फरीदा अखी देखि पतीणीआं,सुणि सुणि रीणे कंन॥
साख पंकदी आया,होर करेंदी वंन॥११॥
फरीदा कांली जिनी ना राविआ धउली रावै कोई॥
करि सांई सिउ पिरहणी,रंगु नवेला होई॥१२॥
फरीद जी ने जो पीछले श्लोकों में कहा है उसी बा्त को आगे ले जाते हुए कहते हैं कि हमरी आँखें भी इस दुनिया के रंग तमाशे देख-देख कर उकता जाती हैं और कान भी सुन-सुन कर बहरे हो जाते हैं।अर्थात इस दुनिया में सभी तो अपना-अपना स्वार्थ साधनें मे लगे हुए हैं।हम कुछ भी बोलते रहे लेकिन लोग तो वही सुनते हैं जो उन के मतलब का होता है।बाकी का तो सुन कर अनसुना ही कर देते हैं।इसी तरह उन्हें वही कुछ दिखाई देता है जो उन के मन के अनुसार उन्हें भाता है।बाकी जो सच को उजागर कर सकता है वे उसे देखते ही नही।
हमारा इस तरह का आचरण ही हमे बेकार के कामों मे मजबूती प्रदान करता चलता है।अर्थात बुढापे में कान और आँखें ही नही हमारा शारीर भी कमजोर हो चुका है।क्यूँकि हम जीवन भर जो भी करते रहते हैं हमे उस की ही आदत पड़ जाती है।
आगे फरीद जी कहते हैं कि जब हम जवानी में उस परमात्मा को याद नही करते तो बुढापे में उसे कैसे याद करेगें|अर्थात जब हमारे सर के बाल काले थे यानी जब हम जवान थे और हम कुछ भी करनें में समर्थ थे यदि उस समय हम इस सही रास्ते पर नही चल सके तो अब जब हमारे बाल सफेद पड़ चुके हैं,शरीर का हरेक अंग कमजोर हो चुका है ऐसे में हम उस रास्ते पर कैसे चलेगें।अर्थात कोई बिरला ही उस पर चल पाता है।लेकिन फरीद जी कह्ते है कि वह परमात्मा तो सदा नया ही बना रहता है इस लिए यदि तू अभी भी उस परमात्मा की भक्ति में डूब जाए तो फिर से तू जवान हो सकता है।अर्थात आनंदित हो सकता है।
फरीद के श्लोक-४
2 टिप्पणियाँ:
बहुत ही सुन्दर
धन्यवाद
bahut achchi batein.
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