फरीदा थीउ पवाही दभु॥जे सांई लोड़हि सभु॥
इकु छिजहि बिआ लताडी़अहि तां सांई दै दरि वाड़िअहि॥१६॥
फरीदा खाकु ना निंदिए,खाकु जेडू ना कोइ॥
जीवदिआ पैरां तलै मुइआ उपरि होइ॥१७॥
फरीदा जा लबु ता नेहु किआ ,लबु ता कूड़ा नेहु॥
किचरु झति लघाईए छपरि तुटै मेहु॥१८॥
फरीदा जगंलु जगंलु किआ भवहि, वणि कंढा मोड़ेहि॥
वसि रबु हवालिआ ,जगंलु किआ ढुंढेहि॥१९॥
फरीदा इंनी निकी जंगिए, थल डुंगर भविउमि॥
अज फरीदा कूजड़ा , सो कोहा थिउमि॥२०॥
इकु छिजहि बिआ लताडी़अहि तां सांई दै दरि वाड़िअहि॥१६॥
फरीदा खाकु ना निंदिए,खाकु जेडू ना कोइ॥
जीवदिआ पैरां तलै मुइआ उपरि होइ॥१७॥
फरीदा जा लबु ता नेहु किआ ,लबु ता कूड़ा नेहु॥
किचरु झति लघाईए छपरि तुटै मेहु॥१८॥
फरीदा जगंलु जगंलु किआ भवहि, वणि कंढा मोड़ेहि॥
वसि रबु हवालिआ ,जगंलु किआ ढुंढेहि॥१९॥
फरीदा इंनी निकी जंगिए, थल डुंगर भविउमि॥
अज फरीदा कूजड़ा , सो कोहा थिउमि॥२०॥
फरीद जी कहते हैं कि यदि उस प्रभु की कृपा पानी है तो घास के समान एक पौध बन जा।यहाँ फरीद जी पौधे के उदाहरण देते हुए समझा रहे हैं कि जिस प्रकार वह पौधा सदा सब के पैरों तले रहता है।उसी तरह तू अपने मन को बना ले।अर्थात अपने मन को विनम्र बना ले।क्यूँकि बिन विनम्रता के उस परमात्मा को नही पाया जासकता।अंहकारी लोग कभी भी उस को नही पा सकते।जिस प्रकार वह पौध या झाड़ी लोगो के पैरों तले रौदी जाती है लेकिन फिर भी वह वैसी ही बनी रहती है।तू भी ठीक ऐसा ही विनम्र हो जा ।तभी तुझे उस प्रभु के दर पर प्रवेश मिल सकेगा।पिछले श्लोक में जो प्रश्न उठाया था यह उसी का उत्तर फरीद जी यहाँ दे रहे हैं।
फिर फरीद जी कहते हैं कि है भाई खाक को छोटा जान कर उस की निंदा मत करना।अर्थात जो लोग विनम्र हैं उन को छोटा जान कर निंदा मत करना। क्यूँ कि उनकी विनम्रता ही उन का हथियार है।जिस प्रकार खाक हमेशा जमीन पर पैरों तले पड़ी रहती है। भले ही तेरे जीवित तहते समय तेरे पैरों के नीचे होती है लेकिन जब तू मरता है तो यही खाक तेरे मरनें के बाद तेरे ऊपर होती है।अर्थात विनम्रता सदा ही अंहकार से बड़ी होती है।
फरीद जी आगे कहते है कि यदि किसी के मन में लोभ है और इस कारण से वह प्रेम करता है तो उस का कुछ भी फायदा होनें वाला नही है।लोभ के कारण किया जानें वाला प्रेम तो झूठा है।जिस तरह टूटे छप्पर पर जब पानी बरसता है तो वह उस पानी की बौछारों को कब तक बर्दाश्त कर सकेगा।अर्थात एक दिन वह अवश्य ही टूट जाना है।यहाँ पर परीद जी कहना चाह रहे हैं कि जो लोग परमात्मा की भक्ति किसी लोभ या किसी भी प्रकार के लालच के वशीभूत हो कर करते हैं,वह धन का हो,यश पानें का हो, फिर किसी भी प्रकार का हो ।इस प्रकार का प्रेम या उपासना वह असल में प्रभु भक्ति है ही नही। यह प्रेम तो तभी तक बना रह सकेगा जब तक आप की जरूरतें पूरी हो रही हैं। जिस दिन भी आप की जरूरते पूरी होना बंद हो जाएगीं उसी दिन आप का प्रेम भी उस के प्रति छूट जाएगा।इस लिए ऐसे प्रेम को प्रेम नही कहा जा सकता।भले ही हम उसे प्रभु के प्रति अपना प्रेम मानते रहें।
पुराने समय में लोग प्रभु भक्ति के लिए अक्सर जगंलों मे चले जाते थे।उसी के लिए फरीद जी कहते हैं कि तू जगंलो की खाक क्योँ छानता फिर रहा है ,वहाँ तो बहुत ही काँटें अर्थात कष्ट होते हैं।उन कष्टों के बीच उस परमात्मा को कैसे याद किया जा सकता है।अर्थात वह प्रभु जिसे तू जगंलों मे खोज रहा है, बाहर खोज रहा है, वह तो असल में तेरे भीतर ही मौजूद है।इस लिए तू जगंल में क्या ढूँढ रहा है?
