शनिवार, 24 दिसंबर 2011

कबीर के श्लोक - ९३



सेख सबूरी बाहरा.किआ हज काबे जाऐ॥
कबीर जा की दिल साबति नही ता कौ कहाँ खुदाऐ ॥१८५॥

कबीर जी कहते हैं कि मुल्लाजी  यदि आपके भीतर संतोष नही है तो हज करने के लिये जाना बेकार है।क्योकिं जिस का दिल शांत नही होता उस ह्रदय में परमात्मा का वास नही होता। अर्थात जब तक भीतर कोई तृष्णा रहती है चाह रहती है तब तक परमात्मा की प्राप्ती नही सो सकती।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि यदि हमारे भीतर उथल-पुथल मची हुई है या हजारों तरह की ख्वाहिशें मौजूद हैं तो ऐसी स्थिति में उस परमात्मा को नही पाया जा सकता है।क्योकि जब तक हमारे भीतर कोई भी दूसरी ख्वाहिश मौजूद रहती है हमारा मन भटकाव मे ही रहता है। ऐसे में दिखावे के लिये भले ही हम कोई भी धार्मिक कृत्य करते रहे उस लक्ष्य की प्राप्ती हमे नही हो सकती।वह तभी हो सकती है जब हम भीतर से शांत हो और हमारी एक ही चाह हो।


कबीर अलह की करि बंदगी. जिह सिमरत दुख  जाऐ॥
दिल महि सांई परगटै बुझै बलंती नांऐ॥१८६॥

कबीर जी आगे कहते हैं कि इस लिये हमें सबसे पहले उस परमात्मा की बंदगी करनी चाहिए ताकि हमारे भीतर के दुख कलेशों का निवारण हो सके और हमारे भीतर उस परम पिता परमात्मा की चाह पैदा हो जिस से हमें उस की मौजूदगी अपने भीतर महसूस हो सके। तभी हमारे भीतर मोह माया की आग बुझ सकेगी।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि परमात्मा तो हमारे भीतर पहले से ही मौजूद है इस लिये जब हम उसका ध्यान करके उसमें लीन होने लगते हैं तो हमारे विषय-विकार नष्ट होने लगते हैं। विषय- विकारों के शांत होने पर ही हमारे मन मे शांती आती है। उसी के बाद हम उस परमात्मा की मौजूदगी को महसूस कर पाते हैं।



शुक्रवार, 16 दिसंबर 2011

कबीर के श्लोक - ९२

कबीर चोट सुहेली सेल की.लागत इ उसास॥
चोट सहारे सबद कीतासु गुरु मैं दास॥१८३॥



कबीर जी कहते हैं कि यदि गुरु द्वारा कोई चोट दी जाती है तो वह जीव के लिये बहुत सुखद होती है। ऐसा जीव जो गुरू द्वारा दी गई चोटें खानें को राजी होता है ऐसे जीव का दास होना भी मुझे स्वीकार है।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि ऐसा जी जो गुरु द्वारा दिये आदेश का प्रेम पूर्वक पालन करता है ऐसा जीव उस परमात्मा की कृपा पाने का अधिकारी हो जाता है। इस लिये ऐसे जीव परमात्मा को प्राप्त हुए जीव का मैं दास होना बी मुझे स्वीकार है।अर्थात प्रभु भक्त जीव सदा पूजनीय होता है।

कबीर मुलां मुनारे किआ चडहि सांई न बहरा होइ॥
जा कारनि तूं बांग देहि.दिल ही भीतर जोइ॥१८४॥

कबीर जी इस दोहे में दिखावे के प्रति संकेत करते हुए कह रहे हैं कि ये जो मस्जिद के मुनारे पर चड कर मुल्ला खुदा को जोर-जोर से पुकार रहा है इस से ऐसा लगता है कि खुदा ऊँचा सुनता है।लेकिन वह नही जानता कि वह जिसे पुकार रहा है वह खुदा तो तेरे दिल के भीतर रहता है।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि परमात्मा को तभी हम पुकारते हैं जब हम ऐसा मानते हैं कि वह बाहर है। लेकिन जीव को अगर पता लग जाये कि वह जिसे पुकार रहा है वह तो उसके भीतर ही है तो उसकी यह पुकार बाहर की बजाय भीतर की ओर उठेगी ।इस लिये कबीर जी कहते हैं कि उसे अपने दिल के अंदर ही तलाश करों।



गुरुवार, 8 दिसंबर 2011

कबीर के श्लोक - ९१


कबीर जिनहु किछू जानिआ नही.तिन सुख नींद बिहाऐ॥
हमहु जु बूझा बूझना .पूरी परी बलाऐ॥१८१॥

कबीर जी कहते हैं कि जिन लोगों ने अभी तक उस परमानंद के विषय में कुछ भी नही जाना. ऐसे लोगो को कहाँ नींद आती होगी । हमने जो जानने योग्य है उस को पूरी तरह जान लिआ है। इस लिये अब हम परमानंद मे रहते हैं।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि यदि यह जान लिआ जाये कि जहाँ भी किसी प्रकार के खोने का या कोई भी भय होता है ऐसा प्रत्येक कर्म जीव को अंतत: दुख व भय ही देता है। ऐसे कर्मों को छोड़ देना चाहिए और  उस परमानंद को पाने की कोशिश करनी चाहिए जिसे पाने के बाद कोई दुख नही रहता।


कबीर मारे बहुत पुकारिआ पीर पुकारै अऊर॥
लागी चोट मरंम की रहिउ कबीरा ठऊर॥१८२॥

कबीर जी कहते हैं कि जब हमें मोह माया सताती है तो हम उसकी पूर्ति करने के लिये अनेकों प्रकार से प्रयत्न करने लगते हैं लेकिन ऐसा करने पर भी हमे समझ नही पडती कि हम ऐसा क्या करें जिस से हमें संतुष्टी प्राप्त हो सके।हम परेशान ही रहते हैं लेकिन कबीर जी कहते हैं कि यदि सही जगह पर चोट की जाये अर्थात सही रास्ता अपना लिया जाए तो हमें ठौर मिल सकती है।

कबीर जी बताना चाहते हैं कि किस लिये हमें सभी काम करते हुए भी संतोष की प्राप्ती नही होती और जीव इस दुख से और अधिक दुखी होता जाता है। उसका कारण मात्र इतना है कि जीव उन कामों से सुख पाने की लालसा करता है जो स्थाई नही होते।जो एक ना एक दिन नष्ट हो ही जानें हैं। इसके विपरीत यदि ऐसा कार्य किया जाये जो सदा स्थाई रहता है अर्थात हमेशा उसी रूप मे रहता है अर्थात उस परमात्मा का ध्यान व भक्ति की जाये तो मन को ठौर मिल जाती है।

गुरुवार, 24 नवंबर 2011

कबीर के श्लोक - ९०



कबीर सूरज चांद कै उदै, भई सभ देह॥
गुर गोबिंद के बिनु मिले, पलटि भई सभ खेह॥१७९॥

कबीर जी कहते हैं कि जब तक हमारे शरीर में सूर्य और चंद्र स्वर अर्थात साँस चलती है तब तक ही हमारा ये शरीर चलता है।लेकिन बिना गुरू की कृपा मिले और गोबिद के मिले अतंत: यह देह खाक हो जाती हैं। अर्थात व्यर्थ चली जाती है।
कबीर जी कहना चाहते हैं कि हमारा संसार में आना तभी सफल है जब हम उस परमात्मा की प्राप्ती करले। वर्ना हमारा संसार मे आना व्यर्थ ही जाता है।

 अनभऊ तह भै नही, जह भऊ तह हरि नाहि॥
कहिउ कबीर बिचारि कै, संत सुनहु मन माहि॥१८०॥

कबीर जी कहते हैं कि मैं अपने अनुभव की बात बताता हूँ कि जब हम सही रास्ता चुनते हैं   जहाँ भय नही है वही रास्ता सही होता है और जहाँ भय महसूस होता है वह रास्ता कभी भी उस परमात्मा की ओर नही ले जा सकता।इस बात का सदा ध्यान देना चाहिए।

कबीर जी हमें कहना चाहते हैं कि जब जीव जीवन के गलत रास्ते पर होता है तो उसे अनेक समस्याओं से उलझना पड़ता है ।ऐसा जीव सदा भय ग्रस्त रहता है। लेकिन यदि जीव सही रास्ता चुन लेता है तो भय मुक्त हो जाता है।वास्तव मे कबीर जी कहना चाहते हैं कि उस परमात्मा की शरण में जाना ही सही रास्ता है। क्योकि इसके सिवा ऐसा कोई रास्ता नही है जो जीव को माया के भय से मुक्त रख सके।




बुधवार, 16 नवंबर 2011

कबीर के श्लोक - ८९

कबीर भली भई जो भऊ परिआ,दिसा गई सभ भूलि॥
उरा गरि पानी भईआ, जाइ मिलिउ डलि कूलि॥१७७॥


कबीर जी कहते हैं कि जब जीव को भय महसूस होता है तब हम सब कुछ भूल जाते हैं अर्थात भयभीत जीव को कोई रास्ता नही सूझता अर्थात परमात्मा से दूर होने पर कोई ठौर नजर नही आती। उसी तरह बारिश की बूँदें ओलों का रूप धारण कर धरती मे समाने के जगह इधर उधर लुड़कता नजर आती हैं।लेकिन तपिश मिलने पर फिर पानी बन धरती मे समा जाती है।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि जब जीव के अंदर ये भय पैदा होता है कि परमात्मा से दूर होने पर माया के कारण जीव को दुख ही भोगना पड़ेगा।तब जीव अपनी ओले जैसी मन की कठोरता को परमात्मा रूपी तपिश से सही रास्ते पर आना ही पड़ता है।

कबीर धूरि सकेलि कै, परिआ बांधी देह॥
दिवस चारि को पोखना, अंति खेह की खेह॥१७८॥


कबीर जी आगे कहते हैं कि सब जानते है कि मिट्टी से ही सारी बस्ती बनी है और इसी तरह पँच तत्व से ये जीव का शरीर बना हुआ है जो देखने मे सुन्दर लगता है लेकिन एक दिन ये जिस मिट्टी से बना है उसी मे मिल जाना है।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि शरीर ने तो फिर मिट्टी मे मिल जाना है तब क्यों नही सही रास्ते पर ही चला जाए अर्थात उस परमात्मा की कृपा प्राप्त की जाये।

गुरुवार, 20 अक्तूबर 2011

कबीर के श्लोक - ८८

कबीर मनु सीतलु भैईआ पाईआ ब्र्हम गिआनु॥
जिनि जुआला जगु जारिआ, सु जन के उदक समानि॥१७५॥

कबीर जी कहते हैं कि उस परमात्मा के ध्यान मे लगे जीव का मन बिल्कुल शांत हो जाता है और उसे् पारबह्म परमात्मा की वास्तविकता का ज्ञान हो जाता है। इस लिए जो माया पूरे जगत को भरमा रही है. जिस की आग मोह लोभ रूपी आग मे हरएक जीव जल रहा है यह आग परमात्मा की भक्ति करने वाले को पानी की तरह महसूस होती है अर्थात उसे जला नही पाती।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि परमात्मा की कृपा के कारण जीव इस माया से संसारिक कार- विहार करते हुए भी बचा रहता है।

