फरीदा दुनी वजाई वजदी तूं भी वजरि नालि॥
सोई जीउ न वजदा जिसु अलरु करदा सार॥११०॥
फरीदा दिल रता इसु दुनी सिउ दुनी न कितै कंमि॥
मिसल फकीरां गाखड़ी सु पाईऐ पुर करंमि॥१११॥
पहले पहरै फुलड़ा, फलु भी पछा राति॥
जो जागंनि,लहंनि से,साई कंने दाति॥११२॥
दाती साहिब संदीआ,किआ चलै तिसु नालि॥
इकि जागंदे ना लहनि,इकना सुतिआ देइ उठालि॥११३॥
फरीद जी की बात को ही आगे बढाते हुए गुरु अर्जुनदेव जी कहते है कि यह जो दुनिया है यह एक साज़ की तरह हैं,इस को माया अपने ढंग से बजा रही है और हम सब को भी वही माया साज़ के रूप में ही बजा रही है।सिर्फ वही इस माया से मुक्त रह पाता है जिस पर माया की कृपा होती है।अर्थात गुरु जी कहते है कि सारे जगत को माया ने अपनें आधीन कर रखा है, हम सभी उस माया के वश में रह कर ही अपने सारे कारविहार करते हैं।लेकिन यदि हम उस परमात्मा की मौजूदगी को पहचान ले तो यह माया हमें नही नचा सकती।हम सभी तो तभी तक माया के हाथों में नाचते है जब तक हम उस परमात्मा की मौजूदगी को नही जान पाते।
गुरू जी आगे कहते है कि हम उस परमात्मा की मौजूदगी को पहचान नही पाते ,इसी लिए दुनियादारी में लगे रहते हैं अर्थात माया मे उलझे रहते हैं।लेकिन यदि हम फकीरों की तरह रहनें लगे,तो हम परमात्मा को भी पा सकेगें और दुनियावी झंझटों से मुक्त हो कर सही रास्ता अपना सकेगें।अर्थात गुरु जी कहना चाहते हैं कि हम दुनीया के मोह माया के वश मे हो कर,विषय विकारॊं मे पढ़ जाते है जिस कारण हम उस परमात्मा को भूल जाते हैं ।लेलिन अगर हम फकीरो की भाँति हो जाएं अर्थात अपनी सारी चिन्ताएं प्रभु पर छोड़ कर निष्काम भाव से अपने कार्य करते रहें तो हम इन कर्मों के साथ नही बंधेगें।जब हम कर्मों के साथ नही बंधेगे तो हम उस परमात्मा को भी जान सकेगें।उसे जानने के बाद किए गए हमारे सारे कर्म,उस परमात्मा के निकट ले जानें में सहायक होगें।
अगले श्लोक में फरीद जी कहते है कि पहला पहर फूल के समान खिला हुआ होता है।लेकिन यह सब पिछ्ली रात के फलस्वरूप ही फलित होता है।क्युँकि जो लोग जाग चुके हैं वही उस परमात्मा की कृपा के पात्र बनते हैं।अर्थात जब कोई इन्सान,प्रभु का प्यारा उस परमात्मा की बंदगी करता है तो वह पहला पहर होता है,जिस में वह बंदगी करता है वह फूल की तरह महकने लगता हैं। अर्थात उस पर प्रभु की कृपा बरसनें लगती है और यह जो प्राप्ती है यह बीते समय में की हुई उस प्रभु की बंदगी के कारण फल के रूप में उसे प्राप्त होती है।क्युंकि जागृत पुरूष अर्थात प्रभु से एकाकर हुआ भक्त ही प्रभु की दी गई कृपा का आनंद उठा पाता है।
अगले श्लोक में फरीद जी की बात को स्पष्ट करते हुए गुरू नानक दे्व जी कहते हैं कि यह जो प्रभु की कृपा प्राप्त होती है, ऐसे समय में कुछ लोग यह समझने लगते हैं कि यह जो प्रभु की कृपा है यह उन्हें उनकी बंदगी करनें के फलस्वरूप प्राप्त होती है। तब कुछ लोग जो जागे हुए तो नही होते,लेकिन अपने किए गए धार्मिक कर्म कांडों को करते हुए संयोग से प्राप्त सुख को प्रभु की कृपा मान लेते हैं।वही दूसरी ओर ऐसे लोग भी हैं जो माया मॆ पड़े हुए होते हैं लेकिन वे माया की निस्सारता,व्यर्थता को जान कर उस प्रभु की कपा के पात्र बन जाते हैं।अर्थात गुरू जी कहना चाहते है कि हमारे किये से कुछ भी नही होता,यह सब तो प्रभु की कृपा से ही हम उस की बंदगी कर पाते हैं,यदि ऐसा ना होता तो हम जो बंदगी करते हैं,उस के फलस्वरूप जो प्रभु कृपा हमें प्राप्त होती है,उसे हम अपने किए कर्म का फल मानने लगेगें।जिस कारण हमारे अदंर द्वैत की भावना पैदा हो सकती है।इस लिए गुरू जी कहते है
ऐसे भक्त जागते हुए भी सोये हुओं के समान हैं।वही दूसरी ओर ऐसे लोग भी हैं जो माया में लीन रहते हुए माया की व्यर्थता को जान लेते हैं ,इस कारण वह सोये हुए भी जाग जाते है। अर्थात उस प्रभु के निकट हो जाते हैं।उस की कपा के पात्र बन जाते हैं।
6 टिप्पणियाँ:
अच्छी रचना है ऐसी जानकारी बहुत मुश्किल से मिलती है......
आपका प्रयास स्तुत्य है, क्या मुझे बाबा फरीद की रचनाएं, देवनगारी में अर्थ सहित पढने को मिल सकती हैं? मेरे पास एक किताब है लेकिन वो उर्दू में है, जो पाकिस्तान में दोस्तों ने भेंट की थी.
बाबा फरीद के सुवचनों से परिचित कराने के लिए आभार।
परमजीत जी..आजकल धर्म के नाम पर एक अजीब सी बहस पढने देखने को मिल रही है..ऐसे में बाबा फरीद की रचनाओं से परिचय ने दिल को बहुत शान्ति पहुंचाई..धन्यवाद.
बहुत ही सुंदर विचार.
धन्यवाद
बहुत ही पवित्र एवं रूह को सुकून देने वाले विचार।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
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