मंगलवार, 28 दिसंबर 2010

कबीर के श्लोक --५१

कबीर मनु मूंडिआ नही केस मुंडाऐ कांऐ॥
जो किछ कीआ सो मनि कीआ मूंडा मूंडु अजांऐ॥१०१॥


कबीर जी कहते हैं कि केसो का मुंडन करने से कुछ नही होता ।क्योकि जब तक मन ना मूंडा जायेगा जीव अपने व्यवाहर को बदल नही सकता।क्योकि  हम जो कुछ भी करते हैं वह तो हमारा मन ही कराता है। इस लिए मात्र सिर मुंडाने से कुछ भी ना होगा।

कबीर जी इस श्लोक द्वारा प्रचलित परम्परा पर चोट कर रहे हैं। क्योकि कुछ संम्प्रदायो में सन्यास लेते समय सन्यासी का मुंडन किया जाता है। इसी लिए कबीर जी हमे समझाना चाहते हैं कि सन्यास लेते समय अर्थात उस परमात्मा की शरण मे जाते समय सिर के बाल मुंडाने से जीवन मे कोई क्रांति, कोई परिवर्तन नही होने वाला। जब तक हमारे मन का मुंडन नही होता अर्थात हमारे मन मे उस परमात्मा के प्रति प्रेम भाव उत्पन्न नही होता, तब तक जीवन को सही दिशा नही मिल सकती। इस तरह के कर्मकांडों से कोई लाभ नही होने वाला।

कबीर रामु न छोडीऐ तनु धनु जाऐ त जाउ॥
चरन कमल चितु बेधिआ रामहि नामि समाउ॥१०२॥


कबीर जी कहते हैं कि  उस परमात्मा का नाम,उस परमात्मा की शरण कभी नही छोड़नी चाहिए। भले ही शरीर और धन की हानि होती हो। क्योकि उस परमात्मा में लीन होने पर ही इस मन का भेदन होता है।

कबीर जी हमें समझाना चाहते हैं कि परमात्मा के नाम से बढ़ कर कुछ भी नही है क्योकि जब कोई उस परमात्मा मे लीन होता है तो उसे एक स्थाई ठिकाना मिल जाता है,उस परमानंद की प्राप्ती हो जाती है जिस की तलाश जीव शूद्र जगहों पर करता रहता है। उस परमात्मा म के साथ एकाकार होने के बाद तन और धन के प्रति मोह स्वयं ही नष्ट हो जाता है। इसी लिए कबीर जी हमें उस परमात्मा की सरण मे जानें के लिए कह रहे हैं।

मंगलवार, 21 दिसंबर 2010

कबीर के श्लोक --५०

कबीर साधू की संगति रहऊ, जऊ की भूसी खाउ॥
होनहारु सो होइ है, साकत संगि न जाउ॥९९॥

कबीर जी कहते हैं कि भले ही हमारे पास खाने को मात्र रूखा सूखा हो, लेकिन हमे हमेशा अच्छे लोगो की सगंति करनी चाहिए,साधु की सगंति करनी चाहिए। वही इंसान समझदार है जो ऐसे लोगो से दूर रहता है जो प्रभू को भुलाये बैठे हैं।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि उस परमात्मा की प्राप्ती के लिए यह जरूरी नही कि तुम्हारे पास अच्छी धन संपदा हो,तुम अच्छा खाते पीते हो। यदि हमारी संगत अच्छॆ लोगो के साथ है जो उस परमात्मा की कृपा पाने मे लगे हैं तो यही श्रैष्ट है।जो लोग अच्छे बुरे को पहचानने लगे हैं वे कभी भी ऐसे लोगो का संग नही करते जो साकत हैं।


कबीर संगति साध की, दिन दिन दूना हेतु॥
साकत कारी कांबरी, धोऐ होइ न सेतु॥१००॥

कबीर जी आगे कहते हैं कि यदि इस तरह विचार कर हम अच्छॆ लोगों व परमात्मा के भक्तों की सगंत करेगे तो हमारी निकटता दिन दूनी उस परमात्मा के साथ बढ़ती ही जायेगी।वही साकत लोग अर्थात जो उस परमात्मा को भुलाये बैठे हैं ऐसे लोग उस काले कम्बंल के समान है जिसे जितना भी  धो लो वह सफेद नही हो सकता।

कबीर जी हमे समझाना चाहते है कि हमे हमेशा ऐसे लोगों की सगंति मे रहना चाहिए जो उस परमात्मा के ध्यान मे लगे हैं,उस की भक्ति मे लगे हैं। क्योकि परमात्मा से दूर हुए लोगो को कितना भी समझा लो वे समझ नही सकते।अर्थात कबीर जी कहना चाहते हैं कि सगंति का प्रभाव जीवन मे बौत गहरा पड़ता है इस लिए हमेशा बुरे लोगों की सगंति से बचना चाहिए और अच्छे लोगों की सगंति मे रहना चाहिए।

मंगलवार, 14 दिसंबर 2010

कबीर के श्लोक -४९

कबीर कारनु बपुरा किआ करै,जऊ रामु न करै सहाइ॥
जिह जिह डाली पगु धरऊ,सोई मुरि मुरि जाइ॥९७॥


कबीर जी कहते हैं कि यह बात तो सही है की उस परमात्मा का ध्यान ही जीव का एकमात्र लक्ष्य है जहाँ वह शांती पा सकता है। लेकिन उस की प्रप्ती तभी हो सकती है जब परमात्मा स्वयं हमारी मदद करे। बिना उसकी मदद के कोई भी उस तक नही पहुँच सकता।जिस तरह कोई ऊँचे वृक्ष पर चढ़ता है तो वह जिस शाखा पर अपना पैर रखता है वही मुड़ने लगती है....झुकने लगती है। जिस कारण मन मे भय उत्पन्न होता है।

कबीर जी हमे समझाना चाह्ते हैं कि वैसे तो हम सभी अपनी तरफ से उस स्थाई ठौर को पानें की कोशिश करते हैं। लेकिन जब तक परमात्मा हम पर कृपा नही करता तब तक हम वहाँ तक नही पहुँच सकते। जब तक हम यह मान कर उस ओर बढ़ते हैं कि हम वहाँ पहुँच जायेगें तब तक यह "मैं" का भाव नष्ट नही हो पाता और यही "मैं" का भाव हमारे और परमात्मा के बीच रूकावट का कारण बना रहता है।लेकिन जब हम सब कुछ उसी पर छोड़ देते हैं तो यह मैं का भाव नष्ट हो जाता है। इसी लिए कबीर जी समझाना चाहते हैं कि जब जीव उस दिशा मे बढ़्ता है तो कदम कदम पर भय और शंकायें हमे घेरती है।


कबीर अवरह कऊ उपदेसते,मुख मै परि है रेतु॥
रासि बिरानी राखते, खाया घर का खेतु॥९८॥


कबीर जी इस श्लोक मे आगे कहते हैं कि बहुत से साधक (उपरोक्त कही बात को ) जानते हैं। लेकिन कई बार बार ऐसे साधक सिर्फ दूसरों को ही इस बात का उपदेश देते रहते हैं परन्तु इस तरह दूसरों की पूँजी की देखभाल के एवज में अपनी पूँजी गँवा लेते हैं।

कबीर झी हमे कहना चाहते हैं कि यदि तुम्हें सही दिशा मिल चुकी है तो पहले स्वयं ही वहँ तक पहुँचों। कहीं ऐसा ना हो की तुम अन्य लोगों को  उस दिशा की ओर अग्रसर करने में उपदेश देते ही रह जाओ और स्वयं अपने जीवन को व्यर्थ ही गँवा दो। क्योकि बहुत से साधक दूसरॊ को रास्ता दिखाने मे ही रस लेने लगते हैं। अत: कबीर जी हमे सावधान करना चाहते है।

मंगलवार, 7 दिसंबर 2010

कबीर के श्लोक -४८

कबीर आसा करीऐ राम की,अवरै आस निरास॥
नरकि परहि ते मानई,जो हरि नाम उदास॥९५॥


कबीर जी कहते है कि हमें उस परमात्मा पर सदा भरोसा रखना चाहिए।क्योकि किसी दूसरे से आशा रखनी बेकार है।यदि हम परमात्मा की जगह किसी और पर आशा रखते है तो हम नरक में ही पड़ेगें और सदा दुखी होते रहेगें।

कबीर जी हमे समझाना चाहते हैं कि एक परमात्मा ही ऐसा है जिस पर भरोसा कर के हम सही दिशा प्राप्त कर सकते हैं अर्थात परमात्मा के साथ एकाकार हुए बिना हमें कभी भी शांती प्राप्त नही हो सकती। परमात्मा के साथ एकाकार हुए बिना हम जो भी कार्य करे,जिस पर भी भरोसा करे..,उस से हमे अंतत: दुख ही हाथ लगेगा। हम अंतत: दुखी ही होगें। इस लिए हमे उस परमात्मा पर ही भरोसा करना चाहिए। यही बात वे समझाना चाहते हैं।


कबीर सिख साखा बहुते कीऐ,केसो कीउ न मीतु॥
चाले थे हरि मिलन कऊ,बीचै अटकीउ चीतु॥९६॥


कबीर जी कहते है कि बहुत से लोग अपने बहुत से चेल-चपाटे बना लेते हैं, लेकिन उस परमात्मा अर्थात केसो को अपना मित्र नही बनाते। ऐसे लोग भले ही यह सोचे की मिल कर भजन आदि करने से हमे हरि की प्राप्ती हो जाएगी। लेकिन ऐसे लोग अपने चेल-चपाटो को ही प्रभावित करने मे लगे रह जाते हैं और परमात्मा और संसार के बीच मे ही अटके रह जाते हैं।

कबीर जी हमे समझाना चाहते हैं कि जब तक हम उस परमात्मा को अपना मित्र नही बना लेते, तब तक भले ही हम कितने ही कर्मकांड करें,लोगो को प्रभावित करके बहुत बड़ी-बड़ी भीड़ एकत्र कर ले। ऐसा करके हम उस परमात्मा को नही पा सकते।