कबीर साची सिरजनहार की, जानै नाही कोइ॥
 कै जानै आपन धनी, कै दासु दीवानी होइ॥१७६॥॥

कबीर जी कहते हैं कि ये बात हरेक कोई नही जानता कि यह माया जो संसार को भ्रमित करती है इस को बनाने वाला भी वही परमात्मा है।इस भेद को परमात्मा जानता है या फिर उस के भक्त जानते हैं जो सदा उसके ध्यान मे लगे रहते हैं। वे भगत इस भेद को जानते हैं कि माया को बनाने वाला ही हमे माया से बचा सकता है। इस लिए परमात्मा ही इस माया रूपी आग से हमे बचा सकता है।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि यदि संसारिक माया से बचना है तो इस के बनाने वाले से ही संम्पर्क साध कर ही इस का भेद जाना जा सकता है। इस लिए उस परमात्मा की शरण में जा अकर हम इस से मुक्ति पा सकते है।





सोमवार, 10 अक्तूबर 2011

कबीर के श्लोक - ८७

कबीर संसा दूरि करु, कागद देह बिहाइ॥
बावन अखर सोधि कै, हरि चरनी चितु लाइ॥१७३॥

कबीर जी कह्ते हैं कि विधा के जरिए विचारवान बन कर तुम्हें सही रास्ता चुन लेना चाहिए और अपने मन की शंका को दूर करना चाहिए।ताकि संसारिक मोह माया से बचा जा सके और उस परम पिता परमात्मा के चरणों का ध्यान किया जा सके।

कबीर जी कहना चाहते है कि विधा प्राप्त जीव को अपनी विधा का सदुपयोग करना चाहिए।हमे विधा का प्रयोग अपने शरीरिक सुख और आनंद की प्राप्ती की जगह उस परम सुख को पाने मे लगाना चाहिए जो सदा स्थाई रहता है।

कबीर संत न छाडै संतई जौ कोटिक मिलहि असंत॥
मलिआगरु भुयंगम बेडिओ, त सीतलता न तजंत॥१७४॥

कबीर जी आगे कहते हैं कि इस प्रकार जो जीव विचारवान बन कर उस परमात्मा को पा लेते हैं ऐसे संत लोग फिर किसी के साथ भी रहे वे अपना रास्ता नही त्यागते।जिस प्रकार चदंन का वृक्ष हमेशा साँपों से घिरा रहने के बावजूद भी अपने भीतर की सीतलता और गुणों को नही छोड़ता।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि जब हम विचार पूर्वक उस परमात्मा की अहमियत को समझ कर उस परम पिता परमात्मा की भक्ति में लीन हो जाते हैं तो संसारिक  कार्य करते  हुए भी हम परमात्मा के ध्यान को कभी नही त्यागते।अर्थात  कबीर जी कहना चाहते हैं कि एक बार उस परमात्मा के साथ जुड़ जानें के बाद जीव दुनियावी प्रलोभनों में कभी नही फँसता।




बुधवार, 28 सितंबर 2011

कबीर के श्लोक - ८६

कबीर परभाते तारे खिसहि, तिऊ इहु खिसै सरीरु॥
ऐ दुइ अखर ना खिसहि, सो गहि रहिउ कबीरु॥१७१॥

कबीर जी कहते हैं कि जिस प्रकार प्रभात होने पर तारों का दिखाई देना बंद होता जाता है .जो रात की शांती में सुशोभित हो रहे होते हैं। उसी प्रकार संसारिक पदार्थो के नजर आने पर उन के प्रभाव से उस परमात्मा के प्रति हमारा लगाव घटता जाता है। हम भौतिक पदार्थों के प्रति आसक्त होने के कारण  कमजोर पड़ने लगते है।लेकिन कबीर जी कहते हैं कि यदि हमारे भीतर परमात्मा का नाम बसा हुआ है तो हम सभी प्रकार के बंधनो से मुक्त रहते हैं।क्योकि परमात्मा का नाम एक बार जिस के भीतर बस जाता है तो ऐसा जीव सभी तरह के संसारिक कारविहार  करते हुए भी उसी मे लीन रहता है।

कबीर जी कहना चाहते है कि संसारिक प्रलोभन जब हमारे सामने होते हैं तो हमारे भीतर परमात्मा की याद कमजोर पड़ जाती है। लेकिन यदि हम उस परमात्मा के नाम का सहारा न छोड़े तो हम इस से बच सकते है और उस को पा सकते है जो सदा मौजूद रहता है।

कबीर कोठी काठ की, दह दिसि लागी आगि॥
पंडित जलि मूऐ, मूरख ऊबरे भागि॥१७२॥

कबीर जी आगे कहते है कि ये दुनिया एक प्रकार से लकड़ी का घर है जिस के चारो ओर माया रूपी आग लगी हुई है।अर्थात अनेक प्रकार के प्रलोभन हमारे चारो ओर भरे पड़े हैं। बहुत से लोग जो अपने आप को पंडित अर्थात समझदार समझते हैं। वे लोग इन प्रलोभनों मे फँस कर इन्हें एकत्र करने मे लग जाते हैं और समझते हैं हम बहुत समझदारी कर रहे हैं और बहुत से लोग ऐसे हैं जो इन भौतिक पदार्थो की नशवरता को पहचानते है इस लिए वे संसार मे रहते हुए भी इन के प्रति विरक्त ही रहते हैं अर्थात इस माया रूपी जाल मे नही फँसते। ऐसे लोग पंडितों की नजर मे मूरख कहलाते है। क्योकि वे इस आग को देख कर भाग जाते हैं।

कबीर जी कहना चाहते है कि जो लोग माया मे ही उलझ जाते है वे उस परमात्मा से बहुत दूर हो जाते है लेकिन जो लोग इस माया मे नही फँसते वे ही उस परमात्मा की निकटता प्राप्त कर पाते है।




बुधवार, 21 सितंबर 2011

कबीर के श्लोक - ८५

कबीर दावै दाझनु हेतु है, निरदावै रहै निसंक॥
जो जनु निरदावै रहै,सो गनै इंद्र सो रंक॥१६९॥

कबीर जी कहते है कि जब हम किसी वस्तु या चीज पर अपना अधिकार समझने लगते हैं तो हमारे भीतर एक प्रकार से उसे अपने अधिकार मे रखने की भावना जन्म ले लेती है। जो हमारी खीज व दुख का कारण बन सकती है।लेकिन जो किसी पर अपने अधिकार को नही जताता उस के मन में कभी भी किसी प्रकार की शंका पैदा  नही होती।ऐसा व्यक्ति इन्द्र के समान होता है जो सभी संम्पदा का मालिक बना रहता है।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि किसी वस्तु पर आसक्ति पैदा होने पर हम उस वस्तु के गुलाम हो जाते है जिस कारण हमारी मलकियत खो जाती है ।अत: हमे संसार मे ऐसे रहना चाहिए कि हम मालिक बने रहे ऐसा ना हो कि वस्तु के प्रति मोह या आसक्ति के कारण वह हमारी मालिक बन जाए।कबीर जी हमे संसार मे रहते हुए इन प्रलोभनों से बचने का उपाय बता रहे हैं।

कबीर पालि समुहा सर्वरु भरा, पी न सकै कोई नीरु॥
भाग बडे तै पाइउ, तू भरि भरि पीऊ कबीर॥१७०॥

कबीर जी आगे कहते है कि इस संसार मे एक ओर जहाँ संसारिक प्रलोभन दिखाई देते हैं वही दूसरी ओर एक ऐसा सरोवर भी सदा से मौजूद है जो पानी से पूरी तरह भरा हुआ है। जिस के कारण कोई अच्छे  भाग्य होने के कारण ही उस पानी तक पहुँच पाता है।यदि तू उस तक पहुँच गया है तो अब उस पानी को प्यालों मे भर भर कर पी और आनंदित हो।
कबीर जी कहना चाहते है कि यदि जीव संसारिक मोह माया से बच जाता है तो वह परमात्मा के सरोवर के करीब पहुँच जाता है जहा पर भक्ति रूपी जल लबालब भरा हुआ है। फिर वह उस भक्ति रूपी जल का  स्वाद जी भर कर ले सकता है।

बुधवार, 14 सितंबर 2011

कबीर के श्लोक - ८४

कबीर डुबहिगो रे बपुरे,बहु लोगन की कानि॥
पारोसी के जो हुआ,तू अपने भीजानु॥१६७॥

कबीर जी कहते हैं कि जो लोग लोक-लाज में फँस कर अपने आप को भक्ति से वंचित कर लेते हैं ऐसे लोग अक्सर लोक-लाज मे ही डूब जाते हैं ।इस तरह की आत्मिक मौत मर जाने से जीवन ऐसे ही व्यर्थ हो जाता है जैसा कि हमे अपने आस-पास अक्सर देखने को मिलता रहता है।इस रास्ते पर चलकर तो एक दिन हम भी ऐसी ही मौत मर जायेगें।

कबीर जी समझाना चाहते हैं कि हम लोका-चार को निभाने की खातिर दिखावा करने में ही पड़े रहते हैं और ऐसे ही अपना जीवन व्यर्थ गँवा देते हैं।जैसा कि हमे अपने आस-पास अक्सर ऐसा देखने को मिलता रहता है।इस लिये हमे दूसरों की परवाह ना करके उस सही रास्ते को चुन लेना चाहिए जिसके लिये हमें यह जीवन मिला है।

कबीर भली मधूकरी, नाना बिधि के नाजु॥
दावा काहू को नही बडा देसु बड काजु॥१६८॥

कबीर जी कहते है कि लोकाचार की खातिर जमीन जयदातों को इक्ठठा करने से बेहतर है कि भिक्षा पर गुजर बसर कर ली जाये। ऐसा करने से उसे किसी पर दावा करने का अंहकार नही सताता।ऐसे अंहकार रहित इंसान को तो सभी कुछ वैसे ही अपना लगने लगता है।

कबीर जी समझाना चाहते हैं कि परमात्मा कि मेहर से जो भी मिले उसी को अपना भाग्य समझना चाहिए और परमात्मा का धन्यवाद करना चाहिए इस तरह का भाव आने पर मन में किसी प्रकार का मन मे संशय नही रहता।

बुधवार, 7 सितंबर 2011

कबीर के श्लोक - ८३

कबीर जिह मारगि पंडित गए, पाचै परी बहीर॥
इक अवघट घाटी राम की, तिह चड़ि रहिउ कबीर॥१६५॥


कबीर जी कहते हैं कि कि पंडित लोग जिस मार्ग पर ले जा रहे हैं भीड़ उधर ही चली जा रही है।क्योकि पंडितो का मार्ग कर्म-कांड पर अधारित होता है जिसे कोई भी धन दे कर अपने लिये करवा सकता है।लेकिन कबीर जी कहते हैं कि परमात्मा का रास्ता तो ऊँचाई की ओर चड़ने जैसे है जिस के लिये यत्न करना पड़ता है।कबीर जी कहते हैं कि मैं तो इसी मार्ग पर चल रहा हूँ।

कबीर जी हमे समझाना चाहते हैं कि पंडितो द्वारा सुझाये गये परमात्मा प्राप्ती के मार्ग पंडितो के निहित स्वार्थों की पूर्ति पर आधारित ही होते हैं।।उन मार्गों को चल कर कुछ मिलता तो है नही, बल्कि उन मार्गों पर चलने के कारण साधक व्यर्थ के कर्म-कांडों में उलझ कर रह जाता है और अपना जीवन व्यर्थ ही गँवा देता है। अर्थात कबीर जी कहना चाहते हैं कि यदि आपके मन मे परमात्मा की चाह है तो आप को उसे पाने के लिये स्वयं ही यत्न करना पड़ेगा। कोई दूसरा तुम्हे वहाँ तक नही ले जा सकता।