आगे फरीद जी कहते हैं कि इन छोटी-छोटी टांगों के सहारे मैं भी उसे जगंल जगंल खोजता रहा। लेकिन अब पता लग चुका है कि वह तो भीतर ही है।और मै सदा यह समझता रहा कि वह बहुत दूर है।
फिर फरीद जी कहते हैं कि है भाई खाक को छोटा जान कर उस की निंदा मत करना।अर्थात जो लोग विनम्र हैं उन को छोटा जान कर निंदा मत करना। क्यूँ कि उनकी विनम्रता ही उन का हथियार है।जिस प्रकार खाक हमेशा जमीन पर पैरों तले पड़ी रहती है। भले ही तेरे जीवित तहते समय तेरे पैरों के नीचे होती है लेकिन जब तू मरता है तो यही खाक तेरे मरनें के बाद तेरे ऊपर होती है।अर्थात विनम्रता सदा ही अंहकार से बड़ी होती है।
फरीद जी आगे कहते है कि यदि किसी के मन में लोभ है और इस कारण से वह प्रेम करता है तो उस का कुछ भी फायदा होनें वाला नही है।लोभ के कारण किया जानें वाला प्रेम तो झूठा है।जिस तरह टूटे छप्पर पर जब पानी बरसता है तो वह उस पानी की बौछारों को कब तक बर्दाश्त कर सकेगा।अर्थात एक दिन वह अवश्य ही टूट जाना है।यहाँ पर परीद जी कहना चाह रहे हैं कि जो लोग परमात्मा की भक्ति किसी लोभ या किसी भी प्रकार के लालच के वशीभूत हो कर करते हैं,वह धन का हो,यश पानें का हो, फिर किसी भी प्रकार का हो ।इस प्रकार का प्रेम या उपासना वह असल में प्रभु भक्ति है ही नही। यह प्रेम तो तभी तक बना रह सकेगा जब तक आप की जरूरतें पूरी हो रही हैं। जिस दिन भी आप की जरूरते पूरी होना बंद हो जाएगीं उसी दिन आप का प्रेम भी उस के प्रति छूट जाएगा।इस लिए ऐसे प्रेम को प्रेम नही कहा जा सकता।भले ही हम उसे प्रभु के प्रति अपना प्रेम मानते रहें।
पुराने समय में लोग प्रभु भक्ति के लिए अक्सर जगंलों मे चले जाते थे।उसी के लिए फरीद जी कहते हैं कि तू जगंलो की खाक क्योँ छानता फिर रहा है ,वहाँ तो बहुत ही काँटें अर्थात कष्ट होते हैं।उन कष्टों के बीच उस परमात्मा को कैसे याद किया जा सकता है।अर्थात वह प्रभु जिसे तू जगंलों मे खोज रहा है, बाहर खोज रहा है, वह तो असल में तेरे भीतर ही मौजूद है।इस लिए तू जगंल में क्या ढूँढ रहा है?
आगे फरीद जी कहते हैं कि इन छोटी-छोटी टांगों के सहारे मैं भी उसे जगंल जगंल खोजता रहा। लेकिन अब पता लग चुका है कि वह तो भीतर ही है।और मै सदा यह समझता रहा कि वह बहुत दूर है।
1 टिप्पणियाँ:
आप तो हमेशा ही अछा लिखते है। सब प्रभु क्रिपा का फ़ल हे।
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