मंगलवार, 28 सितंबर 2010

कबीर के श्लोक -३९

कबीर पारस चंदनै, तिन्ह है एक सुगंध॥
तिह मिलि तेऊ ऊतम भए, लोह काठ निरगंध॥७७॥

कबीर जी कहते हैं कि पारस और चंदन इन दोनों मे एक एक गुण होता है। इस लिए इनके संपर्क मे आने वाले लोहे और लकड़ी इन के इन गुण को

मंगलवार, 21 सितंबर 2010

कबीर के श्लोक -३८

कबीर जपनी काठ की, किआ दिखलावहि लोइ॥
हिरदै रामु न चेतही, ऐह जपनी किआ होइ॥७५॥

कबीर जी कहते है कि हाथ मे रुद्राक्ष या तुलसी आदि काठ की बनी मालायें ले कर क्या दिखाते फिर रहे हो। यदि तुम्हारे ह्र्दय मे परमात्मा की याद कभी आती ही नही इन सब दिखावे से कोई लाभ होने वाला नही।

मंगलवार, 14 सितंबर 2010

कबीर के श्लोक -३७

कबीर गागरि जल भरी, आजु कालि जैहै फूटि॥
गुरु जु न चेतहि आपनो, अध माझि लीजहिगे लूटि॥७३॥

कबीर जी कहते हैं कि यह जो हमारा जीवन है वह एक पानी से भरी गागर के समान है जिसने अज नही तो कल फूट ही जाना है। इसलिए हमे अपने गुरु को सदा याद रखना चाहिए। कहीं ऐसा ना हो कि हम जिस काम के लिए आए है वह बीच में ही छूट जाए और कोई हमे लूट ले।

कबीर जी हमे समझाना चाहते हैं कि यह जीवन कब समाप्त हो जाए कोई नही जानता।इस लिए इस जीवन का सदुपयोग कर लेना चाहिए। इस के लिए हमे अपने गुरु को सदा याद रखना चाहिए अर्थात उन की कही बातो पर, उपदेशो पर, उन की सलाह पर, चलना चाहिए। कहीं ऐसा ना हो की कामादिक विषय विकार, दुनिया का प्रलोभन, हमे अपने जाल मे फँसा लें और हम इसी मे उलझ कर रह जाएं। हमारे सारे जीवन को ये विषय विकार लूट लें और हम जिस काम के लिए आए हैं वह बिना किए ही रह जाए।


कबीर कूकरु राम को, मुतीआ मेरो नाऊ॥
गले हमारे जेवरी, जह खिंचै तह जाऊ॥७४॥

कबीर जी कहते है कि मैं राम का कुत्ता हुँ और मेरा  नाम मोती है। मेरे गले मे मेरे मालिक ने रस्सी डाल रखी है। इस लिए वह जहाँ चाहता है वहीं मुझे खीच कर ले जाता हैं।

कबीर जी हमे समझाना चाहते हैं कि कुत्ते दो तरह के होते हैं एक वे जिनका कोई मालिक होता है और दूसरा वे जो आवारा किस्म के होते हैं, जिन का कोई मालिक नही होता। बिना मालिक के कुत्ते को ना तो कोई नाम मिलता है और ना ही कोई आसरा। इस लिए उसका सारा जीवन इधर-उधर की ठोकरें खाते हुए ही नष्ट हो जाता है। अर्थात जो उस परमात्मा का आसरा नही लेते, उनका जीवन आवारा कुत्तो की भाँति व्यर्थ ही जाता है।

यहाँ कबीर जी अपने को राम का कुत्ता बताते हुए हमे समझा रहे हैं कि मेरे मालिक ने प्यार से मेरा नाम मोती रख दिया है, इसी नाम से अब मुझे सब जानने लगे हैं। उस मालिक ने मेरे गले मे रस्सी बाँधी हुई है ताकि मैं कहीं भटक ना जाऊँ अर्थात परमात्मा ने ऐसी व्यवस्था कर दी है की मै सदा उस की रजा मे रहूँ, उस की मर्जी अनुसार चलूँ। अब यदि कभी मैं किसी प्रलोंभन के कारण या अपनी नासमझी के कारण कहीं जाने की सोचता हूँ तो मेरा मालिक अर्थात परमात्मा रस्सी रूपी अपनी कृपा के कारण मुझे नियंत्रण कर लेता हैं। इस लिए अब मैं उसी की मर्जी अनुसार अपना जीवन गुजार रहा हूँ। अर्थात कबीर जी समझाना चाहते हैं कि हमे उस परमात्मा के आसरे ही, उसकी रजा मे, उसकी मर्जी में, रहते हुए अपना जीवन गुजारना चाहिए।

मंगलवार, 7 सितंबर 2010

कबीर के श्लोक -३६

कबीर ऐसी होइ परी, मन को भावतु कीनु॥
मरने ते किआ डरपना, जब हाथि सिधऊरा लीन॥७१॥

कबीर जी अपने अनुभव की बात कहते है कि अब तो ऐसा हो गया है कि मैं अपने मन को जो भाता है वही करना चाहता हूँ। इस लिए अब मरने से क्या डरना, जब हाथ मे सिंदूर लगा नारियल पकड़ ही लिआ है।

कबीर जी कहना चाहते है कि जिस तरह पुराने समय मे जब किसी स्त्री का पति मर जाता था तो वह हाथ मे सिंदूर लगा नारियल पकड़ लेती थी, जिस का मतलब होता था कि यह स्त्री अपने पति के साथ ही जल कर मरना चाहती है अर्थात सती होना चाहती है। फिर उसे मौत का भय नही रहता था। ठीक इसी तरह जब भगत के मन को परमात्मा की भक्ति भाने लगती है तो वह इस भक्ति के सहारे परमात्मा को पाने की ठान लेता है फिर उसे मरने का भय नही रहता अर्थात दुनिया दारी के संबधो के टूटने का डर, अंहकार ,विषय विकारों मोह मायादि से विरिक्त होने का डर नही सताता।

कबीर रस को गांडो चूसीऐ, गुन कऊ मरीऐ रोइ॥
अवगुनीआरे मानसै, भलो न कहि है कोइ॥७२॥

कबीर जी कहते है कि जिस प्रकार गन्ने के रस रूपी गुण की खातिर हम उसे चूसते हैं और अच्छा मानते हैं। उसी तरह गुणहीन मनुष्य को कोई अच्छा नही मानता। अर्थात कबीर जी कहते हैं कि गुणो के आधार पर ही हम किसी को अच्छा या बुरा मानते हैं।

कबीर जी ने यह श्लोक पहले श्लोक का महत्व समझाने के लिए ही कहा है कि जब भक्ति हमारे मन को भाने लगती है तो हम उस की खातिर सब कुछ छोड़ने को तैयार हो जाते हैं। उसी तरह गन्ने के रस को पाने के लिए कितनी मेहनत करते हैं। लेकिन हमारी इस मेहनत को कोई बुरा नही कहता। क्योकि किसी ऐसे काम को करने पर,जिस से फायदा होता हो कौन बुरा कहेगा। लेकिन ऐसे काम जिन्हें करने मे मेहनत भी लगे और फायदा भी ना हो ,ऐसे कामो को करने वाले को कोई अच्छा कैसे कह सकता है ? इसी बात को समझने के लिए कबीर जी हमे कह रहे हैं।