 कबीर दुनिआ के दोखे मूआ, चालत कुल की कानि॥
तब कुलु किसका लाजसी, जब ले धरहि मसानि॥

कबीर जी आगे कहते हैं कि जो लोग लोकाचार के बधंन मे बंध कर लोक व्यवाहर मे पडे रहते हैं ऐसे लोग अंतत: डूब जाते हैं। अर्थात मर जाते हैं। कबीर जी आगे कहते हैं कि ऐसे लोकाचार  या कुल का क्या फायदा जिस को अपनाने से हमारी आध्यात्मिक मौत हो जाती है। और हम मसान में पहुँच जाते हैं।

कबीर जी हमे समझाना चाहते हैं कि हम अपने कुल की मर्यादा अनुसार रिति रिवाजों के अनुसार ही चलते रह जाते हैं और पंडितो के कहे अनुसार कर्म- कांड कर के अपने धार्मिक कार्यो की इति श्री मान लेते हैं। जब कि इस से हमारे जीवन मे कोई बदलाव नही आता। इस तरह इस रास्ते पर चल कर हम आध्यात्मिक मौत मर जाते हैं और अंतत: मुक्ति आनंद की बजाय संसारिक बधंनो मे ही बंधे हुए अपना जीवन गँवा लेते हैं।

रविवार, 21 अगस्त 2011

कबीर के श्लोक - ८२

कबीर काम परे हरि सिमरीऐ, ऐसा सिमरहु नित॥
अमरापुर बासा करहु, हरि गईआ बहोरै बित॥१६३॥

कबीर जी कहते हैं कि बहुत से लोग परमात्मा को सिर्फ जरूरत पडने पर ही याद करते हैं।वैसे इस तरह भी परमात्मा को याद करना सही ही है।यदि हम इस समय को सदा याद रखे और निरन्तर उस परमात्मा का सिमरन करते रहे, तो हमारे निरन्तर इस प्रकार परमात्मा को याद करने के कारण हमारे मन की शुद्धि होने लगती है और हम सहज ही उस परमात्मा की भक्ति को स्थाई रूप से पाने के अधिकारी बन जाते हैं।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि जरूरत पड़ने पर किया गया भला या भक्तिपूर्ण काम अंतत: हमे लाभ ही पहुँचाता है।

कबीर सेवा कौ दुइ भले, ऐक संतु इक रामु॥
रामु जु दाता मुकति को, संतु जपावै नामु॥१६४॥

कबीर जी आगे कहते हैं कि उस परमात्मा कि सेवा अर्थात भक्ति दो प्रकार से की जा सकती है, या तो संतो अर्थात भले लोगो की सेवा करो या फिर सीधे उस परमात्मा का ध्यान करों। राम की भक्ति हमे संसारिक बधनों से मुक्ति प्रदान करती है और सतं की सेवा करने से हमारे भीतर सद्धगुण आते हैं जिस की कूपा के कारण हम उस परमात्मा के ध्यान की ओर प्रेरित होते हैं।

बुधवार, 10 अगस्त 2011

कबीर के श्लोक - ८१

कबीर थूनी पाई थिति भई ,सतिगुरु बंधी धीर॥
कबीर हीरा बनजिआ, मान सरोवर तीर॥१६१॥

कबीर जी कहते हैं कि जिन भक्तों को परमात्मा के शब्दों का सहारा मिल जाता है, वे भक्त भटकने से बच जाते हैं।परमात्मा की कृपा से उस के भीतर धीरज आ जाता है। ऐसा जीव अपने आप को परमात्मा के समर्पित कर के परमात्मा की कृपा को प्राप्त कर लेता है।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि यदि कोई भटकने से बचना चाहता है तो उसे परमात्मा का सहारा लेना पड़ेगा।तभी उस के भीतर ठहराव आ सकेगा।लेकिन इस ठहराव को प्राप्त करने के लिये परमात्मा की कृपा को सहजता से स्वीकारना होगा।तभी परमात्मा के साथ एकाकार हुआ जा सकता है और उस परमात्मा की कृपा पाई जा सकती है।

कबीर हरि हीरा जन जौहरी,ले कै मांडै हाट॥
जब ही पाईअहि पारखू,तब हीरन की साट॥१६२॥

कबीर जी आगे कहते हैं कि परमात्मा का नाम ही हीरा है और परमात्मा का भक्त उसका जौहरी है। जो इसे अपने ह्र्दय रूपी बाजार मे सजाता है। जब कोई इस हीरे की परख करने वाला बन जाता है तो वह इस हीरे के महत्व को समझ पाता है।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि जो संसारिक भोग विलासों की व्यर्तता को परखना जानते हैं ऐसे जौहरी ही उस परमात्मा रूपी हीरे को पहचान पाते हैं और उसे अपने ह्र्दय मे सजाते हैं। वैसे भी हीरे को जौहरी ही पहचान पाता है जबकि आम जन उसे मात्र पत्थर ही मान बैठते हैं।इस लिए जबतक हीरे रूपी उस परमात्मा की पहचान करने वाली बुद्धि हम मे नही होगी, तब तक हम हीरे के महत्व को नही समझ सकते।

सोमवार, 1 अगस्त 2011

कबीर के श्लोक - ८०

कबीर है गै बाहन सघन घन, छ्त्रपती की नारि॥
तासु पटंतर न पुजै, हरि जन की पनिहारि॥१५९॥

कबीर जी कहते हैं कि जो स्त्री परमात्मा की भक्ति करने वालों की श्रदा पूर्वक पानी भरने की सेवा करती है,ऐसी स्त्री भले ही गरीब हो। लेकिन वह उस स्त्री से श्रैष्ट है जो भले ही छ्त्रपति राजा की स्त्री हो और सभी प्रकार के साधनों से सम्पन्न हो।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि परमात्मा की भक्ति करने वालों की सेवा करने से मन में उस परमात्मा के प्रति प्रेम की उत्पत्ति होती है। क्योकि जो उन भक्ति करने वालों की सेवा करता है उस के मन में यह भाव होता है कि वह उसकी सेवा कर रहा है जो उसके प्रिय परमात्मा की भक्तिभाव मे डूबे हुए हैं ऐसे मे परोक्ष रूप से वह भगवान की ही सेवा कर रहा होता है।

कबीर नृप नारी किउ निंदिऐ, किउ हरि चेरी को मानु॥
उह मांग सवारै बिखै कऊ, उह सिमरै हरि नामु॥१६०॥

कबीर जी कहते हैं कि हम उस नृपनारी की क्यों निंदा करते हैं और परमात्मा के सेवको की सेवा करने वाली स्त्री की क्यों बड़ाई करते हैं। उसका कारण है कि नृपनारी तो अपनी मांग सँवारने मे ही अर्थात भोग-विलास मे ही लिप्त रहती है,लेकिन दूसरी स्त्री परमात्मा की भक्ति में लगी रहती है।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि जो लोग अपने जीवन को भोग-विलासों को भोगनें में ही गवा देते है ऐसे लोगो का जीवन व्यर्थ ही जाता है। जबकि जो लोग परमात्मा की भक्ति में डूब कर उस परमात्मा के साथ एकरूपता प्राप्त कर लेते हैं उन का जीवन सफल हो जाता है।इसी लिये कबीर जी भोगविलास में लगे लोगों की निंदा करते हैं।यहाँ पर कबीर जी स्त्री शब्द का प्रयोग परमात्मा के भक्त को इंगित करने के लिये कर रहे हैं।

गुरुवार, 28 जुलाई 2011

कबीर के श्लोक - ७९

कबीर साचा सतिगुरु मै मिलिआ,सबदु जु बाहिआ ऐकु॥
लागत ही भुइ मिलि गईआ, परिआ कलेजे छेकु॥१५७॥


कबीर जी कहते हैं कि जब मुझे सच्चा सतगुरू मिला तो उसने मुझे उस एक शब्द के साथ जोड़ दिया जो निरन्तर चलता रहता है। उस के कारण मेरा अंहकार व विकार मिट्टी मे मिल गये और यह शब्द मेरे ह्र्दय मे सदा के लिये बस गया।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि जब किसी को ऐसा गुरु मिलता है जो उस परमात्मा से एकाकार हो चुका है तो ऐसा सतगुरु हमें उस परमसत्ता के मूल से जोड़नें का रास्ता हमें दिखा देता हैं । जब हम उस शब्द के साथ जुड कर उसी के साथ आगे बहने लगते है तो हमारे भीतर के सभी विकार स्वयं ही नष्ट हो कर मिट्टी में मिल जाते हैं। सतगुरू का सब्द हमारे ह्र्दय में तीर की तरह धस जाता है अर्थात सदा के लिये ह्र्दय मे समाहित हो जाता है।


कबीर साचा सतिगुरु किआ करै, जऊ सिखा महि चूक॥
अंधे ऐक न लागई, जिउ बॊस बजाईऐ फूक॥१५८॥


कबीर जी आगे कहते हैं कि लेकिन सतगुरू क्या कर सकता है ? यदि सीखने वाला ही गलत हो।ऐसे विषय विकारों के मद में अंधे हुए जीव को सतगुरू के उपदेश का कोई असर नही होता। यह तो ठीक ऐसा ही होता है जैसे बाँसुरी में एक ओर से फूँकने पर वह हवा दूसरे छिद्रो से बाहर हो जाती है।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि विषय विकारों मे ग्रस्त लोगों को सच्चा सतगुरू भी नही समझा सकता। ऐसे अंहकारी लोग उपदेश सुन कर याद तो रख सकते है,लेकिन उस उपदेश को, उस बताये रास्ते पर कभी चलते नही हैं।अर्थात कबीर जी कहना चाहते हैं कि बहुत से लोग सतगुरू द्वारा दी गई सीख को सीख तो लेते हैं लेकिन कभी स्वंय उस पर चलते नही है। इस तरह ऐसे लोग इस शाब्दिक ज्ञान का प्रयोग दूसरो को प्रभावित करने के लिये करते हैं।

गुरुवार, 21 जुलाई 2011

कबीर के श्लोक - ७८

कबीर जहा गिआन तह धरमु है,जहा झूठ तह पापु॥
जहा लोभु तह कालु है जहा खिमा तह आपि॥१५५॥


कबीर जी कहते हैं कि जहाँ समझ होती है वही धरम हो सकता है और जहाँ झूठ होता है वहाँ पाप होता है। लोभ हमेशा नाश ही लाता है ,लेकिन जिसके भीतर क्षमा होती है वही उस परमात्मा का निवास होता है।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि जिस के भीतर होश होती है,समझ होती है वही धर्म हो सकता है।बेहोश आदमी कभी भी धार्मिक नही हो सकता।इसी लिये कबीर जी कह रहे हैं कि जहाँ झूठ होता है अर्थात बेहोशी होती है अज्ञान होता है वही पाप होता है।क्योकि बेहोशी मे किया गया कार्य हमेशा झूठा होता है,ऐसे कर्म को ही इंगित करने के लिये पाप शब्द का प्रयोग किया है।आगे कबीर जी कहना चाहते हैं कि लालच के कारण ही आदमी गलत रास्ते पर जाता है जो आदमी को पतन की ओर ले जाता है।जो नाश का कारण बनता है। लेकिन हमारे भीतर यदि क्षमाशीलता है तो हमारे भीतर करूणा भी विराजित रहती है।ऐसे ह्र्दय में ही परमात्मा का वास होता है।

कबीर माइआ तजी त किआ भईआ,
जऊ मानु तजिआ नही जाइ॥
मान मुनी मुनीवर गले,मानु सभै कऊ खाइ॥१५६॥


कबीर जी कहते है कि कुछ लोग धन दौलत,घरबार को छोड़ कर यह सोच लेते हैं कि वे इस तरह करने से परमात्मा की निकटता पा जायेगें। लेकिन वास्तव मे जो छोड़ने वाली चीज है वह है अपने भीतर का अंहकार , उसे नहो छॊड़ पाते। इस अंहकार ने तो  कितने मुनी साधको को ग्रस लिआ है।