रविवार, 28 नवंबर 2010

कबीर के श्लोक -४७




कबीर संगति कहिए साध की, अंति करै निरबाहु॥
साकत संगु ना कीजीए, जा ते होइ बिनाहु॥९३॥

कबीर जी कहते है कि हमे हमेशा ऐसे लोगों की संगति करनी चाहिए जो उस परमात्मा के नाम मे रमे रहते हैं,जो अपने जीवन मे उस परमात्मा को साधने मे लगे हुए हैं ताकि उस परमात्मा के साथ एकरूप हो सके।ऐसे लोगों की संगति सदा स्थाई होती है।जो आखिर तक साथ देती है।इस के विपरीत जो लोग साकत है अर्थात उस परमात्मा को भूल कर बैठे हुए हैं,ऐसे लोगो से सदा ही बचना चाहिए। क्योंकि ऐसे लोगो की सगंति उस परमानंद की प्राप्ती मे बाधक बन जाती है।

कबीर जी इस श्लोक मे हमे सगंति के पड़ने वाले प्रभाव को समझाना चाहते हैं।जीव के मन पर सगंति का बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है। भले ही पहले उस का प्रभाव नजर ना आए, लेकिन समय आने पर जब परिस्थियां प्रतीकूल होने लगती है तो जीव हमेशा पतन के रास्ते पर चला जाता है। इसी लिए कबीर जी समझाना चाहते है कि हमें हमेशा ऐसे लोगो की सगंति करनी चाहिए जो हमे आत्मिक उन्नति प्रदान करे।


कबीर जग महि चेतिउ जानि कै,जग महि रहिउ समाइ॥
जिन हरि का नामु न चेतिउ,बादहि जनमें आइ॥९४॥

कबीर जी आगे कहते हैं कि जिन लोगो को यह समझ आ गया है कि उस परमात्मा के सिवा और कोई भी ठौर ऐसा नही है जो हमे शांती प्रदान कर सके।क्योकि एक परमात्मा ही सारे ब्रंह्माड मे व्याप्त है,वही इस सारे चराचर जगत का आधार है, इस लिए उसके सिवा कही भी कोई स्थाई ठिकाना नही मिल सकता।जो इस बात को समझ चुके हैं वास्तव मे ऐसे लोगो का जन्म लेना ही सार्थक हो सकता है। इस के विपरीत जो लोग उस परमात्मा को इस तरह नही जान पाते ,उन का जन्म बेकार ही जाता है।

कबीर जी हमे समझना चाहते हैं कि जब जीव उस परमात्मा की साधना मे लगता है तो वह जान जाता है कि इस ब्रंह्माड मे वही एक व्याप्त है।इसे जानाने वाले का का जन्म लेना ही सार्थक कहलाता है।वहीं जीव मन की शांती पाता है। इस के विपरीत जो नही जान पाता वह अपना जीवन व्यर्थ  ही गँवा कर जाता है।

रविवार, 21 नवंबर 2010

कबीर के श्लोक -४६

कबीर एक मरंते दुइ मूऐ, दोइ मरंतह चारि॥
चारि मरंतह छ्ह मूऐ, चारि पुरख दुइ नारि॥९१॥


कबीर जी इस श्लोक मे कुछ रहस्यमय बातों की ओर इशारा कर रहे है जिन्हे वही समझ सकता है जो सत्य से साक्षात्कार कर चुका है। कबीर जी कहते हैं कि एक के मरने पर दो मर जाते हैं और दो के मरने पर चार मर जाते हैं और इन चारों के मरने पर छे मर जाते हैं जिन मे चार पुरूष और दो नारीयां हैं।

कबीर जी कहना चाहते है कि वह कौन है जिस एक के मरने पर दो मर जाते हैं ? वह क्या है जिन दो के मरने पर चार मर जाते हैं और वह क्या है जिन चार के मरने पर छे मर जाते हैं । जिन मे चार पुरूष है और दो स्त्रीयां। इस श्लोक का वास्तविक अर्थ यहां नही दिया जा रहा ।   कबीर जी ने भी इस रहस्य को प्रकट नही किया। क्योंकि हम लोग किसी भी अर्थ को याद कर लेते है और फिर मानने लगते है कि हम इस के ज्ञाता है। इस तरह हमारी आध्यात्मिक यात्रा वही अटक जाती है। इस रहस्य को जानने के लिए  भीतर की यात्रा करके जानने की कोशिश करनी पड़ेगी।

कबीर देखि देखि जग ढूंढिआ, कहू ना पाइआ ठउरु॥
जिनि हरि का नामु ना चेतिउ, कहा भुलाने अऊरु॥९२॥


कबीर जी कहते हैं कि सब जगह देख देख कर हम इस संसार में ऐसी जगह ढूंढना चाहते है जहां हमें ठौर मिल सके। लेकिन हमे ऐसी कोई जगह कहीं नही मिलती। क्योंकि जो जीव उस परमात्मा के नाम का ध्यान नही करता, वह भटकता ही रह जाता है।

कबीर जी इस श्लोक मे हमे कहना चाहते हैं कि जब तक हम बाहर ही शांती की तलाश करते रहेगें हमे शांती कभी नही मिल सकती। हमे वह ठिकाना कभी नही मिल सकता,जहाँ पर हमारा मन टिक जाए। अर्थात यह मन अपनी भाग-दोड़ को छोड़ दे। कबीर जी कहना चाहते है कि यह तभी संभव हो सकता है जब हम बाहर की बजाय अपने भीतर उस शांती उस परमानंद को खोजें। क्योकिं कि वह परमात्मा का नाम ही हमे वहाँ तक ले जा सकता है, इस लिए उसे भूलकर हम सिर्फ भटक ही सकते हैं।

रविवार, 14 नवंबर 2010

कबीर के श्लोक -४५

कबीर भार पराई सिरि चरै, चलिउ चाहै बाट॥
अपने भावहि ना डरै, आगै अऊघट घाट॥८९॥


कबीर जी कहते हैं कि हमारे ऊपर जो भार पराई निंदा करने के कारण चड़ता है , उस से बच पाना बहुत मुश्किल हैं।क्योंकि हरेक को पराई निंदा करने मे बड़ा रस आता है.....इस कारण वह उसे छोड़ नही पाता। वह यह जानते हुए भी कि यह निंदा करनी सही नही है, फिर भी उसी रास्ते पर चलता जाता है। निरन्तर इसी रास्ते पर चलते हुए एक दिन वह सही और गलत का फर्क भी भूल जाता है।

इस श्लोक मे कबीर जी हमे समझाना चाहते हैं कि जब हम पराई निंदा मे रस लेने लगते हैं तो यह भूल जाते हैं कि इस निंदा के कारण हमारे भीतर भी वह बुराई घर करती जा रही है। जैसे कोई व्यक्ति जगह जगह में पड़ा कूड़ा बीनता रहे तो उस के पास कूड़ा ही एकत्र होता जाएगा। जिस कारण  उस की बुद्धि मलीन हो जाएगी, फिर वह ईश्वर को क्युँकर याद करेगा ? इसी बात की ओर  कबीर जी इशारा कर रहे हैं।


कबीर बन की दाधी लाकरी, ठाढी करै पुकार॥
मति बसि परऊ लुहार के, जारै दूजी बार॥९०॥


कबीर जी कहते है कि वन की अधजली लकड़ी जो जमीन के भीतर दबी पड़ी रहती है वह पुकारती रहती है, प्रभू से प्रार्थना करती रहती है कि मैं किसी लुहार के हाथ ना पड़ जाऊँ क्योकि वह मुझे दुबारा भट्टी मे झॊंक देगा।

कबीर जी इस श्लोक में पिछले श्लोक की अवस्था का प्रभाव बताते हुए हमे कहना चाहते हैं कि जिस प्रकार जंगल की जली लकड़ी जमीन मे दबी रहने के बाद फिर कच्चे कोयले के रूप मे प्रकट हो जाती है और लौहार द्वारा पुन: जला दी जाती है, ठीक उसी तरह जो लोग पराई निंदा कर कर के मलीन हो चुके होते हैं उन्हें उसी मलीनता के ढेर मे फैंक दिया जाता है। अर्थात जिस तरह के भाव या बुद्धि हमारी होती है हम उसी ओर जाने को बाध्य हो जाते हैं।

रविवार, 7 नवंबर 2010

कबीर के श्लोक -४४



कबीर जा कऊ खोजते, पाइउ सोई ठऊरु॥
सोई फिरि कै तू भईआ, जा कऊ कहता अऊरु॥८७॥

कबीर जी कहते है कि हम जिस सच्चे सुख की तलाश करते रहते हैं, उस स्थान को खोजते हुए जब हम उस परमात्मा की भक्ति की ओर आगे बढ़ते हैं तो हम आगे बढ़्ते हुए एक दिन उस स्थान पर अवश्य ही पहुँच जाते हैं जिस स्थान की हम खोज कर रहे थे। क्योकि हम जिस परमात्मा की तलाश में निकलते है एक दिन उसे खोजते खोजते उसी के रंग में रंग के उसी के समान हो जाते हैं जिसे हम कोई दूसरा मान कर खोज रहे थे।

वास्तव मे कबीर जी हमे कहना चाहते है कि जीव की भावना जितनी गहरी होती है, जीव उसी भावना मे डूब कर उसी जैसे होने लगता है। ऐसे मे एक दिन उसे समझ आती है कि वह जिसे खोज रहा था वह तो स्वयं उसी के भीतर समाया हुआ था।सिर्फ प्रेम और सच्ची भावना की कमी के कारण ही हम भटक रहे थे। जबकि वह हमारे भीतर पहले से ही मौजूद है।


कबीर मारी मरऊ कुसंग की, केले निकटि जु बेरि॥
उह झूलै, उह चीरीऐ, साकत संग न हेरि॥८८॥

