गुरुवार, 30 अगस्त 2012

कबीर के श्लोक - १११

कबीर रामु न चेतिउ, फिरिआ लालच माहि॥
पाप करंता मरि गईआ,अऊध पुनी खिन माहि॥२२१॥

कबीर जी कहते हैं कि जब हम उस परमात्मा से दूर होते हैं उस समय हमारे मन में लालच पैदा हो जाता हैं और हम पापों को करने लगते हैं,इसी में हमारी सारी ऊमर व्यतीत हो जाती है।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि जब जीव उस परमात्मा का ध्यान नही करता,उस समय लालच और पाप मन मे जन्म लेते हैं।इसका कारण मात्र इतना है कि परमात्मा को भूलने के कारण जीव जब भी कोई कर्म करता है तो वह मोह-माया मे फँस जाता है और यही मोह -माया लालच और पाप की ओर प्रेरित करता हैं।क्योकि जीव को, जगत नाशवान है इसका स्मरण नही रहता।वह भूल जाता है कि एक दिन सभी कुछ छोड़ कर जाना पड़ेगा।इसी कारण उस के मन में यह लालच और मोह-माया के कारण भ्रम पैदा हो जाता है और जीव द्वारा समस्त पाप इसी लालच के कारण होते हैं। ऐसे मे सारी ऊमर वह इसी में फँसा रहता है और उसकी आध्यात्मिक मौत पहले ही हो जाती है।

कबीर काइआ काची कारवी,केवल काची धातु॥
साबतु रखहि त राम भजु, नाहि त बिनठी बात॥२२२॥

कबीर जी कहते हैं कि हमारा शरीर कच्चे लोटे के समान है और इसे बनाने मे जिस धातू का इस्तमाल किया गया है वह भी कच्ची मिट्टी के समान है।यदि जीव चाहता है कि इस कच्ची मिट्टी के बने शरीर पर कोई असर ना हो तो परमात्मा का ध्यान करो। नही तो इस धातू पर उसमे डाली गयी वस्तु का असर जरूर होगा। जिस से बात बिगड़ सकती है।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि जिस प्रकार कच्ची मिट्टी के बरतन में कुछ डाला जाता है तो उसका असर उस बरतन पर होता हैं।ठीक उसी तरह यह हमारा शरीर जो कि कच्ची मिट्टी के समान ही बना हुआ है।इसमे रहते हुए जब हम किसी विषय विकार से ग्रस्त होते हैं तो उसका असर हमारे भीतर बना रहता है।इसलिये जीव को सदैव इनसे बचना चाहिए और इससे बचने का एक ही उपाय है कि जीव उस परमात्मा का ध्यान करे ,उसका भजन करे।यदि ऐसा नही किया गया तो इस कच्ची मिट्टी के बने शरीर में विषय-विकारों का प्रभाव बढ़ता ही जायेगा।जिस से हमारा यह जीवन व्यर्थ हो जायेगा और हम इन्ही विकारों में ही उलझे रहेगें।

सोमवार, 20 अगस्त 2012

कबीर के श्लोक - ११०

कबीर जो मै चितवऊ ना करै,किआ मेरे चितवे होइ॥
अपना चितविआ हरि करै, जो मेरे चिति न होइ॥२१९॥

कबीर जी कह्ते हैं कि जिस बारे मे मैं सोचता रहता हूँ वह बात तो परमात्मा कभी पूरी करता ही नही।फिर मेरे सोचने से क्या होगा।क्योकि परमात्मा तो वही करता है जो वह करना चाहता है और जो वह परमात्मा करता है वह मेरे सोचनें मे कभी आता ही नही।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि जीव हमेशा ऐसी बाते सोचता जो उसे माया मोह मे और अधिक फँसाती जाती है।इस लिये हमारा चिंतन हमें हमेशा पतन के रास्ते पर ही ले जाता है।इस लिये मेरे सोचने से कोई लाभ होने वाला नही है। जबकि परमात्मा जो भी हमारे बारे मे करता है या सोचता है वह हमेशा हमारे हित मे ही होता है।भले ही वह कुछ भी कर या करवा रहा हो हमसे। इसी लिये हम मोह माया में फँसे होने के कारण कभी वह नही सोच सकते जो परमत्मा हमारे बारे मे सोचता या करता है।