कबीर जी कहना चाहते है कि संसारिक सुखो का त्याग करने से कुछ लाभ नही होता। यदि इन संसारिक सुखों को त्याग कर उल्टा अंहकार से भर जायें। मन मे हमेशा ये बात रहे कि देखो ! हमने परमात्मा के लिये कितना त्याग करा है। इस तरह का भाव जीव को परमात्मा से दूर ले जाता है।इसी तरह मुनी लोग व साधक जो इस अंहकार भाव से भरे होते हैं कि देखो ! हमने सभी संसारिक सुखों का त्याग किया है, हमने कितनी कठोर साधना उस परमात्मा के लिये की है।इस तरह के भाव यदि मन में रहता है तो वह अंहकार को जन्म देता है और अंहकार के कारण कभी भी उस परमात्मा को नही पाया जा सकता। यह अंहकार सभी के पतन का कारण बन जाता है।

गुरुवार, 14 जुलाई 2011

कबीर के श्लोक - ७७

कबीर जैसी ऊपजी पेड ते , जऊ तैसी निबहै ओड़ि॥
हीरा किस का बापुरा  , पुजहि न रतन करोड़ि॥१५३॥

कबीर जी कहते है कि जिस प्रकार नये उगे पौधे मे कोमलता होती है, यदि ऐसी ही कोमलता सदा बनी रहे तो वह एक हीरे की तरह ही नही बल्कि करोड़ों रत्नों की कीमत से भी ज्यादा है।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि जिस प्रकार नये उगे पौधे में कोमलता होती है यदि मनुष्य में भी वही कोमलता सदा एक-सी बनी रहे तो वह बहुत अमुल्य होगी।अर्थात जिस प्रकार बालक का मन होता है यदि हमारा मन उसी तरह सदा निष्कपट व निश्छल बना रहे तो उस परमात्मा को सहज ही पाया जा सकता है।इसी लिये कबीर जी इस स्वभाव को अमुल्य बता रहे हैं।

कबीर ऐक अचंभौ देखिउ , हीरा हाट बिकाइ॥
बरजनहारे बाहरा , कऊडी बदलै जाइ॥१५४॥

कबीर जी कहते हैं कि मुझे एक आचंभा दिख रहा है कि एक कीमती हीरा बाजार मे बेचा जा रहा है।क्यूकि किसी को भी इस हीरे की कीमत का पता नही है इस लिये यह कौडीयों के भाव बिक रहा है।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि हमारा यह मनुष्य का जन्म बहुत अमुल्य है। लेकिन हम इस बात के महत्व को समझ नही रहे हैं और इसी लिये इस जीवन को बेकार की बातों ,बेकार के कामों में लगाये हुए हैं। हमे यह जो हीरे जैसा जन्म मिला है उसे व्यर्थ ही गवा रहे हैं।इसी लिये कबीर जी कह रहे हैं कि यह हीरा कौडी के भाव जा रहा है।

गुरुवार, 7 जुलाई 2011

कबीर के श्लोक - ७६

कबीर पाटन ते ऊजरु भला , राम भगत जिह ठाइ॥
राम सनेही बाहरा , जम पुरु मेरे भांइ॥१५१॥

कबीर जी कहते हैं कि ऐसी बस्ती से उजाड़ अच्छा है जहाँ राम के भगत रहते हैं।जिस जगह पर परमात्मा के भगत नही रहते हैं, मुझे तो वह स्थान नरक लगता है।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि जिस जगह पर परमात्मा के भगत रहते हैं ऐसा स्थान ही अच्छा है। किसी स्थान को मात्र  सुख सुविधायें ही रहने योग्य नही बनाती।बल्कि मन के भीतर की शांती के बिना कितनी ही अच्छी व बढ़िया जगह हो , वह बेकार व नीरस ही लगती है।परमात्मा की भक्ति हर जगह को अपने ही रंग मे रंग देती है।जिस जगह पर परमात्मा की भक्ति नही होती , कबीर जी कहते हैम कि वह स्थान नरक के समान ही होता है।

कबीर गंग जमुन के अंतरे , सहज सुंन के घाट॥
तहा कबीरै मटु कीआ , खोजत मुनि जन बाट॥१५२॥

कबीर जी कहते हैं कि हमारे भीतर जो गंगा यमुना हैं इसी के भीतर वह स्थान है जहाँ सहज शांती का घाट है। हमें उसी स्थान पर ठहरना है। क्योकि मुनि जन भी इसी स्थान की खोज मे लगे रहते हैं।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि हमारे भीतर ही वह स्थान है जहाँ गंगा जमुना की तरह विचारों की धारा बहती रहती है, इन्हीं विचारों का मंथन करते हुए ,हमें उस विचार को खोजना है जहाँ  मन का ठहराव हो जाता है। वही वह स्थान है जहाँ मन मे कोई विचार नही उठते। उसी को कबीर जी सुंन का घाट कह रहे हैं। उसी मन की अवस्था मे रहते हुए हम परमात्मा की भक्ति को प्राप्त होते हैं कबीर जी हमे समझाते हुए कहते हैं कि मुनि जन इसी  अवस्था मे ठहरने के लिये अपने भीतर इस स्थान को खोजने के यत्न मे लगे रहते हैं।

मंगलवार, 28 जून 2011

कबीर के श्लोक - ७५

कबीर पानी हुआ त किआ भईआ सीरा ताता होइ॥
हरि जन ऐसा चाहिऐ जैसा हरि ही होइ॥१४९॥

कबीर जी कहते हैं कि लेकिन पानी होने से भी क्या होगा।इस मे भी एक दोष रहता है।यह ठंडा और गरम हो सकता है। अर्थात अपना स्वाभाव बदल सकता है।इस लिये हरि का भगत तो वही हो सकता है जो उस हरि जैसा ही होगा।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि जब तक कोई दोष अर्थात ऐसा कोई रास्ता बचता है जो भटका सकता है,तब तक मन मे ठहराव नही आता। मन का ठहराव तभी संभव है जब कोई और रास्ता शेष ना रहे। तभी हमारा मन उस परमात्मा के प्रति समर्पित हो सकता है।

ऊच भवन कनकामनी, सिखरि धजा फहराइ॥
ता ते भली मधूकरी , संतसंगि गुन गाइ॥१५०॥

कबीर जी ऊपर के श्लोकों में मन के टहराव का रास्ता बताने के बाद अब आगे धन से संबधित बातों के प्रति कहते है कि भले ही बड़े बड़े महल हो धन सम्पदा हो। महल के ऊपर झंडे लहरा रहे हो। इस से कोई फायदा नही होनेवाला।इस की बजाय यदि भीख में प्राप्त धन हो और मन उस परमात्मा के गुणों का गान करता हो तो यह भीख ही सुखकर व आनंद देने वाली हो सकती है।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि मन का ठहराव होना ही काफी नही है ।यदि मन ठहराव के बाद मन वैभव व धन की अभिलाषा करने लगे तो सब व्यर्थ है। ऐसे समय मे भले ही हमारे पास साधनों का अभाव हो, लेकिन हमारे पास संत लोगों का साथ है और उस परमात्मा की भक्ति है तो यह बहुत भली व उत्तम बात होगी।

मंगलवार, 21 जून 2011

कबीर के श्लोक - ७४

कबीर रोड़ा हुआ त किआ भैआ पंथी कौ दुखु देइ॥
ऐसा तेरा दासु है जिउ धरती महि खेह॥१४७॥


कबीर जी पिछले श्लोक की बात को आगे बढ़ाते हुए कहते है कि पत्थर की तरह एक जगह पड़े रहने से भी क्या होगा। क्योकि उसमे भी कठोरता का एक दोष होता है ,वह भी उन लोगो के पैरों मे तकलीफ देता है जो नंगे पैर होते हैं। इस लिये मै तो चरणों पर पड़ी धूल हो जाऊँ। तभी तेरा दास कहला सकूँगा।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि हमारा स्वाभाव ऐसा होना चाहिए कि जैसे चरण धूल होती है।जो हमारे पैरों के नीचे रहती है।अर्थात हमारा मन इतना अंहकार रहित होना चाहिए।तभी हम उस परमात्मा की भक्ति को पाने के हकदार हो सकते हैं।

कबीर खेह हुई तौ किआ भैआ जौ उड लागै अंग॥
हरि जन ऐसा चाहिऐ जिउ पानी सरबंग॥१४८॥

कबीर जी आगे कहते हैं कि धूल होने से भी कुछ नही होने वाला। क्योकि धूल मे भी एक दोष होता है,वह भी उड़ कर आँखों में पड़ सकती है। जिस से दूसरों को कष्ट पहुँच सकता है।इस लिये प्रभू भक्त तो ऐसा होना चाहिए जैसा पानी होता है। क्योंकि पानी वैसा ही हो जाता है, पात्र होता है।

कबीर जी यहाँ प्रभू भक्ति के लिये हमारे मन को कैसा पात्र बनना चाहिए,यही बात समझाना चाह रहे हैं।कबीर जी धूल से भी ज्यादा विनम्र होने के लिये कह रहे हैं। इसी लिये वे अपने आप को पानी जैसा होने की बात कह रहे है। क्योकि पानी अपने आप को वैसा ही ढाल लेता है जैसा पात्र होता है।

मंगलवार, 14 जून 2011

कबीर के श्लोक - ७३

कबीर बैसनो हुआ त किआ भईआ माला मेलीं चारि॥
बाहरि कचंनु बारहा. भीतरि भरी भंगार॥१४५॥

कबीर जी कहते हैं कि बहुत से लोग वैष्णव भक्तों  की तरह बन जाते हैं और चार चार मालायें पहन लेते हैं। देखने वालों को तो वह खरा सोना ही दिखाई देते हैं लेकिन वह सोना सिर्फ बाहर से ही चमकदार लगता है...उसके भीतर तो खोट ही होती है। अर्थात वह नकली सोना होता है।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि ईश्वर भक्ति का दिखावा करने से किसी के भीतर उस परमात्मा का आनंद नही उतरता। भक्ति का दिखावा करने से हम सिर्फ लोगों को ही धोखे मे रख सकते हैं । इस तरह के भक्त बनने का कोई फायदा नही है।यहाँ हमे कबीर जी सच्ची भक्ति करने का संदेश देना चाहते हैं।

कबीर रोड़ा होइ रहु बाट का . तजि मन का अभिमानु॥
ऐसा कोई दासु होइ ताहि मिलै भगवानु॥१४६॥

कबीर जी कहते हैं कि जिस प्रकार रास्ते का पत्थर लोगों के पैरों के नीचे पड़ा रहता है। तू भी इसी तरह मन का अभिमान छोड़ कर पड़ा रह।यदि कोई इस तरह से अभिमान छोड़ कर उस परमात्मा की भक्ति करता है तो ही वह भगवतता को प्राप्त होता है।

कबीर जी हमे पत्थर का उदाहरण देकर समझाना चाहते हैं कि जिस प्रकार राह का पत्थर सभी की ठोकरें खाने के बाद भी वैसे ही पड़ा रहता हैं ठीक उसी प्रकार हमें भी मान अभिमान ईष्या द्वैष अंहकार आदि के वशीभूत होकर दूसरों से व्यावाहर नही करना चाहिए।

मंगलवार, 7 जून 2011

कबीर के श्लोक - ७२

कबीर साकत ते सूकर भला  राखै आछा गाउ॥
उहु साकतु बपुरा मरि गऐआ कोइ न लै है नाउ॥१४३॥