आगे कबीर जी कहते हैं कि यदि हमारा संग ऐसे लोगो के साथ है जो बुरे स्वाभाव वाले हैं ,तो ऐसे मे भी हम अपने मार्ग से भटक सकते हैं । वह उदाहरण देते हुए कहते हैं जिस प्रकार केले और बेर का वृक्ष यदि पास -पास होते हैं तो बेर और केले का वृक्ष हवा के झोंकों के कारण आपस मे टकराते हैं तो ऐसे मे बेर का वृक्ष केले के वृक्ष को छलनी कर देता है ....जगह जगह से चीर देता है। ठीक इसी प्रकार ऐसे लोगो का संग करने से जो उस परमात्मा से दूर हैं, अपने स्वाभाव के कारण हमेशा नुकसान ही पहुँचाते हैं। इस लिए कबीर जी हमे कहते हैं कि ऐसे लोगो का संग कभी भी नही करना चाहिए।

इस श्लोक मे कबीर जी हमे समझाना चाहते है कि हमें हमेशा बुरे स्वाभाव वाले लोगों से सदा दूर रहना चाहिए।क्योकि मानव स्वबा ऐसा है कि उस पर संगत का असर देर -सबेर जरूर पड़ने लगता है।

गुरुवार, 28 अक्तूबर 2010

कबीर के श्लोक -४३




कबीर सती पुकारै चिह चड़ी, सुनु हो बीर मसान॥
लोगु सबाइआ चलि गईउ, हम तुम कामु निदान॥८५॥

कबीर जी कहते हैं जिस तरह एक सती चिता पर चड़ कर मसान की आग से प्राथना करती है कि देखो सभी लोग अब जा चुके हैं अब मुझे सिर्फ तेरा ही सहारा है। अब तू मेरे इस शरीर को जला दे ताकि मैं अपने पति के पास पहुँच सकूँ। ठीक उसी तरह आत्मा भी शरीरिक मोह के छूटने पर उस परमात्मा में लीन होने के लिए आतुर हो उठती है।

कबीर जी इस श्लोक मे सती का उदाहरण दे कर हमे समझाना चाहते हैं कि जिस प्रकार एक सती स्त्री, अपने पति के प्रेम के कारण, उस की मृत्यु होने पर संसार व अपने जीवन का मोह छोड़ कर उसी के साथ जाना चाहती है ताकि उस का साथ हमेशा पति के साथ बना रहे। ठीक उसी तरह जब तक हम भी दुनियावी मोह को छोड़ कर उस सती स्त्री की तरह अपने भीतर उस परमात्मा के प्रति प्रेम नही करेगें, तब तक उस की प्राप्ती नही हो सकती।


कबीर मन पंखी भईउ, उडि उडि दह दिस जाइ॥
जो जैसी संगति मिलै, सो तैसो फलु पाइ॥८६॥

कबीर जी कहते हैं कि हमारा मन तो पंछी के समान है।वह तो उधर ही उड़ जाता है जहाँ उसे अच्छा लगता है क्योकि उस के लिए दसों दिशाएं खुली हुई हैं। इस लिए वह जिस दिशा मे जाता है उसी दिशा के गुण दोष अपना लेता है अर्थात वैसा ही चुग्गा खाने लगता है। वह जैसा चुग्गा खाता है वैसे ही गुण- दोष उस मे आ जाते हैं अर्थात इन्सान जैसी संगत मे बैठता है वैसे ही रंग में रंग जाता है।

इस श्लोक के माध्यम से कबीर जी हमे समझाना चाहते हैं कि भले ही हमारा मन बहुत चंचल है फिर भी हमे चाहिए कि अपने मन को उस परमात्मा के प्रेम में लगाएं।ताकि हम सही दिशा की ओर मन को ले जा सके।

गुरुवार, 21 अक्तूबर 2010

कबीर के श्लोक -४२



कबीर ऐसा को नही, मंदरु देइ जराइ॥
पांचऊ लरिके मारि कै, रहै राम लिउ लाइ॥८३॥

कबीर जी कहते है कि भले ही हम परमात्मा की बंदगी,उपासना आदि करते हैं, हमे उस से शांती भी मिलती है लेकिन कबीर जी आगे कहते है कि फिर भी ऐसा कोई नही है अर्थात कोई विरला ही है..जो अपने भीतर के पाँचों कामादिक विषय विकारों को नष्ट कर पाता है....और फिर उस परमात्मा के ध्यान में डूब जाता है। अर्थात उस के ध्यान मे अपने शरीर की सुध भी बिसरा देता है।

कबीर जी इस श्लोक मे कहना चाहते हैं कि भले ही हम साधना करते समय ऐसा महसूस करते हैं कि हमारे पाँचो विकार क्षीण हो चुके है.हमने उन्हे जीत लिआ है लेकिन वास्तव मे ऐसा होता नही है....साधना के कारण यह विषय -विकार कुछ देर के लिए शांत भले ही हो जाते हैं लेकिन हमारे भीतर से नष्ट नही हो पाते।वास्तव मे कबीर जी हमे सचेत कर रहे हैं कि जब तक यह हमारे भीतर विषय -विकार हैं तब तक यह समझे कि हमारी साधना अधूरी ही है....जिस दिन यह विषय-विकार सताना हमेशा के लिए बंद कर दे ....तभी उस परमात्मा में लीनता प्राप्त होती है।


कबीर ऐसा को नही, ऐहु तनु देवै फूकि॥
अंधा लोगु न जानई, रहिउ कबीरा कूकि॥८४॥

कबीर जी अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं कि यहाँ ऐसा कोई भी नही है जो इस शरीर को जला दे। अर्थात इस शरीर का मोह छोड़ दे। क्योकिं सभी लोग शरीर के प्रति मोह रखने के कारण ही विषय -विकारों मे फँसते है। लेकिन किसी को भी इस बात का पता नही होता। इसी कारण कबीर जी लोगों को अंधा कह रहे हैं।विषय -विकारों में डूबने के कारण लोगों को सही और गलत का एहसास नही होता। जबकि कबीर जी कहते हैं कि मैं चिल्ला चिल्ला कर सब को सचेत कर रहा हूँ। अर्थात वे संत लोग जो इन विषय -विकारों से मुक्त हो चुके हैं हमे सदा सचेत कर रहे है।लेकिन हम मोहग्रस्त होने के कारण अंधे ही बनें रहते हैं।

इस श्लोक मे कबीर जी वास्तव में एक गुप्त रहस्य को खोल रहे हैं। क्योंकि हम लोग सदैव बाहरी दुनिया से ही संबध साधे रहते हैं.....इसी लिए हम शरीर को ही सब कुछ मान लेते हैं।जबकि शरीर के भीतर के ईश्वरी अंश के प्रति हमारा ध्यान कभी जाता ही नही।यदि हम इस ईश्वरी अंश के प्रति सचेत हो जाएं तो इस शरीर का महत्व अपने आप समाप्त हो जाता है।इसी बात कि ओर यह इशारा किया जा रहा है। जिसे हम हम शरीर व बाहरी दुनिया के प्रति मोह ग्रस्त होने के कारण नही देख पाते।

गुरुवार, 14 अक्तूबर 2010

कबीर के श्लोक -४१

कबीर सात समुंदहि मसु करऊ, कलम करऊ बनराइ॥
बसुधा कागदु जऊ करऊ, हरि जसु लिखनु न जाइ॥८१॥


कबीर जी कहते है यदि सात समुद्रों की स्याही बना ली जाए और सभी जगंल के वृक्षों  की कलमें बना ली जायें और सारी धरती को कागज बना ले तो भी हम उस परमपिता परमात्मा की महिमा का गुणगान नही कर सकते । अर्थात कबीर जी कहना चाहते है कि उस परमात्मा की महिमा,गुणों को हम किसी भी उपाय से जान ही नही सकते। कोई भी उपाय नही हैं कि परमात्मा की सारी महिमा का, सारे गुणों को, हम लिख पायें।अर्थात कोई भी उस परमात्मा के कामों का वर्णन नही कर सकता।

कबीर जाति जुलाहा किआ करै, हिरदै बसे गुपाल॥
कबीर रमईआ कंठि मिलु, चूकहि सरब जंजाल॥८२॥


कबीर जी कहते है कि आमजन के मन में जाति-पाति को लेकर अक्सर ऐसा भाव रहता है कि छोटी जाति होने के कारण परमात्मा की प्राप्ती मे बाधा आती है...वास्तव मे ऐसा प्रचार बड़ी व ऊँची जाति के लोगो द्वारा ही किया गया है।किसी को बार बार इस तरह प्रताड़ित करने के कारण प्रताड़ित व्यक्ति हीन भावना से ग्रस्त हो जाता है। इस श्लोक मे कबीर जी कह रहे हैं कि अब जब मुझे परमात्मा ने अपने गले से लगा लिआ है ऐसे मे इस तरह के समस्त जाल अपने आप ही नष्ट हो गए हैं।अर्थात जाति को लेकर मेरा भ्रम मिट गया है। उस परमात्मा की शरण मे आने के बाद प्रभुमय ही हो जाता है,ऐसे मे कोई भ्रम कैसे रह सकता है।

गुरुवार, 7 अक्तूबर 2010

कबीर के श्लोक -४०

कबीर बैदु कहै हऊ ही भला, दारु मेरै वसि॥
ऐह तऊ बसतु गुपाल की, जब भावै लेऐ खसि॥७९॥


कबीर जी कहते हैं कि हकीम कहता है कि मैं बहुत समझदार हूँ क्योकि मैं उस हर दवा को जानता हूँ जो किसी भी प्रकार के कष्ट का निवारण कर सकती है।लेकिन कबीर जी कहते हैं कि यह शरीर तो उसी परमात्मा का दिया हुआ है,इस लिए वह जब उसकी मर्जी होती है हमसे छीन लेता है।

