बुधवार, 12 मार्च 2008

गुरुबाणी विचार-१३




करणों हुतो सुना किओ परियो लोभ के फंध॥
नानक समियो रमि गयो अब क्यों रोवत अंध॥३६॥

मन माया मे रमि रहयो निकसत नाहिन मीत॥
नानक मूरत चित्र ज्यों छाडित नाहिन भीति॥३७॥

नर चाहत कछू और औरे की औरै भयी॥
चितवत रहियो नगओर नानक फासी गल परी॥३८॥

गुरु जी,कहते हैं कि जब हमारे पास समय होता है उस समय हम लालच के कारण ऐसे कार्यों को करनें में व्यस्त रहते हैं जिस से हमारे जीवन को कोई लाभ नही पहुँचता।लेकिन जब समय निकल जाता है,उस समय हम रोनें लगते हैं कि हमनें वह काम क्यों ना किए जो जरूरी थे। हम माया के प्रभाव के कारण अंधे बनें रहते हैं।अर्थात हमारे भीतर जब लोभ रहता है कि हम बिना फायदे के कोई कार्य नही करेगें तो ऐसे में किए गए हमारे पूजा-पाठ भी सिवा लोभ आदि विकारों को तृप्त करनें तक ही सीमित रह जाते हैं।ऐसे में भला अंत में पछताने के सिवा हमारे हा्थ और क्या लगेगा।
आगे गुरु जी कहते हैं कि जिस तरह दिवार पर बना चित्र उस दिवार को नही छो्ड़ सकता उसी प्रकार जिस के मन में विकारों,माया आदि ने अपना निवास बना लिया है वह लाख उपाए करे लेकिन उस माया से बाहर नही आ पाता।अर्थात जिस प्रकार हम हरे रंग के चश्में से कुछ भी देखे तो हमे हरा ही दिखाई देगा उसी तरह माया में पड़े मन से हम जो कुछ भी करे उस पर माया का प्रभाव जरूर पड़ेगा।
ऐसा इंसान परमात्मा से जब कुछ माँगता है या कुछ करता है तो वह जिस जिस भाव से माँगता है उस का नतीजा कुछ ओर ही निकलता है और प्रभू की मरजी कुछ ओर ही हो्ती है अर्थात गुरु जी कहते हैं कि ऐस इंसान दूसरों को ठगने के अभिप्राय से कुछ करता है लेकिन अंतत: स्वयं ही उस ठगी का शिकार हो जाता है।इस तरह वह अपनें लिए आप ही अपना फंदा तैयार कर लेता है।



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