मंगलवार, 31 मार्च 2009

फरीद के श्लोक - २६


फरीदा मै जानिआ दुखु मुझ कू, दुखु सबाइऎ जगि॥
ऊचे चड़ि कै देखिआ, ता घरि घरि ऐहा अगि॥८१॥

फरीदा भूमि रंगावली,मंझि विसूला भाग॥
जो जन पीरि निवाजिआ, तिंना अंच न लाग॥८२॥

फरीदा उमर सुहावड़ी,संगि सुवंनड़ी देह॥
विरले केई पाईअनि,जिंना पिआरे नेह॥८३॥

फरीद जी कहते है कि मै तो समझता था कि मैं ही सबसे ज्यादा दुखी हूँ।लेकिन मेरा यह सोचना गलत था।क्युँकि
यहाँ तो सारा संसार ही दुखों को भोग रहा है।जब मैने ध्यान से देखा कि देखूँ कोई सुखी भी यहाँ है? तो मैने
पाया कि यह दुख की आग तो हरेक घर में लगी हुई है।अर्थात फरीद जी कहना चाहते हैं कि इस संसार मे दुख के सिवा कुछ भी नजर नही आता है।हरेक को किसी ना किसी दुख ने पकड़ा हुआ है।यहाँ सभी दुखी हैं।

अगले श्लोक में गुरु अर्जुन देव जी,फरीद जी की विचार का उत्तर देते हुए कहते हैं कि फरीद यह सच है कि यह संसार
बहुत सारे रंगों से रंगा हुआ है और इन रंगों के बीच में ही विष छुपा हुआ है जो सभी को दुखी करता है।लेकिन फिर भी ऐसा देखने मे आया है कि जिस पर प्रभु कृपा कर देता है अर्थात जो प्रभु की शरण मे चले जाते हैं।उन्हें यह आग अपने ताप से नुकसान नही पहुँचा पाती।

अगले श्लोक मे गुरु अर्जुन देव जी कहते है कि फरीद जी यह जो जीवन इन्सान को मिला है और यह जो इन्सान को सुन्दर देह मिली है ,यह अपने आप ही नही मिल गई। अर्जुन देव जी कहते हैं कि यह सरीर तो किसी विरले को तभी मिलता है जब परमात्मा का प्रेम उस पर बरसता है।अर्थात यह जो शरीर हमें मिला यह बहुत अमुल्य है।इस लिए जो समय और शरीर हमे मिला है उसका लाभ उठाना चाहिए।

3 टिप्पणियाँ:

Prem Farukhabadi ने कहा…

prerana dayak lekh achchha laga .badhaai.

अभिषेक आर्जव ने कहा…

"दुनिया में इतना गम है.....मेरा गम सबसे कम है ......!"

vikram singh ने कहा…


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