फरीदा बे निवाजा कुतिआ,ऐह ना भली रीति॥
कब ही चलि न आइआ,पंजे वखत मसीति॥७०॥
उठ फरीदा,अजू साजि,सुबहि निवाज गुजारि॥
जो सिरु सांई ना निवै,सो सिरु कपि उतारि॥७१॥
जो सिरु सांई न निवै,सो सिरु कीजै कांइ॥
कंने हेठि जलाईऐ ,बालणि संदै थाइ॥७२॥
फरीदा किथै तैडे मापिआ,जिनी तू जणिउहि॥
तै पासहु उइ लदि गै,तूं अजै न पतीणोहि॥७३॥
फरीद मनु मैदानु करि,टोऐ इथे लाहि॥
अगै मूलि न आवसी,दोजक संदी भाहि॥७४॥
फरीद जी कहते हैं कि जो लोग नमाज़ नहीं पढते अर्थात जो बंदगी नही करते ,पाँच
वकत की नमाज़ के लिए मस्जिद नही जाते वह कुत्तों के समान हैं,उन के इस तरह
जीनें का तरीका अच्छा नहीं कहा जा सकता।
अगले श्लोक में फरीद जी फिर कहते हैं कि उठ मुँह हाथ धो और सुबह की नमाज़
पढ़। क्युँकि जो सिर अपने सांई के आगे नही झुकाता,ऐसे सिर को तो काट कर फैंक देना चाहिए।
क्युँकि जो सिर अपने सांई के आगे नही झुकता,ऐसे सिर का क्या करना? ऐसे सिर को
जो झुकना नही जानता,ऐसे सिर को हांडी के नीचे जला देना चाहिए।
फरीद जी आगे कहते हैं कि देख जिन्होनें तुझे पैदा किया था।वह तेरे माता पिता भी अब कहाँ
हैं अर्थात वह भी अब संसार छॊड़ कर जा चुके हैं।यह सब जो तेरे साथ हुआ है तू उसे देख
कर भी यह नही समझ पा रहा कि तुझे भी इसी तरह एक दिन चले जाना है।इस लिए तू
प्रभु की भक्ति क्यूँ नही करता?
फरीद जी आगे मन के विषय में कहते हैं कि तुम अपने मन को मैदान की तरह समतल
कर लो और अपने मन में जो गड्डे हैं उन की ओर ध्यान मत दो।इस तरह करनें से तू
दोजख की आग से बच जाएगा।अर्थात फरीद जी कहना चाह रहे हैं कि यह सब मन का ही खेल है
जो हमें भटकाता रहता है।यदि हम इस मन को साध ले,तो हम सही दिशा की ओर जा सकते हैं।