कबीर जिह मारगि पंडित गए, पाचै परी बहीर॥
इक अवघट घाटी राम की, तिह चड़ि रहिउ कबीर॥१६५॥
कबीर जी कहते हैं कि कि पंडित लोग जिस मार्ग पर ले जा रहे हैं भीड़ उधर ही चली जा रही है।क्योकि पंडितो का मार्ग कर्म-कांड पर अधारित होता है जिसे कोई भी धन दे कर अपने लिये करवा सकता है।लेकिन कबीर जी कहते हैं कि परमात्मा का रास्ता तो ऊँचाई की ओर चड़ने जैसे है जिस के लिये यत्न करना पड़ता है।कबीर जी कहते हैं कि मैं तो इसी मार्ग पर चल रहा हूँ।
कबीर जी हमे समझाना चाहते हैं कि पंडितो द्वारा सुझाये गये परमात्मा प्राप्ती के मार्ग पंडितो के निहित स्वार्थों की पूर्ति पर आधारित ही होते हैं।।उन मार्गों को चल कर कुछ मिलता तो है नही, बल्कि उन मार्गों पर चलने के कारण साधक व्यर्थ के कर्म-कांडों में उलझ कर रह जाता है और अपना जीवन व्यर्थ ही गँवा देता है। अर्थात कबीर जी कहना चाहते हैं कि यदि आपके मन मे परमात्मा की चाह है तो आप को उसे पाने के लिये स्वयं ही यत्न करना पड़ेगा। कोई दूसरा तुम्हे वहाँ तक नही ले जा सकता।
कबीर दुनिआ के दोखे मूआ, चालत कुल की कानि॥
तब कुलु किसका लाजसी, जब ले धरहि मसानि॥
कबीर जी आगे कहते हैं कि जो लोग लोकाचार के बधंन मे बंध कर लोक व्यवाहर मे पडे रहते हैं ऐसे लोग अंतत: डूब जाते हैं। अर्थात मर जाते हैं। कबीर जी आगे कहते हैं कि ऐसे लोकाचार या कुल का क्या फायदा जिस को अपनाने से हमारी आध्यात्मिक मौत हो जाती है। और हम मसान में पहुँच जाते हैं।
कबीर जी हमे समझाना चाहते हैं कि हम अपने कुल की मर्यादा अनुसार रिति रिवाजों के अनुसार ही चलते रह जाते हैं और पंडितो के कहे अनुसार कर्म- कांड कर के अपने धार्मिक कार्यो की इति श्री मान लेते हैं। जब कि इस से हमारे जीवन मे कोई बदलाव नही आता। इस तरह इस रास्ते पर चल कर हम आध्यात्मिक मौत मर जाते हैं और अंतत: मुक्ति आनंद की बजाय संसारिक बधंनो मे ही बंधे हुए अपना जीवन गँवा लेते हैं।
इक अवघट घाटी राम की, तिह चड़ि रहिउ कबीर॥१६५॥
कबीर जी कहते हैं कि कि पंडित लोग जिस मार्ग पर ले जा रहे हैं भीड़ उधर ही चली जा रही है।क्योकि पंडितो का मार्ग कर्म-कांड पर अधारित होता है जिसे कोई भी धन दे कर अपने लिये करवा सकता है।लेकिन कबीर जी कहते हैं कि परमात्मा का रास्ता तो ऊँचाई की ओर चड़ने जैसे है जिस के लिये यत्न करना पड़ता है।कबीर जी कहते हैं कि मैं तो इसी मार्ग पर चल रहा हूँ।
कबीर जी हमे समझाना चाहते हैं कि पंडितो द्वारा सुझाये गये परमात्मा प्राप्ती के मार्ग पंडितो के निहित स्वार्थों की पूर्ति पर आधारित ही होते हैं।।उन मार्गों को चल कर कुछ मिलता तो है नही, बल्कि उन मार्गों पर चलने के कारण साधक व्यर्थ के कर्म-कांडों में उलझ कर रह जाता है और अपना जीवन व्यर्थ ही गँवा देता है। अर्थात कबीर जी कहना चाहते हैं कि यदि आपके मन मे परमात्मा की चाह है तो आप को उसे पाने के लिये स्वयं ही यत्न करना पड़ेगा। कोई दूसरा तुम्हे वहाँ तक नही ले जा सकता।
कबीर दुनिआ के दोखे मूआ, चालत कुल की कानि॥
तब कुलु किसका लाजसी, जब ले धरहि मसानि॥
कबीर जी आगे कहते हैं कि जो लोग लोकाचार के बधंन मे बंध कर लोक व्यवाहर मे पडे रहते हैं ऐसे लोग अंतत: डूब जाते हैं। अर्थात मर जाते हैं। कबीर जी आगे कहते हैं कि ऐसे लोकाचार या कुल का क्या फायदा जिस को अपनाने से हमारी आध्यात्मिक मौत हो जाती है। और हम मसान में पहुँच जाते हैं।
कबीर जी हमे समझाना चाहते हैं कि हम अपने कुल की मर्यादा अनुसार रिति रिवाजों के अनुसार ही चलते रह जाते हैं और पंडितो के कहे अनुसार कर्म- कांड कर के अपने धार्मिक कार्यो की इति श्री मान लेते हैं। जब कि इस से हमारे जीवन मे कोई बदलाव नही आता। इस तरह इस रास्ते पर चल कर हम आध्यात्मिक मौत मर जाते हैं और अंतत: मुक्ति आनंद की बजाय संसारिक बधंनो मे ही बंधे हुए अपना जीवन गँवा लेते हैं।
2 टिप्पणियाँ:
कबीर जी के दोहे अच्छे लगे धन्यवाद|
कबीर कितना सही कहते हैं, पंडितों के कहने पर जो कर्मकांड हम बिना श्रद्धा के करते हैं वे व्यर्थ है हैं... श्रद्धा से चढाया एक फूल भी उनसे बढकर है...
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