कबीर जी इस श्लोक मे समझाना चाहते हैं कि भले ही हकीम  (विज्ञानिक) यह मान कर चल रहा है कि वह सभी परेशानीयों का हल खोज रहा है या जिन का हल खोज चुका है। वह सब अब मेरे हाथ मे हैं अर्थात सभी कष्ट की दवा मेरे हाथ मे है, लेकिन कबीर जी हमे समझाना चाहते हैं कि सभी कुछ हमारे हाथ मे होते हुए भी वस्तुत; वह हमारे हाथ मे नहीं है क्योकि यह सब तो उसी परमात्मा की ही दी हुई हैं। इन सभी वस्तुओ को, हमारे शरीर को, हमारी सारी खोजों को, वह परमात्मा हम से कभी भी छीन सकता है। ऐसे मे यह कहना कि हमारे पास सभी कष्टो के निवारण का उपाय है नासमझी है।


कबीर नऊबति आपनी, दिन दस लेहु बजाइ॥
नदी नाव संजोग जिउ, बहुरि न मिल है आइ॥८०॥


इस श्लोक मे कबीर जी पिछले श्लोक के संदर्भ मे अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं कि यदि तुझे यह भ्रम हो ही गया है कि सभी कुछ तेरे हाथ मे हैं, तो दस दिनों तक इस सभी का आनंद उठा ले ,मौंज मस्ती कर ले।लेकिन तेरी यह मौंज मस्ती ठीक उसी तरह है जिस तरह नदी पार करते समय नाव मे बैठे मुसाफिरो का आपस मे कुछ देर के लिए मेल-मिलाप हो जाता है,लेकिन अपने गंतव्य पर पहुँच कर उतरने के बाद फिर वे आपस मे कभी नही मिलते।ठीक इसी तरह यह शरीर यह समय तुझे वापिस नही मिलने वाला।

मंगलवार, 28 सितंबर 2010

कबीर के श्लोक -३९

कबीर पारस चंदनै, तिन्ह है एक सुगंध॥
तिह मिलि तेऊ ऊतम भए, लोह काठ निरगंध॥७७॥

कबीर जी कहते हैं कि पारस और चंदन इन दोनों मे एक एक गुण होता है। इस लिए इनके संपर्क मे आने वाले लोहे और लकड़ी इन के इन गुण को

मंगलवार, 21 सितंबर 2010

कबीर के श्लोक -३८

कबीर जपनी काठ की, किआ दिखलावहि लोइ॥
हिरदै रामु न चेतही, ऐह जपनी किआ होइ॥७५॥

कबीर जी कहते है कि हाथ मे रुद्राक्ष या तुलसी आदि काठ की बनी मालायें ले कर क्या दिखाते फिर रहे हो। यदि तुम्हारे ह्र्दय मे परमात्मा की याद कभी आती ही नही इन सब दिखावे से कोई लाभ होने वाला नही।

मंगलवार, 14 सितंबर 2010

कबीर के श्लोक -३७

कबीर गागरि जल भरी, आजु कालि जैहै फूटि॥
गुरु जु न चेतहि आपनो, अध माझि लीजहिगे लूटि॥७३॥

कबीर जी कहते हैं कि यह जो हमारा जीवन है वह एक पानी से भरी गागर के समान है जिसने अज नही तो कल फूट ही जाना है। इसलिए हमे अपने गुरु को सदा याद रखना चाहिए। कहीं ऐसा ना हो कि हम जिस काम के लिए आए है वह बीच में ही छूट जाए और कोई हमे लूट ले।

कबीर जी हमे समझाना चाहते हैं कि यह जीवन कब समाप्त हो जाए कोई नही जानता।इस लिए इस जीवन का सदुपयोग कर लेना चाहिए। इस के लिए हमे अपने गुरु को सदा याद रखना चाहिए अर्थात उन की कही बातो पर, उपदेशो पर, उन की सलाह पर, चलना चाहिए। कहीं ऐसा ना हो की कामादिक विषय विकार, दुनिया का प्रलोभन, हमे अपने जाल मे फँसा लें और हम इसी मे उलझ कर रह जाएं। हमारे सारे जीवन को ये विषय विकार लूट लें और हम जिस काम के लिए आए हैं वह बिना किए ही रह जाए।


कबीर कूकरु राम को, मुतीआ मेरो नाऊ॥
गले हमारे जेवरी, जह खिंचै तह जाऊ॥७४॥

कबीर जी कहते है कि मैं राम का कुत्ता हुँ और मेरा  नाम मोती है। मेरे गले मे मेरे मालिक ने रस्सी डाल रखी है। इस लिए वह जहाँ चाहता है वहीं मुझे खीच कर ले जाता हैं।

कबीर जी हमे समझाना चाहते हैं कि कुत्ते दो तरह के होते हैं एक वे जिनका कोई मालिक होता है और दूसरा वे जो आवारा किस्म के होते हैं, जिन का कोई मालिक नही होता। बिना मालिक के कुत्ते को ना तो कोई नाम मिलता है और ना ही कोई आसरा। इस लिए उसका सारा जीवन इधर-उधर की ठोकरें खाते हुए ही नष्ट हो जाता है। अर्थात जो उस परमात्मा का आसरा नही लेते, उनका जीवन आवारा कुत्तो की भाँति व्यर्थ ही जाता है।

यहाँ कबीर जी अपने को राम का कुत्ता बताते हुए हमे समझा रहे हैं कि मेरे मालिक ने प्यार से मेरा नाम मोती रख दिया है, इसी नाम से अब मुझे सब जानने लगे हैं। उस मालिक ने मेरे गले मे रस्सी बाँधी हुई है ताकि मैं कहीं भटक ना जाऊँ अर्थात परमात्मा ने ऐसी व्यवस्था कर दी है की मै सदा उस की रजा मे रहूँ, उस की मर्जी अनुसार चलूँ। अब यदि कभी मैं किसी प्रलोंभन के कारण या अपनी नासमझी के कारण कहीं जाने की सोचता हूँ तो मेरा मालिक अर्थात परमात्मा रस्सी रूपी अपनी कृपा के कारण मुझे नियंत्रण कर लेता हैं। इस लिए अब मैं उसी की मर्जी अनुसार अपना जीवन गुजार रहा हूँ। अर्थात कबीर जी समझाना चाहते हैं कि हमे उस परमात्मा के आसरे ही, उसकी रजा मे, उसकी मर्जी में, रहते हुए अपना जीवन गुजारना चाहिए।

मंगलवार, 7 सितंबर 2010

कबीर के श्लोक -३६

कबीर ऐसी होइ परी, मन को भावतु कीनु॥
मरने ते किआ डरपना, जब हाथि सिधऊरा लीन॥७१॥

कबीर जी अपने अनुभव की बात कहते है कि अब तो ऐसा हो गया है कि मैं अपने मन को जो भाता है वही करना चाहता हूँ। इस लिए अब मरने से क्या डरना, जब हाथ मे सिंदूर लगा नारियल पकड़ ही लिआ है।

कबीर जी कहना चाहते है कि जिस तरह पुराने समय मे जब किसी स्त्री का पति मर जाता था तो वह हाथ मे सिंदूर लगा नारियल पकड़ लेती थी, जिस का मतलब होता था कि यह स्त्री अपने पति के साथ ही जल कर मरना चाहती है अर्थात सती होना चाहती है। फिर उसे मौत का भय नही रहता था। ठीक इसी तरह जब भगत के मन को परमात्मा की भक्ति भाने लगती है तो वह इस भक्ति के सहारे परमात्मा को पाने की ठान लेता है फिर उसे मरने का भय नही रहता अर्थात दुनिया दारी के संबधो के टूटने का डर, अंहकार ,विषय विकारों मोह मायादि से विरिक्त होने का डर नही सताता।

कबीर रस को गांडो चूसीऐ, गुन कऊ मरीऐ रोइ॥
अवगुनीआरे मानसै, भलो न कहि है कोइ॥७२॥

कबीर जी कहते है कि जिस प्रकार गन्ने के रस रूपी गुण की खातिर हम उसे चूसते हैं और अच्छा मानते हैं। उसी तरह गुणहीन मनुष्य को कोई अच्छा नही मानता। अर्थात कबीर जी कहते हैं कि गुणो के आधार पर ही हम किसी को अच्छा या बुरा मानते हैं।

कबीर जी ने यह श्लोक पहले श्लोक का महत्व समझाने के लिए ही कहा है कि जब भक्ति हमारे मन को भाने लगती है तो हम उस की खातिर सब कुछ छोड़ने को तैयार हो जाते हैं। उसी तरह गन्ने के रस को पाने के लिए कितनी मेहनत करते हैं। लेकिन हमारी इस मेहनत को कोई बुरा नही कहता। क्योकि किसी ऐसे काम को करने पर,जिस से फायदा होता हो कौन बुरा कहेगा। लेकिन ऐसे काम जिन्हें करने मे मेहनत भी लगे और फायदा भी ना हो ,ऐसे कामो को करने वाले को कोई अच्छा कैसे कह सकता है ? इसी बात को समझने के लिए कबीर जी हमे कह रहे हैं।

शनिवार, 28 अगस्त 2010

कबीर के श्लोक -३५

कबीर बैद मूआ, रोगी मूआ, मूआ सब संसारु॥
एक कबीरा ना मूआ, जिह नाही रोवनहारु॥६९॥

कबीर जी कहते हैं कि इलाज करने वाला भी मर गया और रोगी भी मर गया और वे भी मर गए जो इस संसार मे रहते हैं। लेकिन कबीर जी कहते है वे नही मरा जो किसी वस्तु, कामनाओ के लिए कभी नही रोया।

