गुरुवार, 22 नवंबर 2007

ईश्वर की प्राप्ती कैसे हो?

इंसान सदा परमात्मा को बाहर खोजता रहता है। इसी बात को सिखों के नौवें गुरू,गरू तेग बहादुर जी ने इस शबद के जरीए अपनें श्रदालुओं को उपदेश देते हुए यह यह सबद लिखा।यह सबद "गुरू ग्रंथ साहिब" से लिया गया है।



शबद

काहे रे बन खोजन जाई॥

सरब निवासी सदा अलेपा,तोही संग समाई॥

पुहुप मध्य जो बास बसत है,मुकर माहीं जैसे छा।ई॥

तैसे ही हरि बसे निरन्तर, घट ही खोजों भाई॥

बाहर भीतर ऐको जानहु,एहि गुरू गियान बताई॥

जन नानक आपा बिन चीन्हें,मिटै ना भरम की काई॥




अर्थ-गुरू जी कहते है कि तुम परमात्मा को खोजनें बनों,जंगलों मे क्यों जा रहे हो। वह परमात्मा तो सभी जगह मौजूद है और सदा से तेरे साथ ही रहता है। अर्थात तेरे भीतर समाया हुआ है। जिस प्रकार फूलों में उस की खुशबू और सीसे में छाया समाई रहती है। उसी तरह परमात्मा तेरे अंदर बसा हुआ है। उसे तू अपनें भीतर ही तलाश कर भाई। बाहर और भीतर जो कुछ भी है उसे एह ही जान अर्थात बाहर और भीतर वही समाया हुआ है,ऐसा जान ले। यह भेद गुरू बताता है। गुरू तेग बहादुर जी कहते हैं-हे भाई! बिना अपनें को जानें तू इस भरम रूपी काई को अर्थात बिना अपनें को जानें कि मैं कौन हूँ उस परमात्मा को नही जान सकता।

1 टिप्पणियाँ:

Sanjay Gulati Musafir ने कहा…

यही सार है, जिसे समझ आ जाए।

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