अर्थात कबीर जी कहना चाहते हैं कि संसार मे एक परमात्मा के सिवा किसी भी मनोरथ से कभी भी पूर्ण तृपति नही मिल सकती।

कबीर हरि का सिमरनु जो करै, सो सुखीआ संसारि॥
इत कतहि न डोलई जिस राखै सिरजनहार॥२०६॥

कबीर जी आगे कहते हैं कि इस लिये पदार्थो का चिन्तन न करके उस परमात्मा का ही चिन्तन करना चाहिए। तभी स्थाई सुख की प्राप्ती हो सकती है और जीव संसार मे सुखी रह सकता है। क्योकि जब जीव परमात्मा की शरण मे चले जाता है तो उस का भटकाव समाप्त हो जाता है।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि यदि किसी को  सुख चाहिए चाहिए तो वह भौतिक पदार्थो से नही बल्कि परमात्मा की भक्ति करने से ही मिलेगा। क्योकि भौतिक पदार्थो भले ही हमे कितने भी मिल जाये। लेकिन उन्हे और पाने की लालसा हमेशा बनी ही रहती हैं ।जबकि एक बार परमात्मा की शरण मे जाने से मन मे ठहराव आ जाता है और मन का ठहराव ही सुख प्रदान करता है।



2 टिप्पणियाँ:

Anita ने कहा…

सच्चा सुख एक उसी से मिल सकता है संसार चाहे कितना भी मिल जाये छूटने ही वाला है सत्य वचन !

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

शायद आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा आज बुधवार के चर्चा मंच पर भी हो!
सूचनार्थ

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