कबीर जी हमे समझाना चाहते है कि इस संसार मे बहुत से लोग ऐसे हैं जो दूसरो को आध्यात्मिक उपदेश देकर परमात्मा को पाने का रास्ता बता रहे हैं, लेकिन वे स्वयं कभी उस रास्ते पर चलते ही नही , वे उस रास्ते को जानते ही नही। वे धर्म ग्रंथों को रट कर ही मान बैठे हैं कि उन्होने उस परमात्मा को पा लिआ।इसी लिए वे सोचते है कि मात्र दूसरो को उपदेश देकर वे धार्मिक हो गए, उस परमात्मा की कृपा को पा गए। लेकिन कबीर जी कहते है कि ऐसे लोग भी मरे हुओ के समान ही हैं और वे जिन लोगो को यह सब समझा रहे हैं वे भी मरे हुए हैं अर्थात मरे हुए लोग वे हैं जो परमात्मा से दूर हो चुके हैं,उसे भूल चुके हैं, उन्ही लोगो को कबीर जी मरा हुआ बता रहे हैं। कबीर जी कह्ते हैं कि सारा संसार ही ऐसी मत्यु मे पड़ा है। लेकिन आगे कहते हैं कि जीवित आदमी की पहचान यह हैं कि वह कभी किसी बात के लिए, किसी कामना के लिए नही रोता।जो परमात्मा दे रहा है उसी को खुशी से स्वीकार कर लेता है और परमात्मा का धन्यवाद करता है। वह परमात्मा से कभी शिकायत नही करता। ऐसे आदमी को कबीर जी जीवित मानते है अर्थात धार्मिक मानते हैं। कबीर जी ने हमारे   आत्म अवलोकन करने के लिए यह श्लोक लिखा है ताकि हम अपनी स्थिति को पहचान सके।


कबीर रामु न धिआइउ, मोटी लागी खोरि॥
काइआ हांडी काठ की, ना उह चर्है बहोरि॥७०॥

कबीर जी कहते है कि जिन्होने राम का ध्यान नही किया, उस का सिमरन नही किया। जो भीतर से बिल्कुल खोखले हैं और यह भी जानते हैं कि उन्होने परमात्मा का अनुभव किया ही नही है। ऐसे लोग काठ की हांडी की तरह हैं जिसे बार-बार आग पर नही चड़ाया जा सकता।

कबीर जी इस श्लोक मे पिछले श्लोक मे कहे गए उपदेशको  और ऐसे लोगो के बारे मे कह रहे हैं जो परमात्मा को पाने का झूठा दावा करते रहते हैं। कबीर जी समझाना चाहते है कि ऐसे लोग जो परमात्मा का ध्यान, अपमात्मा का अनुभव तो कर नही पाए, लेकिन संसार के सामने ऐसा व्यवाहर करते हैं जैसे उन्होने परमात्मा का अनुभव पा लिआ है और वे लोगो को उपदेश करने लगते हैं, गुरू बन कर बैठ जाते हैं। लेकिन ऐसे लोगो के बारे मे कबीर जी कहते हैं कि यह ज्यादा देर तक किसी को धोखा नही दे पाते। क्योकि एक ना एक दिन उन की असलियत सामने आ ही जाती है। इसी लिए कबीर जी उदाहरण देते हुए समझा रहे हैं कि जिस प्रकार काठ की हांडी एक ही बार चूल्हे पर चड़ाई जा सकती है, उसे कोई बार-बार नही चड़ा सकता । ठीक इसी तरह झूठे गुरू उपदेशक एक बार तो किसी को धोखा दे सकते हैं लेकिन दुबारा नही दे सकते। (यदि साधक के ह्र्दय मे परमात्मा को पाने की सच्ची लगन होगी तो वह ऐसे लोगो को जरूर पहचान लेता है।)

शनिवार, 21 अगस्त 2010

कबीर के श्लोक -३४

कबीर डूबा था पै ऊबरिउ, गुन की लहरि झबकि॥
जब देखिउ बेड़ा जरजरा, तब उतरि परिउ हऊ फरकि॥६७॥

कबीर जी कहते है कि मैं डूबने वाला ही था कि समझ की लहर ने धक्का देकर मुझे फिर उबार लिआ और जब मैने देखा कि यह बेड़ा तो कमजोर है, कभी भी डूब सकता है तो मैं उस पर से उतर गया।

कबीर जी हमे समझाना चाहते हैं कि इस संसार रूपी भवसागर मे मोह मायादि मे रमे रहने के कारण इंसान भटकता रहता है, लेकिन जब हमे जीवन मे कोई ऐसा झटका लगता है जो हमे भीतर तक झंकझोर देता है, हमे संसार की व्यर्थता का बोध करा देता है तो हमे समझ आता है कि हम मोह मायादि के कारण व्यर्थ के कामों मे ही उलझे हुए हैं, इन कामो से हमे कोई फायदा होने वाला नही । तब हम उस परमात्मा की ओर रुख करते हैं। जिस द्वार पर जाने मे कोई रोक टोक नही होती। अर्थात कबीर जी समझाना चाहते है कि संसारिक कामो को करने के बाद, विषय, विकारादि मे फँसने के बाद ही हमे संसार की व्यर्थता का बोध होता है। तभी हमे यह एह्सास होता है कि जिस बेड़े पर हम सवार थे वह कितना कमजोर है, इस बात की समझ आने पर ही हम उसे छोड़ सकते हैं ।लेकिन उसके लिए हमे "गुन की लहर" को समझने की बुद्धि भी होनी चाहिए।


कबीर पापी भगति न भावई, हरि पूजा न सुहाइ॥
माखी चंदनु परहरै, जह बिगंध तह जाइ॥६८॥

कबीर जी अब उन लोगो के बारे मे कह रहे हैं जिन्हें  इस "गुन की लहर" की समझ आती ही नही। वे कहते हैं कि ऐसे पापी लोगो को परमात्मा की भक्ति नही भाती और ना ही उन्हें ऐसे लोग भाते हैं जो उस परमात्मा की पूजा करने मे लगे हुए हैं।यह सब ठीक ऐसे ही है जैसे मख्खी को चंदन पसंद नही आता, वह उस पर नही बैठती। लेकिन जहाँ पर गंदगी पड़ी होती है वहीं जा कर बैठ जाती है।

कबीर जी हमे समझाना चाहते है कि संसार मे दो तरह के लोग हैं एक तो वे लोग हैं जो संसारादिक मोह माया मे रमे तो रहते हैं लेकिन कभी कभी जीवन मे उतार-चड़ाव का अनयास झटका लगने पर अर्थात अपने किसी नुकसान के कारण या अपने किसी प्यारे के बिछुड़ने आदि के कारण, सचेत हो जाते हैं।उन्हें संसार की व्यर्थता का बोध हो जाता है। लेकिन दूसरी तरह के ऐसे लोग भी हैं जिन्हें कभी किसी बात का कोई असर होता ही नही। ऐसे लोग सदा विषय विकारो के पीछे ही भागते रहते हैं और कभी उस से उबर नही पाते। क्योकि उन्हें इसी मे सुख का एहसास होता है।जबकि ये सुख अंतत: दुख ही देते हैं।

शनिवार, 14 अगस्त 2010

कबीर के श्लोक -३३

कबीर महिदी करि घालिआ, आपु पीसाइ पीसाइ॥
तै सह बात न पूछीऐ ,कबहु न लाई पाइ॥६५॥

कबीर जी कहते हैं कि मैं तो मेंहदी को पीस पीस कर  तैयार करता रहा ,लेकिन हे प्रभु , तूने तो कभी मुझ से पूछा ही नही, कि जिस मेंहदी को इतनी मेहनत से तैयार करता रहा वह परमात्मा ने अपने पाँव मे क्यो लगाई ही नही।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि जीवन भर जो काम हम इतनी मेहनत से करते रहे हैं, इन्ही कामो के पीछे दोड़ते भागते हमारा सारा समय बीतता गया। हम परमात्मा के लिए तप,व्रत, प्रार्थना आदि जैसे कामों को जीवन भर करते रहे हैं। लेकिन हमारे इन सभी कामो को करने के बाद भी तूने हमारी ओर ध्यान नही दिया। यह सब तो ठीक ऐसे ही है जैसे मेंहदी को बहुत मेहनत से पीस पीस कर पहले तैयार कर ले और जिस के लिए यह सब किया गया हो, वह हम से कुछ पूछे ही नही कि क्यो ये सारी मेहनत की है और इसे अपने पैरो मे ना लगाए। अर्थात कबीर जी हमे यह समझाना चाहते हैं कि हम जो भी जीवन भर धर्म-कर्म करते हैं , उसे स्वीकारना या अस्वीकारना प्रभु की मर्जी पर ही निर्भर करता है। जब हम ऐसा विचार कर धर्म कर्म करेगें तो हमारे कर्म करने की प्रवृति निष्कामता की ओर बढ़ेगी।

कबीर जिह दरि आवत जातिअहु, हटकै नाही कोइ॥
सो दरु कैसे छोडीऐ, जो दरु ऐसा होइ॥६६॥

कबीर जी कहते है कि जिस द्वार पर आने जाने में किसी प्रकार की रोक टोक नही होती,यदि कहीं कोई ऐसा द्वार मिल जाए तो  ऐसा द्वार कौन छोड़ सकता है।

कबीर जी हमसे कहना चाहते हैं कि परमात्मा की शरण मे जाने के लिए उस के द्वार सदा सभी के लिए खुले ही रहते हैं, इस द्वार पर कोई रोकने वाला है ही नही। जबकि संसार मे हम किसी द्वार पर जाए तो हम से कारण पूछा जाता है। हमारी जाति, धनी व निर्धनता के आधार पर पहले हमे तौला जाता है। तभी हमारे प्रवेश पर विचार किया जाता है। लेकिन परमात्मा के द्वार पर हम आए या जाएं , इसे कोई नही पूछ्ता।
 
यदि हम गहराई से विचार करे तो हम परमात्मा से बाहर कभी होते ही नही। बाहर भीतर वही तो समाया हुआ है। हमारे और परमात्मा के बीच सिर्फ एक हल्का -सा हमारे अंहकार का परदा ही तो है। इसी लिए कबीर जी कहना चाहते हैं कि जिस द्वार मे हम आने जाने के अधिकारी हैं ही , उस द्वार को क्यों छोड़े।

शनिवार, 7 अगस्त 2010

कबीर के श्लोक -३२

कबीर सुपनै हू बरड़ाइ कै, जिह मुखि निकसै रामु॥
ता के पग की पाहनी, मेरे तन को चामु॥६३॥

