शनिवार, 22 नवंबर 2008

फरीद के श्लोक -१२

जोबन जांदे ना डरां,जे सह प्रीति ना जाए॥
फरीदा किंती जोबन प्रीति बिनु,सुक गए कुमलाए॥३४॥

फरीदा चिंत खटोला,वाणु दुखु, विरह विछावण लेफु॥
ऐह हमारा जीवणा,तू साहिब सच्चे वेखु॥३५॥

बिरहा बिरहा आखिऐ, बिरहा तू सुलतानु॥
फरीदा जितु तनि बिरहु ना ऊपजै,सो तनु जाण मसानु॥३६॥


फरीद जी कहते हैं कि यौवन मे यदि हमारा किसी के साथ प्रेम होता है तो हमें जवानी जाने का डर नही सताता।जबकि कितने ही ऐसे लोग होते हैं जो जवानी में प्रेम किए बिना ही अपनी जवानी को व्यर्थ गँवा देते हैं।बिना प्रेम के यह जीवन बहुत नीरस हो जाता है।कुम्हला जाता है।अर्थात फरीद जी कहना चाहते हैं कि जो यौवनावस्था में उस परमात्मा से प्रेम करने लगता है।फिर उसे कोई भय नही रहता।यदि हम जवानी के समय अपने को सम्भाल कर उस प्रभू के प्रति प्रेम मे समर्पित नही करते तो हमारा जीवन फूल की तरह कुम्हलाया -सा नजर आता है।प्रेम के बिना जीवन का रस सूख जाता है और हमारा जीवन व्यर्थ हो जाता है।इस प्रीत के अभाव में कितने ही जीवन पूरी तरह खिलने से पहले ही कुम्हला जाते हैं अर्थात मुरझा जाते हैं।

फरीद जी आगे कहते हैं कि हे प्रभू आप तो जानतें हैं कि हम कैसे जीते हैं, यह चिन्ता हमारी चरपाई है और इस का बान हमारा दुख है।बिछोना और ओड़्नी हमारी विरह वेदना बनी हुई है।अर्थात इस जीवन में कुछ भी तो ऐसा नजर नही आता जो सच्चा सुख प्रदान करता हो।हमे हमेशा ही किसी से मिलनें की,कुछ पाने की ललक लगी रहती है।हमे हमेशा ऐसा लगता है कि कुछ ऐसा है जो हमसे छूट गया है।लेकिन वह क्या है? वह हम समझ नही पाते।

अगले श्लोक में फरीद जी कहते है कि सभी विरह -विरह कहते रहते हैं लेकिन यह विरह का भाव बहुत सुन्दर है।महान है।क्यूँकि इस विरह के बिना तो हमारा जीवन मसान की भाँति है। अर्थात फरीद जी कह रहे हैं कि यदि हमारे भीतर इस दुनिया में आने पर यह भाव नही जगता कि हम उस परमात्मा से बिछुड़ कर यहाँ आएं हैं और हमें उस प्रभू से फिर से मिलना है।तो हमारा जीवन मसान की भाँति हो जाता है।इस जीवन मे हमें जो अभाव-सा महसूस होता रहता है वही हमे जीवन जीनें की प्रेरणा देता रहता है।जिस मनुष्य के अंदर यह विरह की ललक समाप्त हो जाती है उसका जीवन मुर्दा हो जाता है।

बुधवार, 12 नवंबर 2008

फरीद के श्लोक-११

साहुरै ढोई ना लहै,पैइए नाही थाउ॥
पिर वातड़ी पुछई,धन सोहागणि नाउ॥३१॥

साहुरै पईए कंत की,कंतु अगंमु अथा्हु॥
नानक सो सोहागणी,जु
भावै बेपरवाहु॥३२॥

नाती धोती संबही,सुती आइ निचिंडु॥
फरीदा रही सु बेणी हिंज्ञु दी,गई कथूरी गंधु॥३३॥


फरीद जी कहते है कि
जिस स्त्री की बात उस का पति जरा भी नही सुनता।ऐसी औरत भले ही अपना नाम सुहागन रख ले,लेकिन उस का सम्मान ना तो सुसराल में होता है और ना ही मायके में ही होता है।अर्थात फरीद जी कह रहे है कि जिस के अंदर उस परमात्मा की याद नही रहती वह इन्सान लोक और परलोक दोनों मे ही दुखी होते हैं।वह सदा तृष्णा की आग मे जलते रहते हैं।ऐसे लोग दुनिया को दिखानें के लिए भले ही धर्मात्मा का रूप धारण कर ले।वह इस दुनिया को तो धोखा दे सकते हैं लेकिन उस परमात्मा तक कभी नही पहुँच पाता।अर्थात उस की कृपा कभी नही पा सकते।

