बुधवार, 10 अक्तूबर 2012

कबीर के श्लोक - ११४

कबीर आखी केरे माटुके, पलु पलु गई बिहाइ॥
मनु जंजाल न छोडई, जम दीआ दमामा आइ॥२२७॥

कबीर जी कहते हैं कि जीव पलक झपकने जितनी देर भी उस परमात्मा को याद नही करता और इसी तरह उसका जीवन बीत जाता है और वह संसारिक मोह माया में ही रमा रहता है। उसे होश तब आता है जब यमराज आ कर उसे मौत की खबर देता है।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि हम संसारिक कामों मे इतना रम जाते है कि हमें उस परमात्मा का कभी ध्यान ही नही आता।हम इन्ही जंजालो मे उलझे रहते हैं और हमारि मृत्यू का समय आ जाता है।कबीर जी यहाँ हमे होश में जीने का संकेत देना चाहते  हैं ताकि जीव जीवन का सदुपयोग कर सके।

कबीर तरवर रूपी रामु है , फल रूपी वैराग॥ 
छाइआ रूपी साधु है, जिन तजिआ बा्दु बिबादु ॥२२८॥

कबीर जी आगे कहते हैं कि हम संसारिक मोह माया में ही ना रमे रहे और यह जान ले कि राम का नाम एक वृक्ष के समान गुणकारी है जिस पर वैराग रूपी फल लगता है और इस वृक्ष की छाया साधु रूपी है जिस के कारण हम संसारिक वाद-विवादों की उलझनों से निजात पा जाते हैं।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि संसारिक मोह माया को तोड़ने के लिये परमात्मा का आसरा लेना चाहिए। जिसका नाम का ध्यान करने से हमारे भीतर वैराग का जन्म होता है और जीव का मन साधु के स्वाभाव की तरह हो जाता है जो कभी भी व्यर्थ की बातों मे नही उलझता।अर्थात कबीर जी यहाँ हमारी मोह निद्रा को तोड़ने का रास्ता सुझा रहे हैं।ताकि हम सही रास्ते पर चल सके।

2 टिप्पणियाँ:

देवेंद्र ने कहा…

अति सार्थक।परमजीत जी कबीरजी के श्रेष्ठ कथनों से अवगत कराने हेतु आभार।

vikram singh ने कहा…

Ye jo aap gyan ka parkash fela rahe h wah kafi kabile tarif ha

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