कबीर जी कहते है कि जिन लोगो के मुँह से सपने में भी परमात्मा का नाम ही निकलता है, मैं उनके पैरो में अपनी चमड़ी के जूते बना कर उनका सम्मान करना चाहुँगा।

कबीर जी हमे समझाना चाहते हैं कि हम वही सपने देखते है, उसी से संबधित सपने देखते है जिस का ध्यान हम दिनभर ज्यादा करते रहते हैं। इस लिए उसी को सपने में भी परमात्मा के नाम का सपना दिखाई देगा, जो सदैव उस परमात्मा के ध्यान में ही लगा रहता है। कबीर जी कहना चाहते है कि ऐसे लोग जिन्हें अब सपने मे भी परमात्मा विस्मरण नही होता ऐसे लोग बहुत दुर्लभ होते हैं, ऐसे लोगो का संग पाने मे यदि हम अपना सर्वस अर्पण कर दे तो वह भी बहुत कम ही होगा। इसी लिए वे उनके पैरो मे अपनी चमड़ी की जूती बना कर पहनाने की बात कर रहे हैं। अर्थात कबीर जी कहना चाहते है कि यदि हम दिनभर उसी परमात्मा का ध्यान करते रहेगें तो रात्री मे सोते समय भी हमारा ध्यान उसी परमात्मा मे अपने आप ही लगा रहेगा।


कबीर माटी के हम पूतरे, मानसु राखिऊ नाऊ॥
चारि दिवस के पाहुने, बड बड रूंधहि ठाऊ॥६४॥

कबीर जी कहते हैं कि वास्तव में हम तो मिट्टी के बनाए हुए पुतले हैं, जिस का नाम हमने मनुष्य रख लिआ है। जिस दुनिया मे हम रहते हैं वहाँ हम सिर्फ चार दिन के ही मेहमान हैं। अर्थात हम ज्यादा दिनों तक यहाँ रहने वाले नहीं है। लेकिन फिर भी हम यहाँ अधिक से अधिक जगह पाने की कोशिश मे ही लगे रहते हैं। अधिक से अधिक इकठ्ठा करने मे ही लगे रहते हैं।

कबीर जी कहना चाहते है कि हम मिट्टी के पुतले भर ही है जिस मे परमात्मा ने अपनी ज्योति रखी हुई है। हम इस मिट्टी के शरीर को ही मनुष्य का नाम देते हैं। इस संसार मे आकर हम भूल ही जाते हैं कि हम यहाँ एक मेहमान की तरह ही हैं, जिसे देर सबेर एक दिन सब कुछ छोड़ कर वापिस अपने घर लौट जाना है। तब हमारा यह शरीर भी यही मिट्टी मे मिल जाएगा। लेकिन हम यहाँ आकर सब कुछ पा लेना चाहते हैं, हम चाहते हैं कि अधिक से अधिक पदार्थो को हम इकठ्ठा कर लें। अधिक से अधिक संसारिक सुखो के साधन इकठ्ठे कर ले। क्योकि हमारे मन मे यह ख्याल ही नही आता कि एक दिन सब कुछ यही छोड़ पर हमे यहाँ से खाली हाथ जाना पड़ेगा। अर्थात कबीर जी हमे समझाना चाह्ते हैं कि इस क्षण भुगंर जीवन का सदुपयोग करने की बजाय कहीं हम व्यर्थ मे ही ना गँवा कर जाएं।

बुधवार, 28 जुलाई 2010

कबीर के श्लोक - ३१

कबीर मुहि मरने का चाउ है, मरऊ त हरि कै दुआर॥
मत हरि पूछै कऊनु है परा हमारै बार॥६१॥

कबीर जी कहते है कि मुझे मरने की इच्छा है कि मैं उस परमात्मा के द्वार पर मर जाँऊ।लेकिन आगे वे अपनी शंका जताते हुए कहते हैं कि कहीं मुझे अपने द्वार पर पड़ा देख कर परमात्मा यह तो नही पूछेगा कि यह कौन है जो मेरे द्वार पर पड़ा है।

कबीर जी भगत के मन में उठने वाले भाव को समझाना चाहते कि जब परमात्मा का प्यारा परमात्मा के प्रति पूर्णता से समर्पण की भावना लाता है अर्थात हरि के द्वार पर मरने की चाह करता है, तो मन मे इस तरह के भाव उठने लगते हैं। कि मेरे पूर्ण समर्पण के बाद हरि क्या मुझे स्वीकार लेगें ?वास्तव मे ऐसे भाव हमारे मन मे आते ही तभी हैं जब हम यह समझते है कि यह सब हम कर रहे हैं। इसी बात की ओर कबीर जी इंगित कर रहे हैं।


कबीर ना हम कीआ न करहिगे, ना करि सकै सरीरु॥
किआ जानऊ किछु हरि कीआ, भईउ कबीर कबीर॥६२॥

कबीर जी इस श्लोक मे पिछले श्लोक मे उठाई शंका का समाधान हमे बता रहे हैं कि वास्तव में हम तो कुछ करते ही नही। ना ही हम कुछ कर सकते है। ना ही हमारे शरीर मे इतनी सामर्थता है कि वह कुछ कर सकेगा। हम तो कुछ जानते ही नही क्योकि जो कुछ भी किया है वह परमात्मा ही कर सकता है जिस कारण लोग कबीर को पहचानने लगे हैं।

कबीर जी पिछले श्लोक मे उठाई शंका के निवारणार्थ हमे समझाते हुए कह रहे हैं कि परमात्मा के स्वीकार या अस्वीकार का प्रश्न ही नही उठता। क्योकि हमने कुछ किया ही नही है और ना ही हम कुछ करने मे कभी समर्थ ही हो सकते हैं। हम तो इस बारे मे कुछ जानते ही नही,जो कुछ कर रहा है वह तो परमात्मा ही करता है। इस लिए स्वीकारना या अस्वीकारना उसी के हाथ मे हैं। यह जो हमे सम्मान या प्रभु का प्रेम मिलता है यह तभी मिलता है जब वह परमात्मा हम पर कृपा करता है।

बुधवार, 21 जुलाई 2010

कबीर के श्लोक - ३०

कबीर ऐसा सतिगुरु जे मिलै, तुठा करे पसाउ॥
मुकति दुआरा मोकला, सहजे आवऊ जाउ॥५९॥

कबीर जी कहते है कि यदि कोई ऐसा सतगुरु मिल जाए जो प्रसन्न हो कर हम पर कृपा कर दे, जिस से मुक्ति का दरवाजा खुल्ला हो जाए ताकि हम उसमे से आसानी से आ जा सके। अर्थात फिर मुक्त हो कर संसार मे विचरण करते रहे, अपने कार विहार करते रहें।

कबीर जी यहाँ हमे गुरू का महत्व समझा रहे हैं। वे कहते हैं कि यदि सतगुरु अर्थात ऐसा गुरु जो मुक्त हो चुका है, हम पर प्रसन्न हो जाए तो वह हमे मुक्ति का सही रास्ता बता सकता है। जिस से हम भी स्थिर अवस्था को प्राप्त कर सकते हैं और उस परमात्मा की कृपा के पात्र बन सकते हैं। फिर हम संसार मे वैसे ही रहेगे जैसे परमात्मा हमे रखना चाहता है, क्यो कि मुक्ति की अवस्था मे पहुँचने के बाद विषय विकार, मोह मायादि की तृष्णा नही सता पाती।


कबीर ना मोहि छानि न छापरी, ना मोहि घरु नही गाउ॥
मत हरि पूछै कऊन है, मेरे जाति न नाउ॥६०॥

कबीर जी कहते है कि मेरे पास ऐसी कोई संपदा नही है जिसे मै अपना कह सँकू और ना ही मेरे पास कोई घर या गाँव  है और ना ही समाज द्वारा बनाई गई कोई जाति या नाम ही अब शेष रह गया है। ऐसे में संभव हो सकता है कि हरि हम पर ध्यान दे ।

कबीर जी कहना चाहते है कि जब हम स्थिर अवस्था को प्राप्त हो जाते हैं अर्थात संसार मे कुछ भी सदा रहने वाला नही है, यह समझ जाते है। तब मन इन से विरक्त को कर स्थिर अवस्था को प्राप्त हो जाता है। ऐसी अवस्था मे जब हम परमात्मा की शरण मे जाते हैं तो कबीर जी कह्ते है कि परमात्मा भी हमारी ओर ध्यान दे सकता है। अर्थात विकार रहित और मोह रिक्त मन ही परमात्मा को पा सकता है। कबीर जी हमे यही समझना चाहते हैं।

बुधवार, 14 जुलाई 2010

कबीर के श्लोक -२९

कबीर हरदी पीरतनु हरै, चून चिहनु न रहाइ॥
बलिहारी ऐह प्रीति कऊ, जिह जाति बरन कुलु जाइ॥५७॥

कबीर जी कहते है कि उस परमात्मा की प्रीत पर बलिहारी हुआ जाता हूँ जिसने जाति, वर्ण और कुल का भेद भाव नष्ट कर दिया। यह सब ठीक वैसे ही हुआ है जैसे हल्दी और चूने के मिलने से उन दोनो का रंग छूट जाता है।

कबीर जी कहना चाह्ते है कि परमात्मा से प्रीती करने से वे सभी चीजे ,मन के भाव छूट जाते है जिस कारण हम सुख दुख को महसूस करते हैं, जो हमारे विषय विकारो के पोषक होते है, उनका प्रभाव हमपर नही पड़ता, यदि हमारी प्रीती उस परमात्मा के साथ होती है। यहाँ कबीर जी ऐसा नही कह रहे कि हम वे काम करना ही छोड़ देते है, बल्कि वे कहना चाहते हैं कि वे तो वहीं रहते हैं, वैसे ही रहते हैं, लेकिन हमारे मन का भाव ऐसा हो जाता है कि उन विषय विकारों कुल जाति के अभिमानादि से हमारे मन का संबध टूट जाता है। जिस कारण हमारा मन शांत हो जाता है और जब मन शांत होता है तभी हमे उस परमात्मा की प्रीती का पता चल पाता है। उस प्रीती के महत्व का पता चल पाता है। तभी हम उस पर बलिहारी जाते है।