कबीर जी कहते हैं कि ऐसे साकत से अर्थात ऐसा मनुष्य जो परमात्मा से सदा दूर रहता है उस से सूअर अच्छा है जो गाँव की गन्दगी को खा कर कर गाँव को साफ करता रहता है।कबीर जी कहते है कि साकत की मौत के बाद कोई भी उसे याद नही करता।

कबीर जी हमे समझाने के लिये साकत व सूअर की तुलना कर रहे हैं। वे कहना चाहते हैं कि साकत अर्थात जो परमात्मा को भूला हुआ है ऐसा जीव जो भी करता है वह अंतत: दूसरों को दुख ही पहुँचाता है।इसी लिये कबीर जी कहते हैं कि एक तरह से साकत तो गंदगी फैलाने का काम करता है और दूसरी ओर सूअर गंदगी साफ करने का काम करता है ।इसी लिये कबीर जी कहते हैं कि साकत से सूअर भला है....अच्छा है और वही दूसरी ओर वे यह भी कहते हैं कि इसी लिये बुरे इन्सानों अर्थात साकत को कोई याद नही रखता।

कबीर कऊडी कऊडी जोरि कै जोरे लाख करोरि॥
चलती बार न कछु मिलिउ लई लंगोटी तोरि॥१४४॥

कबीर जी इस श्लोक मे साकत मनुष्य के कर्म की चर्चा करते हुए कहते है कि वह हमेशा कोडी कोडी का संग्रह करने की जुगाड़ मे ही अपना जीवन बिताता है। इस तरह वह लाखॊ करोड़ो की संपत्ति एकत्र कर लेता है। लेकिन वह यह बात भूला रहता है कि अंत समय मे मे कुछ भी साथ नही जाना।अंत समय मे शरिर की लंगोटी को भी छीन लिआ जाता है।

कबीर जी हमे संसार के प्रति हमारी आसक्ती से हमे बचाने के लिये संसारिक मोह की  व्यर्थता को समझाना चाहते हैं।वे ऐसे लोगों के लिये कह रहे हैं जो लोग जरूरत से अधिक संग्रह करने मे लग जाते हैं और इसी मे लगे रहते हैं कि हमारे पास अधिक से अधिक धन -संपत्ति हो जाये। ऐसे मे वे उस परमात्मा को ही भूल जाते हैं।जबकि परमात्मा की भक्ति के सिवा कुछ भी हमारे साथ नही जाता।

शनिवार, 28 मई 2011

कबीर के श्लोक - ७१

कबीर कसतूरी भइआ भवर भए सभ दास॥
जिउ जिउ भगत कबीर की तिउ तिउ राम निवास॥१४१॥

कबीर जी कहते हैं कि  जब कोई उस परमात्मा कि भक्ति मे रमता है तो वह कस्तूरी की भाँति हो जाता है और भँवरे के समान वह भी गंध अर्थात भक्ति का दास बन जाता है। जैसे जैसे वह इस भक्ति मे डूबता है वैसे वैसे ही वह उसका निवास बनने लगता है ।

कबीर जी हमे समझाना चाहते है कि जब कोई भक्त उस प्रभू की भक्ति मे जुड़ता है तो बाकी के सभी आकर्षण फीके पड़ जाते हैं। फिर वह भक्त निरन्तर उसी भक्ति के प्रति आकर्षित हो कर उसी मे रमनें लगता है।


कबीर गहगचि परिउ कुटंब कै . कांठै रहि गयिउ रामु॥
आइ परे धरम राइ के .बीचहि धूमा धाम॥१४२॥

कबीर जी कहते हैं कि लेकिन जीव अपने परिवार  व सबंधों के प्रति सदा मोहित रहता है। उसे सदा उन्ही की चिन्ता लगी रहती है। जिस कारण वह उस परमात्मा की भक्ति के प्रति बिल्कुल ध्यान ही नही दे पाता।उस परमात्मा का ध्यान उसे तब आता है जब उसे ऐसा आभास होने लगता है कि अब मेरा अंत काल निकट ही है।

कबीर जी हमे समझाना चाहते हैं कि जीव के लिये  परमात्मा की भक्ति निश्चित ही मनुष्य को सत्य की ओर ले जाती है जिस से मनुष्य सही रास्ते पर चलने लगता है। लेकिन यह तभी होता है जब मनुष्य परिवार व संबधो बंधनों से अपने आप को बचाता हुआ चलता है। अन्यथा वह इस जाल मे ही फँसता चला जाता है और अंतकाल मे ही मृत्यू भय के कारण उस परमात्मा की ओर ध्यान देता है। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होती है।अत: समय रहते ही हमे सचेत हो जाना चाहिए।

शनिवार, 21 मई 2011

कबीर के श्लोक - ७०

कबीर ऐसा जंतु इकु देखिआ, जैसी धोई लाख॥
दीसै चंचल बहु गुना, मति हीना नापाक॥१३९॥

कबीर जी कहते हैं कि मैने ऐसा मनुष्य देखा है जो ऐसा गुणी लगता है जैसे धोई हुई लाख होती है। उसे देख कर ऐसा आभास होता है मानों यह बहुत साफ और सुलझा हुआ आदमी है।देखने पर वह व्यक्ति बहुत उत्साहित व गुणी नजर आता है।लेकिन वास्तव मे वह बुद्धिहीन व मलीन सोच वाला है।

कबीर जी हमे समझाना चाहते हैं कि सभी गुण व समझदारी होने के बाद भी जिस मनुष्य के अंदर उस परमात्मा की याद नही है ऐसा मनुष्य समझदार होते हुए भी समझदार नही हो सकता। क्योंकि अंतत: व्यक्ति अपने गुणों व समझदारी का उपयोग अपनी बुद्धि से ही करता है और ईश्वर से वंचित बुद्धि द्वारा किया गया कोई भी कार्य कभी भी क्ल्याणकारी नही होता।

कबीर मेरी बुधि कऊ जमु न करै तिसकार॥
जिनि इहु जमूआ सिरजिआ सु जपिआ परविदगार॥१४०॥

कबीर जी आगे कहते हैं कि मेरी समझ को यम भी अर्थात जिस के कारण सभी को मृत्यू का भय सताता रहता है वह यम भी मेरा अपमान अर्थात मुझे हतोत्साहित नही कर सकता। क्योंकि मै उस परमात्मा की भक्ति करता हूँ जिसने इस यम को जन्म दिया है।

कबीर जी हमे समझाना चाहते हैं कि यदि मनुष्य सर्वगुण संम्पन्न होते हुए भी परमात्मा से दूर है....उसे भूला हुआ है तो उसके द्वारा किया गया कोई भी कार्य अंतत: क्ल्याणकारी साबित नही होता। जबकि उस परमात्मा से एकाकार हुआ मनुष्य कभी गलत कार्य कर ही नही सकता। अर्थात कबीर जी कहना चाहते है कि उस परमात्मा की भक्ति करने मे ही हमारा भला हो सकता है।

शनिवार, 14 मई 2011

कबीर के श्लोक - ६९

कबीर कागद की उबरी,मसु के करम कपाट॥
पाहन बोरी पिरथमी, पंडित पाड़ी बाट॥१३७॥

कबीर जी कहते हैं कि पंडितों ने लोगों के लिये कागज का कैदखाना और स्याही के दरवाजे शास्त्रो द्वारा बना डाले हैं और लोगों को पत्थरों के पीछे लगा कर डुबा दिया है। वे सब इस लिये कर रहे हैं ताकि इन कर्म-कांडो के कारण उन्हें दान-दक्षिणा आदि मिलती रहे।

कबीर जी कहना चाह्ते है कि पंडितो ने लोगो को कर्म-कांडो के जाल मे उलझा रखा है। शास्त्रो-वेदो पर अमल करने की बजाय वे उसे रटवा रहे हैं,जिस से कोई लाभ होने वाला नही है।इस तरह पत्थरों की मूर्तियों की पूजा करने की सीख देकर ये पंडित धरती के लोगो को डुबा रहे हैं।ऐसे कर्म कांडो मे उलझा कर वे मात्र अपनी दुकान चलाने मे ही लगे हुए है।

कबीर कालि करंता अबहि करु,अब करता सुइ ताल॥
पाछै कछु न होइगा,जऊ सिर परि आवै कालु॥१३८॥

कबीर जी कहते हैं कि परमात्मा का सिमरन करने मे आलस नही करना चाहिए । जो काम कल करना है उसे अभी ही कर ले। यदि अभी करना है तो इसी समय करना शुरू कर दे। कही ऐसा ना हो कि इस काम को तू कल पर टालता जाये। यदि ऐसा किया तो जब तेरा अंत समय आयेगा उस समय तुझे पछतावा होगा।

कबीर जी हमे समझाना चाह्ते है कि परमात्मा का ध्यान या सिमरन करने मे हमें जरा भी आलस नही करना चाहिए। इसे टालना नासमझी ही होगी। क्योकि जीव का लक्ष्य ही परमात्मा के साथ एकाकार होना है। तभी उसे शांती प्राप्त हो सकती है। अन्यथा हमे अपने जीवन के अंत काल मे सिवा पछताने के कुछ नही रह जायेगा।

शनिवार, 7 मई 2011

कबीर के श्लोक - ६८


कबीर ठाकुरु पूजहि मोलि ले,मन हठि तीरथ जाहि॥
देखा देखी सांग धरि, भूले भटका खाहि॥१३५॥

कबीर जी कहते हैं कि कुछ लोग ठाकुरजी की मूर्तीयां मोल लेकर उन्हे पूजते हैं और कुछ लोग यत्नपूर्वक तीर्थ यात्राओं पर जाते हैं। ये लोग मात्र देखा देखी तथा लोक दिखावे के लिये ऐसा करते हैं। इन से कुछ फायदा नही होता।जीव इन कर्मकांडो मे भटकता रह जाता है।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि यदि मन मे किसी कार्य के लिये श्रदा ना हो और वह फिर भी लोकदिखावे के लिये ये सब कर्मकांड करता रहता है जिस से लोग उसे धार्मिक व परमात्मा का भक्त माने, तो ऐसा कोई भी कार्य उस परमात्मा तक पहुँचने मे सहायता नही करता हैं, बल्कि ऐसा करने से जीव भटकाव मे ही पड़ता है।

कबीर पाहनु परमेसुरु कीआ,पूजै सभु संसारु॥
इस भरवासे जो रहे, बूडे काली धार॥१३६॥

कबीर जी आगे कहते हैं कि लोगों ने परमेश्वर को पत्थर बना दिया है और उसी की ये सारा संसार पूजा कर रहा है। जिन लोगो को ये भरोसा है कि ये पत्थर की मूर्तीयां ही सब कुछ हैं ऐसे लोग बहुत गहरे पानी मे ही कहीं खो जायेगें।

कबीर जी समझाना चाहते हैं कि परमात्मा को मात्र पत्थर मान कर पूजने वाले को कोई लाभ नही होने वाला। क्योकि परमात्मा तो सर्वव्याप्त है,सब जगह मौजूद है। ऐसे मे परमात्मा को किसी सीमित दायरे मे बाँध कर हम उसे बहुत छोटा कर देते हैं। ऐसे लोग परमात्मा को नही पा सकते बल्कि उल्टे भटकाव मे पड़ जाते हैं|

