फरीदा रोटी मेरी काठ की,लावणु मेरी भुख॥
जिना खाधी चोपड़ी,घणे सहनिगे दुख॥२८॥
रुखी सुखी खाइ कै,ठंडा पाणी पीओ॥
फरीदा देखि पराई चौपड़ी,ना तरसाओ जीओ॥२९॥
अजु ना सुती कंत सिउ,अंग मुड़े मुड़ि जाइ॥
जाइ पुछो ढोहागणी,तुम क्युँ रैणि विहाइ॥३०॥
फरीद जी कहते है कि मै तो काठ की रोटी खाता हूँ जिस से मेरी भूख शांत हो जाती है।जो लोग चुपडी व स्वादिष्ट भोजन करते हैं वह हमेशा दुख ही सहते रहते हैं।अर्थात जो लोग मेहनत की कमाई की रोटी खाते हैं वही शांती पा सकते हैं।उन्ही की भूख शान्त हो सकती है।लेकिन जो लोग मुफ्त का माल खाते हैं भले ही वह कितना ही स्वादी हो,ऐसा भोग करने वाले अन्तत: दुख ही भोगते हैं।असल में फरीद जी यह कह रहे हैं कि ईश्वर भक्ति करते समय इन्सान को चाहिए कि वह अपनी मेहनत की कमाई ही खाए।इस से उस का मन प्रभु भक्ति में आसानी से लग जाता है।जब की मुफ्त का माल खा कर मन स्थिर नही रह पाता।
इस लिए अपनी मेहनत से जो भी रूखी-सूखी कमाई रोटी है तू उसी को खा के तृप्त हो सकता है। अत: फरीद जी कहते हैं कि दुसरों को अच्छा व सुस्वादिष्ट भोग करते देख कर अपने मन को भटकाना मत।क्यूँकि मन का स्वाभाव होता है कि वह हमेशा अधिक पाना चहाता है।यह लालसा मनुष्य को प्रभु से दूर कर देती है।
फरीद जी कहते हैं कि यह देखने मे आता है कि जो लोग प्रभु से कुछ देर के लिए भी दूर हो जाए वह दुखों से घिरनें लगते हैं।लेकिन उन लोगो का क्या हाल होता होगा जो कभी उस को याद ही नही करते।अर्थात जो लोग अपनी मेहनत से कमा कर खाते हैं उन के मन मे संतोष पैदा हो जाता है। तथा संतोषी आदमी ही उस प्रभु का मन लगा कर ध्यान कर पाता है।लेकिन जो लोग छल कपट से कमाई करते हैं और दुनिया के सारे भोगो को भोगते है। उन को देखने से तो यही लगता है कि वह सारे सुख भोग रहे हैं लेकिन वास्तव में असंतोष के कारण उन का मन हमेशा भटकता ही रहाता है।जिस कारण वह हमेशा तृष्णा की आग मे जलते रहते हैं और दुखी रहते है।ऐसा आदमी कभी भी उस प्रभु की कृपा नही पा सकता।
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