जगत में झूठी देखी प्रीत॥
अपने ही सुख स्यों सब लागे,क्या दारा क्या मीत॥
मेरौं-मेरौं सभै कहत है,हित स्यौं बांधियों चीत॥
अंन्तकाल संगी नही कोई,एह अचरज है रीत॥
मन मूरख अजहू नही समझत,सिख दे हारियो नीत॥
नानक भव जल पार परै,जो गावै प्रभ के गीत॥
अर्थ-गुरू जी कहते है कि इस जगत में जो भी संबध हैं वह सभी झूठे हैं। क्योकि वह सभी स्वार्थ के कारण बनें हैं।जब तक आप लाभ देते रहेगें...सुख देते रहेगें तभी तक वह टिके रहेगें। चाहे वह संबध आप की पत्नी के साथ हो या किसी अपने मित्र के साथ हो। सभी अपने संबधों को लेकर यह मेरा बेटा है...यह मेरा भाई है...अर्थात उसे बिल्कुल अपना मान लेते हैं। जबकि यह सारे सबंध मात्र स्वार्थ के कारण ही जुडे़हुए हैं।इस का पता हमें उस समय लगता है जब हमारा अंतिम समय यानी कि मृत्यू जब हमारे सिर पर आ कर खड़ी हो जाती है,तभी इस बात का आभास होता है कि मैं जिसे अपना मान रहा था वह इस समय मेरी कोई सहायता नही कर सकता। गुरू जी कहते हैं कि बहुत अजीब बात है जिन्हें हम अपना मानने का भरम पाले रहते हैं,वह अम्तिम समय में किसी काम की नही निकलती। लेकिन हमारा मन बहुत मूरख है,यह सब आए दिन हमारे सामने होता रहता है,लेकिल हम इससे कोई सीख नही लेते।अंत मे गुरू जी कह रहे हैं कि वही इंसान इस भवजल यानि कि संसारिक दुखों से निजात पाता है,बधंनों से छूटता है जो उस परम पिता परमात्मा के गीतों को गाता है।अर्थात उस प्रभू का ध्यान करता है।
0 टिप्पणियाँ:
एक टिप्पणी भेजें
कृपया अपनें विचार भी बताएं।