कबीर मुकति दुआरा संकरा, राई दसएं भाइ॥
मनु तऊ मैगलु होइ रहिउ, निकसो किऊ कै जाइ॥५८॥

कबीर जी कहते है कि मुक्ति का द्वार बहुत ही छोटा है, वह इतना छोटा है कि राई के दसवें हिस्से जैसा लगता है और हमे इसे ही पार करना होता है मुक्ति के लिए। लेकिन हमारा मन तो हाथी जितना बड़ा ही रहता है ऐसे मे उस द्वार से पार कैसे हो सकते हैं।

कबीर जी इस सवाल को उठा कर हमसे कहना चाहते हैं कि यदि हमे मुक्ति चाहिए, उस परमात्मा से एकाकार होने की चाह हैं, तो सबसे पहले इस मन से ही निपटना होगा।क्योकि हमारा ये मन संसारी बातों से, विषय विकारो से, धरम कर्म की बातो से, कर्म कांडो से, धन संपत्ति के लालच से, अपने लोगो के मोह से इतना भर गया है कि अब ये हाथी जितना बड़ा नजर आने लगा है।ऐसे मे मुक्ति के द्वार को पार करना असंभव है। अर्थात कबीर जी कहना चाहते है कि अंहकार और मोह मायादि विषय विकारों से ग्रस्त होने के कारण मन बड़ा प्रतीत होने लगता है, इसी लिए वह परमात्मा के मुक्ति द्वार को पार नही कर सकता। यहाँ पर कबीर जी हमे मुक्ति से वंचित रहने का कारण समझा रहे हैं।

बुधवार, 7 जुलाई 2010

कबीर के श्लोक - २८

कबीर मनु निरमलु भईआ, जैसा गंगा नीरु॥
पाछै लागो हरि फिरै, कहत कबीर कबीर॥५५॥

कबीर जी कह्ते है कि जब मन गंगा के पानी के समान निर्मल हो जाता है तो तुम परमात्मा के पीछे जाओ इसकी बजाय निर्मल मन होने पर परमात्मा तुम्हारे पीछे तुम्हे तलाशता हुआ पहुँच जाता है।स्वाभाविक रूप से तो हम सभी का मन जब हम संसार मे आते हैं तो निर्मल ही होता है।लेकिन जैसे जैसे हम बड़े होते जाते हैं हमारे मन मे विकारों का जन्म होने लगता है।जिस कारण मन कलुषित हो जाता है।इसी लिए कबीर जी कह रहे हैं कि यदि हमारा मन निर्मल हो अर्थात वैसा ही हो जैसा प्रकृति द्वारा हमे दिया गया था। तो ऐसे मे परमात्मा के साथ स्वाभाविक रुप से हमारा मन एकाकार हो जाता है।

कबीर जी समझाना चाहते है कि बाहरी परिवर्तन की अपेक्षा भीतरी परिवर्तन करने से ही परमात्मा की समीपता को पाया जा सकता है। जिस तरह दो समान गुण धर्म वाली वस्तुएं स्वत:आपस मे मिल कर एक ही हो जाती है। उसी तरह हमारे मन के निर्मल हो जाने से परमात्मा भी हमारी ओर आकर्षित हो कर हमे अपने मे समाहित कर लेता है। अर्थात कबीर जी हमे समझाना चाहते है यदि हमे परमात्मा को पाना है तो हमे उसी के समान गुण धर्म का होना होगा। तब हमे उस से एकाकार होने के लिए कोई कोशिश नही करनी पड़ेगी। बल्कि यह स्वत: ही हो जाएगा।


कबीर हरदी पीआरी, चूंनां ऊजल भाइ॥
राम सनेही तऊ मिलै, दोनउ बरन गवाइ॥५६॥

कबीर जी कहते हैं कि हल्दी पीले रंग की होती है और चूना सफेद रंग का होता है। लेकिन जब ये दोनो परस्पर मिलते है तो दोनो ही अपना अपना रंग छोड़ देते हैं और किसी तीसरे रंग मे नजर आने लगते हैं।

कबीर जी कहना चाहते है कि जिस प्रकार हल्दी और चूना अर्थात अलग अलग वर्ण और जाति के लोग जो कि उस राम के प्रेम में डूबे हुए हो यदि परस्पर मिलते हैं जो दोनों ही अपनी जाति,वर्ण का अभिमान भुल कर एक नये रंग में रंगे हुए आपस मे मिलते हैं। जैसे हल्दी और चूना  आपस मे मिलने पर तीसरा रंग धारण कर लेते हैं। अर्थात कबीर जी कहना चाहते है कि राम से प्रेम करने वालो को सभी मे राम के ही दर्शन होने लगते हैं।

सोमवार, 28 जून 2010

कबीर के श्लोक - २७

कबीर हरना दूबला , ऐह हरिआरा तालु॥
लाख अहेरी ऐकु जीऊ, केता बंचऊ कालु॥५३॥


कबीर जी कहते है कि यह संसार एक ऐसा सरोवर है जिस मे नाना प्रकार के मायावी भोगो की हरीयाली भरी पड़ी है और इस मे मन रूपी, जीवन रूपी हिरन विचरण कर रहा है। जो कि बहुत कमजोर है और इस संसार सरोवर मे लाखो शिकारी चारो ओर घात लगाए बैठे है ऐसे मे यह अकेला कमजोर हिरन कितने समय तक बच सकेगा।

कबीर जी हमे कहना चाहते है कि  वास्तव मे जीव इस संसार मे चारो और से प्रलोभनों विषय विकारो से बाहर और भीतर दोनो जगह से घिरा हुआ है।लाखो तरह के प्रलोभन हमारे चारो ओर मौजूद है जो निरन्तर हमारे मन को आकर्षित करते रहते हैं और हम इतने कमजोर है कि अपने मन को अपने कहे अनुसार नही चला पाते। बल्कि स्वयं उस मन के पीछे चलते रहते हैं। यहाँ किसी से मदद की उम्मीद भी नही कि जा सकती। क्योकि यहाँ सभी अकेले अकेले ही हैं। ऐसे में हम कितने समय तक इन संसारी प्रलोभना का शिकार होने से बच पाएगें।अर्थात कबीर जी कहना चाहते है कि यहाँ बचना बहुत मुश्किल है। इसी लिए पिछले श्लोको मे हमे कबीर जी ने परमात्मा को अपना मल्लाह बनाने की सलाह दी है। यहाँ कबीर जी हमे संसारी विकटता और प्रलोभनों मे हमारे आसानी से फँसनें का दृश्य उपस्थित कर उस से अवगत कराना चाहते हैं।

कबीर गंगा तीर जु घरु करहि पीवहि,निरमल नीरु॥
बिनु हरि भगति न मुकति होइ, ऐउ कहि रमे कबीर॥५४॥


कबीर जी कहते है कि यदि कोई अपना घर पवित्र गंगा के किनारे पर बना ले और उसी गंगा का निरमल पानी पीए। लेकिन उस परमात्मा का ध्यान ना कर, भक्ति ना करे, तो सिर्फ गंगा के किनारे घर बना कर और पवित्र गंगा का पानी पी कर वह मुक्ति अर्थात उस परमात्मा को नही पा सकता। इसी लिए कबीर जी कहते हैं कि यह बात समझने के बाद मैं तो अब उस परमात्मा मे ही रमा रहता हूँ।

कबीर जी हमे समझाना चाहते है कि सिर्फ धार्मिकता का दिखावा करने मात्र से किसी प्रकार का लाभ नही मिलता। हमारे बाहरी आचरण कुछ भी बदलाव हमारे भीतर नही कर सकते। यदि हमे उस परमात्मा मे डूबना है तो हमे अपने भीतर उसके प्रति प्रेम जगाना पड़ेगा। यह बात कबीर जी इस लिए कह रहे हैं कि बहुत से लोग प्रत्यक्ष रूप से देखने पर पूजा-पाठ करते, हरि भजन करते, मंदिर, मस्जिद, गुरूद्वारा जाते, नजर तो आते हैं। लेकिन वास्तव में यह सब उनका बाहरी आचरण मात्र ही होता है। यह सब ठीक वैसा ही है जैसे कोई गंगा के किनारे घर बना कर रहने लगे और गंगा का पवित्र जल पीता रहे। लेकिन उस परमात्मा का ध्यान ना करे। इसी लिए कबीर जी हमे उस राम में ,उस परमात्मा या खुदा मे, रमने के लिए कह रहे हैं।

सोमवार, 21 जून 2010

कबीर के श्लोक - २६



कबीर निगुसांऐं बहि गए, थांघी नाही कोइ॥
दीन गरीबी आपुनी, करते होइ सु होइ॥५१॥

कबीर जी कहते है कि यदि बिना परमात्मा का सहारा लिए अर्थात मल्लाह को साथ लिए बिना, हम इस संसार  रूपी समुंद्र में चलेगें तो हमारा बह जाना अर्थात विषय विकारो मे फँस जाना निश्चित है। इस लिए अपनी समझदारी छोड़ कर उस परमात्मा रूपी मल्लाह के हाथो मे अपने आप को छोड़ देना चाहिए।फिर वह जहाँ चाहे हमे ले जाए अर्थात उस परमात्मा की रजा मे रहना ही सही रास्ता है।

कबीर जी कहना चाहते है कि वस्तुत: हमारा जीवन संसारी बातो से प्रभावित रहता है।हम सदा ऐसी चीजो को पाने की लालसा रखते हैं जो ऊपरी तौर पर सुख देने वाली लगती हैं लेकिन उन से हमे अंतत: दुख ही मिलता है। लेकिन यह सब तभी होता है जब हम अपने को उस परमात्मा से, उस गुसाई से अलग मान कर चल रहे होते हैं। कबीर जी आगे समझाते हुए कहते है यदि हमे अपनी इस नासमझी का पता चल जाए तो हम उस परमात्मा के प्रति नम्रता पूर्वक समर्पित हो जाएगें। फिर वह परमात्मा हमे जिस ओर भी ले जाएगा, जैसे भी रखेगा, हम बेफिक्र रहेगें।