गुरुवार, 28 अप्रैल 2011

कबीर के श्लोक - ६७

कबीर कारनु सो भईउ, जो कीनो करतारि॥
तिसु बिनु दूसरु को नही, ऐकै सिरजनहारु॥१३३॥


कबीर जी कहते हैं कि कई बार हम चाह कर भी उस परमात्मा से नही जुड़ पाते।इस बात से हमे कभी परेशान नही होना चाहिए।  हम तभी उस से जुड़ पाते हैं जब वह परमात्मा हमे अपने साथ जोड़ना चाहता है।क्योकि उस के बिना कोई दूसरा है ही नही। वह स्वयं ही सारी सृष्टि का करता धरता है।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि उस परमात्मा का ध्यान करना हमारा फर्ज है, हमे अपनी पूरी कोशिश करनी चाहिए। लेकिन साथ ही यह भी याद रखना चाहिए कि जब तक उस की कृपा किसी पर नही होती कोई उस परमात्मा के साथ नही जुड़ सकता। क्योकि जब हम कोशिश करते हैं तो सबसे पहले हमारे पुरानें संस्कारों का विसृजन होता है । इस तरह जबतक हम परमात्मा की दष्टि मे सुपात्र नही बनते हम उस से नही जुड़ पाते।

कबीर फल लागे फलनि, पाकनि लागे आंब॥
जाइ पहूचहि खसम कऊ,जऊ बीचि ना खाही कांब॥१३४॥


कबीर जी कहते हैं कि जब वृक्ष पर फल लगते हैं तो वह सहज सहज पकने लगते हैं। इस बीच मौसम की मार उस पर पड़ती रहती है, हवा के थपेड़े उसे झंकझोरते रहते हैं। यदि वह फल उस सब से सही सलामत आगे निकल जाता है तभी वह फल पक कर मालिक तक पहुँचता है।

कबीर जी हमे कहना चाहते हैं जब कोई उस परमात्मा की ओर अपना ध्यान लगाता है तो संसारिक प्रलोभन व मोह माया हमे बहुत तेजी से प्रभावित करने की कोशिश करने लगती है ।जब हम इस सभी से पार पा लेते हैं तभी उस परमात्मा तक पहुँच पाते हैं।


गुरुवार, 21 अप्रैल 2011

कबीर के श्लोक - ६६

कबीर साकत संग न कीजीऐ, दूरहि जाईऐ भागि॥
बासनु कारो परसीऐ, तऊ कछु लागै दागु॥१३१॥

कबीर जी कहते है कि जो लोग परमात्मा को भूले रहते हैं ऐसे लोगो का संग कभी भी नही करना चाहिए।क्योकि जिस प्रकार कोई काले हुए बर्तन को छूने से उस बर्तन की कालापन हमें भी लग जाता है ठीक उसी तरह जो परमात्मा को भुलाये बैठे लोग हैं उन का साथ करने से हम भी उसी तरह के हो सकते हैं।

कबीर जी हमे कहना चाहते हैं कि हमारे जीवन मे संगत का बहुत असर होता है यदि हम किसी बुरे की संगत करेगें तो हमारे भीतर बुराई आने लगेगी। इस लिये ऐसे लोगों से सदा बचना चाहिए।


कबीर रामु न चेतिउ, जरा पहूंचिउ आइ॥
लागी  मंदरि दुआर ते, अब किआ काढिआ जाइ॥१३२॥

कबीर जी कह्ते हैं कि हम सारे जीवन उस परमात्मा को भूले रहते हैं हमारा ध्यान कभी भी उस परमात्मा की ओर नही जाता और हम बूढे हो जाते हैं।जिस प्रकार किसी घर के द्वार पर ही आग लग जाये तो उसमें से बाहर निकलना कठिन हो जाता है ठीक उसी तरह जब हम जीवन भर दूसरी बातों मे लगे रहते हैं तो आखिर में वे बातें हमे घेर लेती है जिस कारण हम बुढापे में भी उस परमात्मा को पाने मे असमर्थ ही रहते हैं।

कबीर जी कहना चाहते हैं समय रहते ही उस परमात्मा के साथ एकाकार को प्राप्त कर लेना चाहिए। नही तो हम जो जीवन भर करते रहते हैं ,वही संस्कार हमे अंत मे पकड़ लेते हैं । उस समय उन से छुट्कारा पाना बहुत मुश्किल हो जाता है।

गुरुवार, 14 अप्रैल 2011

कबीर के श्लोक - ६५

कबीर सूता किआ करहि बैठा रहु अरु जागु॥
जा के संग ते बीछुरा, ता ही के संगि लागु॥१२९॥

कबीर जी कहते हैं कि मोह माया कि निद्रा मे मस्त होकर बैठा मत रह। जरा होश संभाल,जाग जा।जरा विचार कर कि तू किस से बिछड़ गया है। तुझे तो उसी के साथ वापिस जुड़ना है।

कबीर जी हमे समझाना चाहते हैं कि मोह माया जीव को अपने पाश मे जकड़ लेती हैं जिस कारण जीव यह विचार करना भूल जाता है कि वह कहाँ से आया है और उसे कहाँ जाना है। जिस तरह हरेक चीज अपने केन्द्र पर पहुँच कर पूर्णत: को प्राप्त करलेती है ठीक उसी तरह जब जीव जहाँ से आया है उसी जगह पहुँच कर आनंद से भर जाता है। कबीर जी हमे इसी लिये इस बात की ओर प्रेरित कर रहे हैं।

कबीर संत की गैल न छोडीऐ, मारगि लागा जाउ॥
पेखत ही पुंनीत होइ, भेटत जपीऐ नाउ॥१३०॥

कबीर जी कह्ते हैं कि हमे संतों का रास्ता नही छोड़ना चाहिए , उसी मार्ग पर चलने मे ही हमारा कल्याण है।क्योकि साधू संतों के दर्शन करने मात्र से हमारे मन भी उस परमात्मा के प्रति प्रेम का जन्म हो जाता है जिस कारण से हम भी उस परमात्मा के ध्यान के रास्ते पर चलने लगते हैं।

कबीर जी हमे कहना चाहते हैं कि जिस मार्ग पर चल कर साधक उस परमात्मा तक पहुँचता है हमे भी उसी मार्ग पर चलना चाहिए। ऐसे भक्तो के दर्शन मात्र से मन पवित्र हो जाता है और मन उस परमात्मा की ओर आकर्षित होने लगता है।इसी लिये कबीर जी ऐसे लोगों के रास्ते पर चलने के लिये कह रहे हैं।

गुरुवार, 7 अप्रैल 2011

कबीर के श्लोक - ६੪

कबीर सूता किआ करहि,जागु रोइ भै दुख॥
जा का बासा गोर महि,सो किउ सोवै सुख॥१२७॥

कबीर जी कह्ते हैं कि तुम मोह माया की नींद मे सोये हुए क्या कर रहे हो। जरा समझादारी करो और जाग जाओ और इन कलेशों दुख और भय से मुक्त होने कि कोशिश करो।क्योकि ये जो मोह माया है तुम्हें एक गहरी गुफा में फँसाये रखती है, जहाँ पर तुम क्षणिक सुखों के भ्रम में सोये रहते हो।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि जीव संसारिक कार -विहार करते हुए उसी मे मस्त हो जाता है और उस परमात्मा को भूल जाता है, जिसे पाने के लिये हमें यह मनुष्य का शरीर मिला है।यहाँ कबीर जी हमे क्षणिक सुखों को छोड़ कर स्थाई सुख पाने के लिये प्रेरित कर रहे हैं।

कबीर सूता किआ करहि,उठि कि न जपहि मुरारि॥
इक दिन सोवनु होइगो लांबे गोड पसारि॥१२८॥

कबीर जी आगे पुन: कहते हैं कि इस माया मोह की नीड मे सोया हुआ तू क्या कर रहा है, जरा उठ कर उस परमात्मा का ध्यान क्यं  नही करता। वैसे भी एक दिन तो तुझे सदा के लिये सोना ही है।

कबीर जी हमे कहना चाहते हैं कि इन क्षणिक सुखो से कुछ  हासिल नही होने वाला। इस लिये उस परमात्मा से अपना नाता जोड़ ले। क्योकि एक दिन हम सभी को मृत्यू की गोद में सदा के लिये सोना ही पड़ता है।फिर क्यो ना माया में भ्रमित होने की बजाय उस परमात्मा का ध्यान करें। जो सदा स्थाई सुख प्रदान करता है।



सोमवार, 28 मार्च 2011

कबीर के श्लोक - ६३



कबीर चकई जौ निसि बीछुरै,आइ मिलै परभाति॥
जो नर बिछुरे राम सिउ,ना दिन मिले न राति॥१२५॥

कबीर जी कहते हैं कि जिस प्रकार चकवी रात को अपने साथी से बिछुड़ जाती है,लेकिन सवेरे पिर उस से आ कर मिलती है। इन दोनों के मिलन मे मात्र रात का अंधेरा ही बाधा बनता है जो चार पहर मात्र का होता है।लेकिन जो जीव उस परमात्मा से एक बार बिछुड़ जाता है, वह ना तो दिन को मिल पाता है और ना ही रात को।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि व्यवाहारिक रूप से जो हमारा मिलना बिछुड़ना होता है वह ज्यादा लम्बा नही होता। लेकिन परमात्मा से एक बार बिछुड़ने के बाद फिर से मिलना आसान नही होता।क्योकि उस से अलग होते ही हमारे भीतर अंहकार का जन्म हो जाता है जिस से छुटकारा पाना आसान नही होता।ये अंहकार हमे विषय -विकारों में उलझाता चला जाता है।


कबीर रैनाइर बिछोरिआ, रहु के संख मझूरि॥
देवल देवल धाहड़ी,देसहि उगवत सूर॥१२६॥

कबीर जी आगे कहते हैं कि जिस प्रकार रात को समुद्र मे ज्वार- भाटा आने पर शंख लहरों के साथ बाहर आता है और रेत मे ही पड़ा रह जाता है, फिर कोई उसे उठा कर मंदिरों तक पहुँचा आता है जहाँ उसे बजाया जाता है।इस तरह वह समुद्र से, जहाँ वह जन्मता है, बिछुड़ जाता है।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि सम्पूर्ण सृष्टि का आधार एकमात्र परमात्मा ही है उस से बिछुड़ कर ही जीव दुख पाने लगता है।अर्थात संसारिक मोह माया मे फँस जाता है।


सोमवार, 21 मार्च 2011

कबीर के श्लोक - ६२

कबीर चुगै चितारै भी चुगै,चुगि चुगि चितारे॥
जैसे बचरहि कूंज, मन माइआ ममता रे॥१२३॥


कबीर जी कहते हैं कि जिस तरह पक्षी दाना चुगते समय अपने बच्चों के लिये भी दाना ले जाना है इस बात का सदा ध्यान लगाये रखते हैं ,ठीक उसी तरह जीव का ध्यान भी परमात्मा का नाम लेते समय हमेशा संसारी कार-विहार मे ध्यान  लगा रहता है।

कबीर जी हमे समझाना चाहते हैं कि हम जब भी कोई कार्य करते हैं हमारा ध्यान भूत और वर्तमान मे या वर्तमान और भविष्य मे एक साथ बना रहता है।अर्थात परमात्मा का ध्यान करते समय हम भूत और भविष्य का चिंतन करते रहते हैं।


कबीर अंबर घनहरु छाइआ,बरखि भरे सर ताल॥
चात्रिक जिउ तरसत रहै,तिन को कौनु हवालु॥१२४॥


कबीर जी कहते हैं कि बादल आकाश मे छा जाता है और बरखा कर के सभी तालाब और सरोसरो को भर देता है।लेकिन चात्रिक पक्षी फिर भी बारिस की बूँद को तरसता रहता हैं और कूकता रहता है।क्यों कि उस का स्वाभाव है कि वह मात्र बारिश की बूँद से ही अपनी प्यास बुझाना चाहता है।इस लिये वह सदा परेशान ही होता है।

