शनिवार, 24 दिसंबर 2011

कबीर के श्लोक - ९३



सेख सबूरी बाहरा.किआ हज काबे जाऐ॥
कबीर जा की दिल साबति नही ता कौ कहाँ खुदाऐ ॥१८५॥

कबीर जी कहते हैं कि मुल्लाजी  यदि आपके भीतर संतोष नही है तो हज करने के लिये जाना बेकार है।क्योकिं जिस का दिल शांत नही होता उस ह्रदय में परमात्मा का वास नही होता। अर्थात जब तक भीतर कोई तृष्णा रहती है चाह रहती है तब तक परमात्मा की प्राप्ती नही सो सकती।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि यदि हमारे भीतर उथल-पुथल मची हुई है या हजारों तरह की ख्वाहिशें मौजूद हैं तो ऐसी स्थिति में उस परमात्मा को नही पाया जा सकता है।क्योकि जब तक हमारे भीतर कोई भी दूसरी ख्वाहिश मौजूद रहती है हमारा मन भटकाव मे ही रहता है। ऐसे में दिखावे के लिये भले ही हम कोई भी धार्मिक कृत्य करते रहे उस लक्ष्य की प्राप्ती हमे नही हो सकती।वह तभी हो सकती है जब हम भीतर से शांत हो और हमारी एक ही चाह हो।


कबीर अलह की करि बंदगी. जिह सिमरत दुख  जाऐ॥
दिल महि सांई परगटै बुझै बलंती नांऐ॥१८६॥

कबीर जी आगे कहते हैं कि इस लिये हमें सबसे पहले उस परमात्मा की बंदगी करनी चाहिए ताकि हमारे भीतर के दुख कलेशों का निवारण हो सके और हमारे भीतर उस परम पिता परमात्मा की चाह पैदा हो जिस से हमें उस की मौजूदगी अपने भीतर महसूस हो सके। तभी हमारे भीतर मोह माया की आग बुझ सकेगी।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि परमात्मा तो हमारे भीतर पहले से ही मौजूद है इस लिये जब हम उसका ध्यान करके उसमें लीन होने लगते हैं तो हमारे विषय-विकार नष्ट होने लगते हैं। विषय- विकारों के शांत होने पर ही हमारे मन मे शांती आती है। उसी के बाद हम उस परमात्मा की मौजूदगी को महसूस कर पाते हैं।



2 टिप्पणियाँ:

Smart Indian ने कहा…

संत कबीर के इन सुन्दर उपदेशों की प्रस्तुति का आभार!

Amrita Tanmay ने कहा…

मनन योग्य आलेख..

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