रविवार, 16 मार्च 2008

गुरुबाणी विचार-१७



निज करि देखिओ जगत में को काहू को नाहि॥
नानक थिर हरि भगति है तिह राखो मन माहि॥४८॥


जग रचना सभ झूठ है जानि लेह रे मीत॥
कहि नानक थिर ना रहै जिउ बालू की भीत॥४९॥

राम गयिओ रावन गयिओ जा कौ बहु परिवार॥
कह नानक थिर कछु नही सुपने जिउ संसार॥५०॥


गुरु जी कहते हैं कि तू यहाँ किस को अपना मान रहा है,किस पर आस्था रख रहा है।इस जगत मे कोई भी तेरा अपना नही है अर्थात सभी अपनें अपनें स्वार्थ के कारण ही तेरे साथ हैं और जो स्वयं कल मिटनें वाला है,वह तुम्हारा साथ कैसे दे पाएगा।क्यूँ कि इस संसार में ऐसा कुछ भी नही है जो सदा कायम रहता है ।गुरु जी कहते हैं ,लेकिन एक परमात्मा की भक्ति ही ऐसी है जो सदा रहनें वाली है ।इस लिए उसे ही अपनें मन मे बसा लो।
गुरु जी बार-बार यही कह रहें है कि यह जगत झूठा है,यह रचना सब झूठ है।वह सब इसी लिए कह रहे हैं क्योकि हम सब इस जीवन को सोये-सोये ही जीते हैं।हम लोग विकारों के वशीभूत होकर जीते हैं.इस तरह जीना ऐसा ही है जैसे हम रात को सोते समय सपनें में जीते हैं।इस लिए वह सब झूठ है।और दूसरी बात यह कि यह सब नाशवान है ,जिस तरह बालू की दिवार दिखती तो है कि वह है,लेकिन वह अगले पल ही फिर बालू हो जानें वाली है।इसी तरह यह संसार है। इस की स्थिरता भी ठीक ऐसी ही है।
आगे गुरु जी कह्ते हैं कि प्रमाण तो तुम्हारे सामनें ही हैं। रामचन्द्र जी भी आए और वह भी चले गए रावण जैसा योधा भी आया और वह भी चला गया ।उस रावण का इतना बड़ा परिवार था लेकिन वह भी नही बचा।इस लिए गुरु जी कह्ते है कि यह सब तो सपनें के समान ही है क्यूँ कि यह स्थिर नही है।जो स्थिर नही है वह सपना ही तो है।


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