कबीर जी समझाना चाहते हैं कि जिस प्रकार चात्रिक पक्षी ताल और सरोवर भरे होने पर भी सिर्फ बारिश की बूँद से ही अपनी प्यास बुझाना चाहता है ठीक उसी तरह जीव माया के प्रति ही आसक्त रहता है जबकि परमात्मा सब जगह मौजूद रहता है लेकिन वह उस स्थाई परमानंद को छोड़ कर क्षणिक सुखों के पीछे भागता रहता है।


सोमवार, 14 मार्च 2011

कबीर के श्लोक - ६१

कबीर चरन कमल की मौज को,कहि कैसे उनमान॥
कहीबे कौ सोभा नही,देखा ही परवानु॥१२१॥


कबीर जी कहते हैं कि जो  उस परमात्मा के आथ एकाकार हो चुके हैं,उनके आनंद के बारे मे कुछ कहा नही जा सकता।क्योंकि उस आनंद के बारे में कहने से किसी को कुछ भी पता नही चल सकता।इस आनंद के बारे में तो तभी जाना जा सकता है जब कोई उसी अवस्था मे पहुँचता है।

कबीर जी समझाना चाहते हैं कि मात्र किसी बात को सुनने से या जान लेने से कोई लाभ नही मिलता। यदि उस बारे में जानना है तो उसके लिये स्वयं का अनुभव होना जरूरी है।अर्थात कबीर जी कहना चाहते हैं कि यदि उस परमानंद को पाना है तो उस मे स्वय्म को खोना ही पड़ेगा। तभी हम उस को जान सकेगें।


कबीर देखि कै किह कहौ, कहे न को पतीआऐ॥
हरि जैसा तैसा उही, कहु हरखि गुन गाऐ॥१२२॥


कबीर जी आगे कहते हैं कि जब भी कोई उसे जान लेता है तो उसके बारे में ठीक से कभी कह नही पाता।क्योकि उस परमात्मा के समान कुछ है ही नही जिसका सहारा लेकर उस बारे में समझाया जा सके।परमात्मा जैसा तो सिर्फ परमात्मा ही है।इस लिये हम तो मात्र उस की महीमा को ही गा सकते हैं।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि परमात्मा को जानने वाले भक्त भी उसके बारे मे मात्र इशारा भर कर सकते हैं।उसकी महीमा गा सकते हैं। लेकिन किसी को भी उस का अनुभव नही करा सकते।




सोमवार, 7 मार्च 2011

कबीर के श्लोक - ६०




कबीर नैन निहारौ तुझ कऊ, स्रवन सुनौ तुअ नाउ॥
बैन ऊचरऊ तुअ नाम जी,चरन कमल रिद ठाउ॥११९॥

कबीर जी कहते हैं कि जब परमात्मा का निवास हमारा ह्र्दय मे हो जाता है तो हमारी ये आँखे हर जगह उसे ही निहारने लगती है और हमारे कान बस उसी का नाम ही सुनने लगते हैं। तब परमात्मा का नाम ही मुँह से निकलता है।

कबीर जी हमे कहना चाहते हैं कि जब कोई परमात्मा के साथ जुड़ जाता है,एकाकार हो जाता है। तब उस जीव द्वारा किये गये सभी कार्य ईश्वरमय ही हो जाते हैं। वह जो भी कार्य करता है या बोलता है,उसमें उस परमात्मा की झलक मौजूद रहती है।

कबीर सुरग नरक ते मैं रहिउ , सतिगुर के परसादि॥
चरन कमल की मौज महि, रहौ अंति अरु आदि॥१२०॥

कबीर जी आगे कहते हैं कि परमात्मा के ह्र्दय मे बसने के बाद  स्वर्ग और नरक की समस्या भी नही रहती और यह सब उस परमात्मा की कृपा से ही होता है। उस परमात्मा के साथ एकाकार होने के बाद जीव सदा के लिए परमानंद की मस्ती मे डूबा रहता है। ऐसे में उसे कोई चिंता नही सताती।

कबीर जी हमे कहना चाहते हैं कि यह सब हमारे यत्न के कारण नही होता बल्कि परमात्मा की कृपा के कारण ही हम उस से एकाकार हो पाते हैं । इस तरह हमारे मन से स्वर्ग और नरक का भय भी समाप्त हो जाता है जोकि हमारे अपने मन की ही उपज होता है।परमात्मा के साथ जुड़ा जीव चिंता रहित जीवन जीता है।

सोमवार, 28 फ़रवरी 2011

कबीर के श्लोक - ५९

कबीर जगु बाधिउ जिह जेवरी, तिह मत बंधहु कबीर॥
जै हरि आटा लोन जिउ, सोन समानि सरीर॥११७॥

कबीर जी कहते हैं कि ये सारा संसार ममता और मोह रूपी रस्सी के साथ बंधा हुआ  है।कबीर जी कहते हैं कि तुम भी इसी बधंन में मत बंध जाना। इन  भौतिक कामनाओं के मोह के कारण ,तुझे जो यह अमुल्य सोने के समान शरीर मिला है ,इसका मिलना व्यर्थ ही जायेगा यदि तू संसारिक मोह के बधंनों में ही फँसा रहा।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि यह जो मनु्ष्य जन्म मिला है यह बहुत कीमती है। हमे समय रहते इसका उपयोग परमात्मा की प्राप्ती के लिए करना चाहिए।अन्यथा ये मनुष्य का शरीर व्यर्थ के कामों मे ही उलझा रहेगा और बेकार ही जायेगा।कबीर जी इसी लिए हमे सचेत कर रहे हैं।


कबीर हंस उडिउ तनु गाडिउ,सोझाई सैनाह॥
अजहू जीउ न छोडई, रंकाई नैनाह॥११८॥

कबीर जी कहते हैं कि ये संसारिक मोह ममता का बधंन बहुत मजबूत होता है जीव अपने अंतिम समय में, जब मौत उसके सिर पर खड़ी होती है, उस समय भी ये जीव इन मोह ममता आदि के बधंनों से मुक्त नही हो पाता। उस समय भी इसी का चिंतन करता रहता है।

कबीर जी हमे समझाना चाहते हैं कि यदि हम इन  मोह ममता रूपी बधंनो मे बंधें रहेगें तो  अपने जीवन के अंतिम समय में यह बधंन हमे इतनी मजबूती से जकड़ लेगें की हम इन्हें नही छोड़ पायेगें।इसी लिए कबीर जी हमे सचेत करना चाहते हैं कि समय रहते ही हमें इन बधंनो से आजाद हो जाना चाहिए। अन्यथा इनसे छुटकारा पाना हमारे लिए असंम्भव हो जायेगा।

सोमवार, 21 फ़रवरी 2011

कबीर के श्लोक - ५८

बूडा बंसु कबीर का, उपजिउ पूतु कमालु॥
हरि का सिमरनु छाडि कै,घरि ले आया मालु॥११५॥

कबीर जी कहते हैं कि जब मेरा वंश बूढ़ा था उस समय मेरे मन मे नासमझी वाली बातें आती रहती थी।बूढ़ा वंश अर्थात कमजोर मन ने उस परमात्मा का सिमरन करना छोड़ दिया था। ऐसे में मेरे मन मे दुनियावी पदार्थो को इक्ठ्ठा करने की प्रवृति जाग गई।

कबीर जी कहना चाहते हैं जब हमारा मन कमजोर होता है तो हमारे भीतर ऐसे विचारों का जन्म होता है,जिस से हम प्रभू से दूर हो जाते हैं और भौतिक साधनों को इक्ट्ठा करने में ही लगे रहते हैं।अर्थात कबीर जी कहना चाहते हैं कि जो लोग परमात्मा से दूर होते हैं उनका मन भी कमजोर हो जाता है।

कबीर साधू कौ मिलने जाइऐ, साथि ना लीजै कोइ॥
पाछै पाउ न दीजिऐ, आगै होइ सु होइ॥११६॥

कबीर जी कह्ते हैं कि जब हम किसी साधू से मिलने जायें अर्थात परमात्मा के भक्त से मिलने जायें ,तो अपने साथ किसी को भी और कुछ भी ले कर नही जाना चाहिए। किसी बात से घबराकर हमें अपने कदम पीछे नही हटाने चाहिये।बल्कि बिना डरे आगे बढते जाना चाहिए।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि जब  हम किसी परमात्मा के भक्त के पास जाते हैं तो किसी प्रकार की शंकाये लेकर नही जाना चाहिए।क्योकि परमात्मा का भक्त जो भी बात बोलेगा वह अपने अनुभव से प्राप्त बात ही बोलेगा। इस लिए मन मे कोई शंका नही करनी चाहिए और उसके दिये उपदेश के अनुसार निर्भय हो कर उस का पालन करना चाहिए। तभी हम उस अवस्था को पा सकेगें जिसे उसने पाया हुआ है।

सोमवार, 14 फ़रवरी 2011

कबीर के श्लोक - ५७

कबीर सभु जगु हऊ फिरिउ, मांदलु कंध चढाइ॥
कोई काहू को नही, सभ देखी ठोकि बजाइ॥११३॥

कबीर जी कहते हैं कि कंधे पर ढोल टाँग कर मै उसे बजाता फिरता रहा और सारे जगत मे भ्रमण कर देख लिआ है कि यहाँ ऐसा कोई भी नही जो सदा किसी का साथ निभाता है। इस बात को अच्छी तरह समझ कर देख लिआ है।

कबीर जी हमें समझाना चाहते हैं कि इस जगत में तुम्हारा साथ सदा किसी ने नही देना।चाहो तो किसी से भी पूछ लो कि ऐसी कोई चीज या आदमी है जो सदा तुम्हारा साथ निभा सके ? इन प्रश्नों का उत्तर होगा "नही!" सभी यही जवाब देगें। भले ही जितनी मर्जी जाँच -पड़ताल कर लो। अर्थात कबीर जी हमे समझाना चाहते हैं कि एकमात्र ईश्वर का नाम ही ऐसा हैं जो सदा साथ निभा सकता है।

मारगि मोती बीथरे, अंधा निकसिउ आइ॥
जोति बिना जगदीस की,जगतु उलंघे जाइ॥११४॥

कबीर जी आगे कहते हैं कि हमारे मार्ग में मोती बिखरे पड़े हैं लेकिन अंधा उन्हें देख नही पाता और आगे निकल जाता है। उस का एकमात्र कारण यही है कि हमारे पास उस परमात्मा की दी हुई ज्योति नही है। इस कारण सारा जगत ही इन्हें लाँघता हुआ  चला जा रहा है।

कबीर जी ने पिछले श्लोक मे हमे समझाया था कि एकमात्र परमात्मा का नाम ही हमारा साथ निभाता है लेकिन यह साथ तभी मिलता है जब ईश्वर हमे अपने आप को पहचानने की समझ देता है।यदि यह ज्योति हमारे पास नही है तो हम मोतीयो रूपी यह जो जीवन दिया है, जिस मे हम ईश्वर के नाम रूपी मोतीयों को पा सकते हैं, नही पा पाते।अर्थात कबीर जी कहना चाहते हैं कि हमे ईश्वर की कृपा पाने की चैष्टा करनी चाहिए ताकी ईश्वर हमपर कृपा करे और हम अपने जीवन को ईश्वरमय कर परमानंद मे जीयें।

सोमवार, 7 फ़रवरी 2011

कबीर के श्लोक - ५६

कबीर सोई कुल भली, जा कुल हरि को दासु॥
जिहु कुल दासु न ऊपजै, सो कुल ढाकु पलासु॥१११॥

कबीर जी कहते हैं कि जिस कुल मे परमात्मा का साधक पैदा हो जाता है वही कुल सब से अच्छी है और जिस कुल मे परमात्मा की भक्ति करने वाला कोइ नही होता वही कुल ढाक पलाश की तरह व्यर्थ है ।

