बुधवार, 11 मार्च 2009

फरीद के श्लोक - २४

महला५॥

फरीदा खालकु खलक महि, खलक वसै रब माहि॥
मंदा किस नो आखीऐ, जां तिसु बिनु कोई नाहि॥७५॥

फरीदा जि दिहि नाला कपिआ,जे गलु कपहि चुख॥
पवनि न इतीं मामले, सहां न इती दुख॥७६॥

चबण चलण रतंन,से सुणीअर बहि गऎ॥
हेड़े मुती धाह, से जानी चलि गऎ॥७७॥

यह श्लोक वास्तव में गुरु अर्जुन देव जी ने फरीद जी की बात को ओर अधिक स्पस्ट
करने के लिए यहाँ दिए है।फरीद जी कहते है कि यह जो दुनिया है इसी में वह दुनिया
को बनानें वाला भी समाया हुआ है और यह जो सारी सृष्टि है वह उस परमात्मा के
भीतर ही वास कर रही है।ऐसे में जब सभी परमात्मा स्वरूप ही है तो ऐसे में किसी
को बुरा कैसे कहा जा सकता है?जब यह समझ आ जाती है कि उस परमात्मा के बिना दूसरा
कोई है ही नही।क्यूँ कि बुरा और भला हमें तभी तक नजर आते हैं जब तक हमें किसी
दूसरे के होने का एहसास होता है।७० से ७४ तक के श्लोकों में जो बातें कही गईं हैं,कहीं
कोई यह ना मान ले कि फरीद जी किसी की बुराई कर रहें हैं।उपरोक्त बातें उन लोगों के लिए
कही गई है जो उस परमात्मा को भूले रहते हैं।उस परमात्मा से बहुत दूरी बनाए रखते हैं।

आगे फरीद जी कहते हैं कि जिस दिन हम पैदा होते हैं उस समय दाई हमारी नाल काट कर
माँ से हमें अलग करती है।यदि उसी समय हमारी नाल काटने के साथ ही हमारा गला भी जरा
काट दिया होता,तो कितना अच्छा होता।तब हम छोटे बड़े,अच्छे बुरे आदि के भाव मे नही पड़्ते।
हमें संसारी दुख ना सहनें पड़ते।अर्थात फरीद जी कहना चाहते है कि जिस प्रकार हमारे जन्म के
समय हमारी नाल काटी जाती है,उस समय यदी हमारे अंहकार का गला भी काट दिया जाता
तो हम दुखों से बच जाते।क्युकि यह अंहकार ही हमे दूसरों से अलग करता है।इस अंहकार के कारण ही
हमारे मन में छोटे-बड़े अच्छे बुरे का भाव पैदा होता है।जिस कारण हम दुखी होते हैं।

फरीद जी आगे कहते हैं कि हमारे मन में जिन कारणों से यह तुलनात्मक भाव आते हैं वह हैं
चबाना,चलना,रतन और सुनना।अर्थात दाँत, पैर,आँखें और कान।जब तक यह शक्तिशाली
बने रहते हैं तब तक तो हम इन के रस में डूबे रहते हैं लेकिन जब यह क्षीण होनें लगते है तो
हमें दुख घेरनें लगते हैं।अर्थात फरीद जी कहना चाहते हैं कि दाँत अर्थात हमारी शक्ति,पैर अर्थात
हमारे किए गए काम,जैसे हम चल कर रास्ता तय करते हैं और सदा सब से आगे रहना चाहते हैं।
रतन अर्थात धन संम्पदा,कान अर्थात अपनी प्रशंसा,मान सम्मान का भाव।इन्हीं सब कारणों से
हम अपने को दूसरों से अलग करते हैं।जिस से हमारे भीतर अंहकार पैदा होता है। और यह
अंहकार ही दुख का एक मात्र कारण है।

3 टिप्पणियाँ:

Pt. D.K. Sharma "Vatsa" ने कहा…

बहुत बढिया.......सचमुच अहंकार से बढकर इन्सान का कोई भी शत्रु नहीं.
होली के पावन पर्व पर आपको सपरिवार हार्दिक शुभकामनाऎं...

BrijmohanShrivastava ने कहा…

काम क्रोध मद लोभ सब ,नाथ नरक के पंथ

डॉ. मनोज मिश्र ने कहा…

सत्य बचन जी

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