अगले श्लोक में गुरु नानक देव जी फरीद जी के श्लोक का मर्म समझाते हुए कह रहे हैं कि वह परमात्मा जीवों की पहुँच से बहुत गहरा है।क्यूँ कि जो लोग उसे भूले रहते हैं वह कभी उन पर भी नाराज नही होता।उस के लिए तो सच्ची सुहागन वही है जो उस के इस तरह लापरवाह रहने पर भी उस से प्रेम करती रहती है।ऐसी सुहागन इस लोक में और परलोक में भी उसी की प्यारी बनी रहती है।अर्थात गुरु जी कह रहे है कि जो लोग उस प्रभु से निष्काम भाव से प्रेम करते हैं वही उस परमात्मा की कृपा का अनुभव कर सकते हैं।

फरीद जी कहते है कि जो स्त्री नहा-धो कर उस परमात्मा से मिलन की आस तो कर रही है।लेकिन फिर अपने पति से मिलने की बात को भूल कर सो जाती है।ऐसी सवरी स्त्री श्रंगार किए हुए स्त्री सो जाने के कारण सभी लगाई हुई सुगंधी उड़ जाती है।अर्थात जो लोग उस परमात्मा के मिलन के सारे साधन तो जरूर करते हैं लेकिन भीतर से उन मे प्रभु को मिलनें की तड़प मौजूद नही होती ऐसा प्रभु की भक्ति का दिखावा करने वाले लोग धीरे धीरे भक्ति तो करते नजर आते हैं लेकिन उन की यह भक्ति भकित ना हो कर एक अवगुण बन जाता है।

बुधवार, 5 नवंबर 2008

फरीद के श्लोक-१०

फरीदा रोटी मेरी काठ की,लावणु मेरी भुख॥
जिना खाधी चोपड़ी,घणे सहनिगे दुख॥२८॥

रुखी सुखी खाइ कै,ठंडा पाणी पीओ॥
फरीदा देखि पराई चौपड़ी,ना तरसाओ जीओ॥२९॥

अजु ना सुती कंत सिउ,अंग मुड़े मुड़ि जाइ॥
जाइ पुछो ढोहागणी,तुम क्युँ रैणि विहाइ॥३०॥

फरीद जी कहते है कि मै तो काठ की रोटी खाता हूँ जिस से मेरी भूख शांत हो जाती है।जो लोग चुपडी व स्वादिष्ट भोजन करते हैं वह हमेशा दुख ही सहते रहते हैं।अर्थात जो लोग मेहनत की कमाई की रोटी खाते हैं वही शांती पा सकते हैं।उन्ही की भूख शान्त हो सकती है।लेकिन जो लोग मुफ्त का माल खाते हैं भले ही वह कितना ही स्वादी हो,ऐसा भोग करने वाले अन्तत: दुख ही भोगते हैं।असल में फरीद जी यह कह रहे हैं कि ईश्वर भक्ति करते समय इन्सान को चाहिए कि वह अपनी मेहनत की कमाई ही खाए।इस से उस का मन प्रभु भक्ति में आसानी से लग जाता है।जब की मुफ्त का माल खा कर मन स्थिर नही रह पाता।

इस लिए अपनी मेहनत से जो भी रूखी-सूखी कमाई रोटी है तू उसी को खा के तृप्त हो सकता है। अत: फरीद जी कहते हैं कि दुसरों को अच्छा व सुस्वादिष्ट भोग करते देख कर अपने मन को भटकाना मत।क्यूँकि मन का स्वाभाव होता है कि वह हमेशा अधिक पाना चहाता है।यह लालसा मनुष्य को प्रभु से दूर कर देती है।

फरीद जी कहते हैं कि यह देखने मे आता है कि जो लोग प्रभु से कुछ देर के लिए भी दूर हो जाए वह दुखों से घिरनें लगते हैं।लेकिन उन लोगो का क्या हाल होता होगा जो कभी उस को याद ही नही करते।अर्थात जो लोग अपनी मेहनत से कमा कर खाते हैं उन के मन मे संतोष पैदा हो जाता है। तथा संतोषी आदमी ही उस प्रभु का मन लगा कर ध्यान कर पाता है।लेकिन जो लोग छल कपट से कमाई करते हैं और दुनिया के सारे भोगो को भोगते है। उन को देखने से तो यही लगता है कि वह सारे सुख भोग रहे हैं लेकिन वास्तव में असंतोष के कारण उन का मन हमेशा भटकता ही रहाता है।जिस कारण वह हमेशा तृष्णा की आग मे जलते रहते हैं और दुखी रहते है।ऐसा आदमी कभी भी उस प्रभु की कृपा नही पा सकता।