कबीर जी हमे समझाना चाहते हैं कि किसी कुल का बड़ा होना और छोटा होना जैसा की समाज देखता है वह सही नही है। वास्तव में कुल तो वह बड़ी होती है जिस में परमात्मा का भक्त होता है अर्थात जिस कुल के लोग भलाई व  सही रास्ते पर चलने वाले होते हैं वही कुल श्रैष्ट है। भले ही समाज उसे हीन दृष्टि से देखता हो। जैसे कबीर जी जुलाहा जाति के होते हुए भी परमात्मा को प्राप्त कर सके और सदैव भलाई के कामों मे लगे रहे।जिस का कारण उन के कुल को सम्मान मिला।जबकि उन्हे समाज छोटे कुल का मानता था।यही कबीर जी हमे इस श्लोक मे समझाना चाहते हैं।


कबीर है गइ बाहन सघन घन,लाख धजा फहराइ॥
इआ सुख ते भिख्खा भली,जऊ हरि सिमरत दिन जाइ॥११२।

कबीर जी कहते हैं कि यदि सवारी करने के लिए अनेक घोड़ें हो और महल आदि के ऊपर अनेक झंडें झूल रहे हों। लेकिन इन सब साधनों के होने पर भी इन का कोई फायदा नही है। इन सब से प्राप्त सुख से तो वह सुख अच्छा है कि भले ही भीख माँगनी पड़े ,लेकिन उस परमात्मा का ध्यान सदा बना रहे।

कबीर जी हमे समझना चाहते हैं कि भौतिक सुखों से हम कभी सुखी नही हो सकते,क्योकि ये सभी सुख अस्थाई हैं। वैसे भी भौतिक सुख सिर्फ शरीरिक सुख ही दे पाते हैं और जो साधन आज तुम्हारे पास हैं वे कल छिन भी सकते है। इसी लिए कबीर जी कहना चाहते हैं कि इन साधनों के ना होने पर भी यदि उस परमात्मा की भक्ति का सहारा लिआ जाए तो उस से मानसिक सुख मिलेगा। जो कि सदा स्थाई बना रहेगा।

शुक्रवार, 28 जनवरी 2011

कबीर के श्लोक - ५५

कबीर चतुराई अति घनी,हरि जपि हिरदै माहि॥
सूरी ऊपर खेलना, गिरै त ठाहर नाहि॥१०९॥

कबीर जी कहते हैं कि यदि दुनिया के भरमो-वहमों से बचना है तो सब से बढ़िया समझादारी यह है कि हम उस परमात्मा को अपने ह्र्दय मे बसा ले। लेकिन परमात्मा की याद सदा दिल मे बनाये रखना बहुत मुश्किल काम है, क्योकि संसार में अनेक तरह के प्रलोभन और विकार हैं जो हमे अक्सर अपनी ओर खीचते रहते हैं जिस कारण उस परमात्मा की याद बिसर जाती है।कबीर जी कहते हैं कि परमात्मा की याद सदा दिल मे बनाये रखना,ठीक ऐसा है जैसे सॊली के ऊपर चड़ना।लेकिन इस के सिवा दूसरा कोई रास्ता भी नही है जिस से संसारिक दुख -कलेशों से बचा जा सके।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि परमात्मा की याद सदा दिल मे बनाये रखना भले ही आसान नही है लेकिन यदि हमे दुखो-कलेशों और भरमो से मुक्ति पानी है तो उस परमात्मा की याद को सदा दिल मे जागाये रखना होगा।

कबीर सोई मुखु धंनि है,जा मुखि कहीऐ रामु॥
देही किस की बापुरी, पवित्रु होइगो ग्रामु॥११०॥

कबीर जी आगे कहते हैं कि इस तरह जो परमात्मा को अपने दिल मे सदा के लिये बसा लेते हैं और मुँह से उस का नाम लेते हैं वे धन्य हैं। क्योकि उस परमात्मा के नाम के प्रभाव के कारण यह मात्र शरीर ही नही बल्कि पूरा गाँव ही पवित्र ही जाता है।

क्बीर जी कहना चाहते हैं कि जब कोई उस परमात्मा के साथ एकाकार हो जाता है तो ऐसे भक्त के आस-पास का माहौल भी राममय होने लगता है।क्योकि हमारी भावनाओं को प्रभाव हमारे आस-पास रहने वालों पर भी पड़ता है। जिस कारण उन के मन मे भी पवित्रता का संचार होने लगता है।

शुक्रवार, 21 जनवरी 2011

कबीर के श्लोक - ५४

कबीर हरि का सिमरनु छाडि कै,राति जगावन जाए॥
सरपनि होइ कै अऊतरै, जाइ अपुने खाए॥१०७॥


कबीर जी कहते हैं कि जो उस परमात्मा का सिमरन छोड़ कर ऐसे कामों मे लग जाते हैं जो रात मे किए जाते हैं और जीव को अंधेरे मे ले जाते हैं। ऐसे लोग साँप की तरह ही पैदा होते हैं, जो अपने बच्चों को ही खा जाता है।

कबीर जी हमे समझाना चाहते हैं कि यदि हम परमात्मा का ध्यान करना छोड़ देते है तो हमारा मन गलत रास्तों मे भटकने लगता है। ऐसे मे वह जो काम करता है वह उस के ही अहित का कारण बन जाता है।

कबीर हरि का सिमरनु छाडि कै,अहोई राखै नारि॥
गदही होइ कै अऊतरै,भारु सहै मन चारि॥१०८॥


कबीर जी अपनी बात को पुन: दोहराते हुए कहते हैं कि परमात्मा की भक्ति छोड़ने से बहुत-सी स्त्रीयां व्रत आदि रखने लगती हैं कि इस तरह करने से  इष्ट खुश हो जाएगा। लेकिन कबीर जी कहते है कि ऐसी स्त्रीयां गधी के समान है जो व्यर्थ का चार मन  का बोझा ढोती रहती हैं।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि हम उस परमात्मा का ध्यान ना कर के  व्यर्थ के कर्म कांडो को करते रहते हैं ।इस तरह के कर्म कांडो से सिर्फ हमारे मन पर बोझ ही बढ़ता है। हम इसी उधेड़ बुन मे उलझे रहते हैं कि हमने अपने कर्म कांड सही किए या नही। इस तरह व्यर्थ का बोझ हमारे मन पर बढ़ता रहता है और हम गधे की तरह उसे ढोते रहते हैं।वास्तव मे कबी जी हमे ऐसे व्यर्थ के कर्म कांडो से बचने के लिए सचेत कर रहे हैं।

शुक्रवार, 14 जनवरी 2011

कबीर के श्लोक - ५३

कबीर जेते पाप कीऐ,राखे तलै दुराऐ॥
परगट भऎ निदान सभ,जब पूछे धरम राऐ॥१०५॥

कबीर जी कहते हैं कि जीव जितने भी पाप करता है उन्हें वह हमेशा सब से छुपा कर रखता है। लेकिन उन पापों का फल तो समय पा कर प्रगट हो ही जाता है और इन पापो से कैसे बचा जा सकता था यह भी सामने आ जाता है  जब हमारे पापो के संबध  में धर्मराज हमसे पूछता है।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि हम जो पाप सब से छुपा कर करते हैं, उन से बचने का उपाय भी हमारे भीतर ही होता है। इन पापों का निदान तभी प्रकट होता है जब हमने अपने अंतकरण रूपी धर्मराज को जाग्रत कर रखा हो।


कबीर हरि का सिमरनु छाडि कै,पालिउ बहुतु कुटंबु॥
धंधा करता रहि गयिआ,भाई रहिआ न बंधु॥१०६॥

कबीर जी कहते हैं कि उस परमात्मा का ध्यान छोड़ कर जीव  अपने कुटुंब के पालन करने मे ही लगा रहता है। अपने परिवार की पालना करते हुए वह अपना सारा समय गँवा देता है और अंतत: जिन के लिए वह यह सब कर रहा था वे लोग भी उस के साथ नही रहते।

कबीर जी हमे समझाना चाह्ते हैं कि जीव अपने मोह और लालच के कारण पाप मे पड़ता है।इन सब का मूल कारण परमात्मा का ध्यान ना करना ही है।यदि हम उस परमात्मा का ध्यान करते हुए अपने सारे कार-विहार करेगें तो हमे कोई परेशानी नही होगी। लेकिन जीव तो उस परमात्मा को बिसार कर, अपने काम -धंधे मे ही लगा रहता है और जिन के लिए वह ये सब करता है अंतत: वह भी उसे छोड़ कर चले जाते हैं।

शुक्रवार, 7 जनवरी 2011

कबीर के श्लोक - ५२

कबीर जो हम जंतु बजावते टूटि गईं सभ तार॥
जंतु बिचारा किआ करै चले बजावनहार॥१०३॥

कबीर जी कहते हैं कि जिस यंत्र को हम बजा रहे हैं उस यंत्र के तो सभी तार टूट ही गये हैं।कबीर जी आगे कहते हैं कि इस मे इस यंत्र का क्या कसूर है,यह तो घिस-पिट कर एक दिन नष्ट होना ही था। लेकिन यह यंत्र भी क्या करे,जो इस यंत्र को बजा रहा था वह भी चला गया।

कबीर जी हमे इस श्लोक द्वारा समझाना चाहते हैं कि हमारे इस शरीर रूपी यंत्र को यह मन विषय-विकारों में उलझा कर खूब नचाता रहता है,लेकिन जब हम उस परमात्मा के नाम का सहारा पकड़ लेते हैं तो इस शरीर रूपी यंत्र के विषय-विकार रूपी तार टूट जाते हैं, ऐसे मे यह शरीर रूपी यंत्र विकारों से मुक्त हो जाता है। आगे कबीर जी हमे समझाते है कि सिर्फ यह तार ही नही टूटते बल्कि इस यंत्र को बजाने वाला हमारा मन भी चला जाता है अर्थात हमारा मन एक जगह ठहर जाता है।इस श्लोक मे कबीर जी परमात्मा के नाम का महत्व समझाना चाहते है।


कबीर माइ मूँढऊ तिहु गुरू की,जा ते भरम न जाइ॥
आप ढुबे चहु बेद महि,चेले दिऐ बहाइ॥१०४॥

कबीर जी कहते हैं कि ऐसे गुरू जो तुम्हारे भरमों को दूर नही कर सकते, उन गुरुओं की तो माँ का सिर ही मूंड देना चाहिए।क्योकि ऐसे गुरू स्वयं तो कर्म कांडो मे पड़े रहते है और अपने चेलों को भी इन्हीं कर्मकांडो मे उलझा देते हैं।

कबीर जी हमे कहना चाहते हैं कि ( जैसा की पिछले श्लोक मे कहा है) सारा खेल तो इस मन का है। लेकिन बहुत से गुरु स्वयं तो वेदों को रट कर, उन की सुन्दर सुन्दर व्याख्याएं कर के अपने चेलों को भी भरमाते हैं और शास्त्र आदि रटवाने लगते है। कबीर जी कहते हैं कि इस तरह के कर्मकांडो से कोई लाभ नही होने वाला। ऐसे गुरू स्वयं तो भटकते है ,साथ ही अपने चेलों को भी गलत रास्ते पर ले जाते हैं। कबीर जी इस आध्यात्मिक भटकाने वालों को बहुत बड़ा पापी मानते हैं इसी लिए वह कहते है कि ऐसे गुरूओ की माँ का सिर मूड देना चाहिए।यहाँ पर माँ का सिर मूंडने का भाव ऐसे गुरुओ के प्रति एक सांकेतिक विरोध करना मात्र ही है।