महला ३॥ चिंता भी आपि कराइसी,अचिंतु भि आपे देइ॥
नानक सो सालाहीऐ,जि सभना सार करेइ॥२२०॥

इस श्लोक में गुरु जी कबीर जी की बात को आगे बढाते हुए कहते हैं कि वास्तव मे तो परमात्मा ही जीवों के मन में दुनिया की फिकर-चिंता को पैदा करता है और वह अवस्था भी परमात्मा ही प्रदान करता है जब जीव संभल जाता है।इसलिये हमे हमेशा उस परमात्मा का ही  गुणगान करना चाहिए,हमेशा उसी का ध्यान करना चाहिए। जो हमेशा सब की चिंता करता रहता है और सदा वही करता है जो हमारे हित मे होता है।

गुरु जी कहना चाहते हैं कि सब कुछ परमात्मा ही कर रहा है वही हमे भटकाता है और वही हमे रास्ता दिखाता है।इस लिये सदा उसी का ध्यान करना चाहिए।जब हम उसका ध्यान करेगे तो हमारी निकटता उस परमात्मा के साथ हो जायेगी।जिस से हम भी वही चिंतन करने लगेगें जो परमात्मा हमारे लिये करता है। फिर हम भी हर प्रकार की चिंता से मुक्त होकर चिंतारहित जीवन जी सकेगें।

शुक्रवार, 10 अगस्त 2012

कबीर के श्लोक - १०९


कबीर लागी प्रीति सुजान सिउ,बरजै लोगु अजानु॥
ता सिउ टूटी किऊ बनै,जा को जीअ परान॥२१७॥

कबीर जी कह्ते हैं कि जब साधक की प्रीत उस परमात्मा के साथ लग जाती है जो घट-घट की जानता है ,तब संगे सबधी जो उस परमात्मा की महिमा से अंजान है तुझे अपने साथ मिलाने के लिये तरह तरह से उस परमात्मा की प्रीत से हटाने की कोशिश करेगें।लेकिन  उस परमात्मा से जिसने हमें यह जीवन दिया है ,उस से बिछड़ कर, चाहे किसी भी कारण से यह प्रीत टूटी हो ।हम सुखी नही रह सकते।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि जब साधक उस परमात्मा से जुड़ता है तो हमारे आस-पास के लोग जो उस परमात्मा से जुड़े हुए नही होते, वे साधक को कभी उलाहना देते हैं और कभी उस के तारीफ के पुल बाधँते हैं जिस से साधक भ्रमित हो, दी गई उलाहना या तारीफ के कारण समाजिक मर्यादाओं के कारण विचलित हो जाता है।परन्तु यदि साधक यह मान चुका है कि उस परमात्मा ने ही हमे जीवन दिया है तो वह उस परमात्मा से अपनी प्रीत कभी नही तोड़गा। इसी बात की ओर कबीर जी संकेत कर रहे हैं।

कबीर कोठे मंडप हेतु करि, काहे मरहु सवारि॥

कारजु साढे तीनि हथ,घनी त पऊने चारि॥२१८॥

कबीर जी आगे कहते हैं कि घर-बार को सजाने-सँवारनें के शॊक के कारण जीव तू क्यों अध्यात्मिक मौत मर जाता है।जबकि जीवन मे हम मात्र रोज साढे तीन या पौनें चार गज जमीन का ही इस्तमाल कर पाते हैं।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि संसारिक मोह माया मे उलझ कर हम दूसरों को बाहरी तड़क-भड़क दिखाने के चक्कर में अपने जीवन लगा देते हैं। जिस कारण उस परमात्मा को याद करने का हमें ध्यान ही नही रहता और समय हाथ से निकल जाता है।जबकि हम अपने जीवन में बहुत कम ही इनका उपयोग कर पाते हैं।