कबीर बैसनउ की कूकरि भली, साकत की बुरी माइ॥
उह नित सुनै हरि नाम जसु , ऊह पाप बिसाहन जाइ॥५२॥

कबीर जी कहते है कि वे जो परमात्मा का नाम लेने वाले परमात्मा के भगत हैं उन के घर पर रहने वाली कुतिया भी बहुत अच्छी है और जो परमात्मा को भूले हुए है, साकत लोग हैं । उन के घर मे रहने वाली माँ  भी भली नही हो सकती। क्योकि भगत के घर वास करने वाला नित हरि का नाम सुनता है और साकत के घर पर रहने वाली माँ पाप मे ले जाने वाले विचारों को सुनती है।

कबीर जी इस श्लोक में हमे सगंत के प्रभाव के बारे मे बताना चाहते हैं। क्योकि  हमारे जीवन पर संगत का प्रभाव बहुत पड़ता है। हम जैसी संगत मे रहते हैं वैसे ही गुण-अवगुण का विकास हमारे अंदर होने लगता है। अत: कबीर जी हमे सही और गलत संगती के पड़ने वाले प्रभाव के विषय मे यहाँ हमे सचेत कर रहे हैं। कबीर जी कहते हैं कि कुतिया यानि कि दीन हीन प्राणी जो अच्छी संगत मे बैठता है वह अच्छा है और माँ जो समाज की नजर में आदरणीय तो है लेकिन बुरी संगत मे रहती है। वह बुरी है। अर्थात कबीर जी कहना चाहते हैं कि किसी व्यक्ति की समाज मे क्या इज्जत है, इस आधार पर नही बल्कि वह कैसी संगती मे रहता है, इस के आधार पर ही हमे किसी के साथ संगती करनी चाहिए।


सोमवार, 14 जून 2010

कबीर के श्लोक - २५



कबीर थोरै जलि माछुली, झीवरि मेलिउ जालु॥
ऐह टोंघनै न छूटसहि, फिरि करि समुंदु समालि॥४९॥

कबीर जी कहते है कि यदि मच्छ्ली उस जगह पर है जहाँ पानी कम है तो वह ऐसी जगह पर आसानी से मछुआरे के जाल मे फँस जाती है। इसी लिए मच्छली को माध्यम बना कर कबीर जी हम से कहना चाहते हैं कि मच्छ्ली तू छोटे खड्डो मे रहना छोड़ कर समुंद्र की ओर ध्यान दे।

कबीर जी हमे यहाँ सांकेतिक भाषा मे कहना चाहते है कि जब मच्छ्ली अर्थात जीवात्मा थोड़े जल के आसरे होती है तो वह जाल मे अर्थात संसारी मोह मायादि मे आसानी से फँस जाती है। लेकिन यदि यह मच्छली अर्थात जीवात्मा समुद मे हो तो वहाँ यह आसानी से मछुआरे के जाल मे नही फँसती अर्थात मोह मायादि का शिकार नही हो पाती।अर्थात माया मे रमने की बजाय उस परमात्मा मे रमण करने की बात समझाना चाहते हैं।


कबीर समुंदु न छोडिऐ, जउ अति खारो होइ॥
पोखरि पोखरि ढूढते, भले न कहि है कोइ॥५०॥

कबीर जी आगे कहते हैं कि हमे वह समुंद्र को नही छोड़ना चाहिए। भले ही उसमे कितना ही खारापन क्यों ना हो। क्योकि यदि हम समुंद्र छोड़ कर पोखरों को खोजने मे लगेगें तो हम नासमझ ही कहलाएगें।

कबीर जी यहाँ कहना चाहते है कि हमे उस समुंद्र रूपी परमात्मा को कभी नही छोड़ना चाहिए। भले ही समुंद्र खारा हो अर्थात उस परमात्मा को पाने में हमे कष्ट ही क्यों ना उठाने पढ़े। अर्थात कबीर जी कहना चाहते है कि जब हम परमात्मा की तरफ रूख करते है तो हमारे जीवन मे कई तरह के व्यवधान, रूकावटे आने लगती है। हमारा अंहम मरने लगता है ।जिस कारण मन को बहुत भय होने लगता है। इसी लिए कबीर जी समुंद्र रूपी परमात्मा को खारा कह रहे है। लेकिन साथ ही हमे कह रहे हैं इन बातों से घबरा कर हमे संसार के क्षणिक सुखों के प्रलोभनों के लिए अर्थात पोखरों की चाह मे इस समुंद्र रूपी परमात्मा को छोड़ना नही चाहिए।



सोमवार, 7 जून 2010

कबीर के श्लोक - २४

कबीर परदेसी कै घाघरै, चहु दिसि लागी आगि॥
खिंथा जलि कोइला भई, तागे आंच न लाग॥४७॥

कबीर जी कहते है कि यह जो परदेसी है इस के घाघरे के चारो ओर आग लगी हुई है। इस की जो गोदड़ी है वह तो जल कर कोयला हुई जाती है।लेकिन इस के बीच जो धागा है उसे आँच तक नही लगती।

कबीर जी कहना चाहते  हैं कि यह जीव जो इस जगत मे मुसाफिर है इस की ज्ञान इन्द्रीयों के चारो ओर विषय विकारों की आग लगी हुई है और यह जो हमारा गोदड़ी रूपी शरीर है यह इन विषय विकारों की आग मे जल कर कोयला हुआ जा रहा है अर्थात जीव दुनिया मे मुसाफिर की तरह है और विषय विकारो के आधीन हो कर हम तृष्णा की आग मे जलते रहते है जिस कारण यह शरीर दुख पाता है।लेकिन कबीर जी आगे कहते है कि यह सब तो हो रहा है लेकिन इस शरीर के भीतर जो धागा रूपी हमारी आत्मा है उस पर विषय विकारों का कोई प्रभाव नही पड़ता। अर्थात कबीर जी सांकेंतिक भाषा मे हमे बता रहे है कि यदि विषय विकारों की आग से बचना है तो हमे क्या करना चाहिए।

कबीर खिंथा जलि कोइला भई, खापरु फूट मफूट॥
जोगी बपुड़ा खेलिउ, आसनि रही बिभूति॥४८॥

कबीर जी अपनी बात को आगे ले जाते हुए इस श्लोक मे कह रहे हैं कि यह जो शरीर रूपी गोदड़ी है यह तो विष्य विकारो की आग मे जल कर कोयला हो गई है और यह खप्पर जिस मे जोगी लोग भिक्षादी माँगते हैं यह भी टूट फूट गया है। यदि जोगी इसी तरह करता रहे तो अंत मे कुछ भी हाथ नही आता।

कबीर जी कहना चाहते है कि विषय विकारो की आग मे पड़ कर यह जो जोगी रूपी जीव है, इसने अपने शरीर को तो विषय विकारों से ग्रस्त कर ही लिआ है लेकिन फिर भी यह मन रूपी खप्पर यानी भिक्षा पात्र में और अधिक वासनाओं को ही भरता  जा रहा है जिस कारण इस का यह मन रूपी पात्र भी टूट फूट गया है। लेकिन फिर भी जीव संभलने की बजाय इन्हीं वासनाओं मे रमा रहता है।ऐसा जीव अंत में अपना जीवन व्यर्थ ही गँवा कर यहाँ से जाता है।

शुक्रवार, 28 मई 2010

कबीर के श्लोक -२३

कबीर मै जानिउ पड़िबो भलो, पड़िबे सिउ भल जोगु॥
भगति न छाडऊ राम की, भावै निंदऊ लोगु॥४५॥

कबीर जी पिछ्ले श्लोको मे भोग विलासादि और विषय विकारादि को छोड़ने कि बात कहने के बाद अब पढ़ने की बात पर अपना मत रख रहे हैं।वे कहते है कि मैने सुना था कि धर्म ग्रंथो को पढ़ना चाहिए। लेकिन पढ़ने से तो अच्छा है कि हम उस परमात्मा की भक्ति करें।वे कह्ते है मुझे उस परमत्मा की भक्ति,उस राम को छोड़ना मंजूर नही है भले ही लोग मेरी इस बात की निंदा करें कि मैं धर्म ग्रंथो को पढ़ता नही।

कबीर जी इस श्लोक मे हमे कहना चाहते हैं कि बहुत से लोग ऐसे होते हैं कि वे धर्म ग्रंथों का अध्ययन ही करते रहते हैं।धर्म ग्रंथो को अर्थ सहित कंठस्थ कर लेते है।वे लोग इसी को अपनी धार्मिकता समझ लेते हैं कि वे इन्हें पढ़ते है इस लिए वे प्रभु की भक्ति ही कर रहे हैं। लेकिन कबीर जी कहते है कि भले ही पढ़ना अच्छी बात है लेकिन यदि पढ़ने की बजाय हम उस परमात्मा की भक्ति करें, उस के प्रेम मे डूब जाए तो यह पढ़ते रहने से अच्छा होगा। कबीर जी अपनी बात करते हुए हमे समझाना चाहते है कि भले ही लोग तुम्हारी ऐसा करने पर निंदा करेगें । लेकिन हमे इस निंदा की परवाह किए बिना ही परमात्मा की भक्ति करने का रास्ता ही अपनाना चाहिए। अर्थात कबीर जी हमे कहना चाहते है कि हमे पढ़ने पढ़ाने मे, संसारिक ज्ञान हासिल करने में, धर्म ग्रंथो मे लिखी बातो को ही दोहराते रहने मे नही लगे रहना चाहिए।


कबीर लोगु की निंदै बपुड़ा, जिह मनि नाहि गिआनु॥
राम कबीरा रवि रहे, अवर तजे सभ काम॥४६॥

कबीर जी पिछले श्लोक मे कही बातों के संदर्भ का आश्य लेकर कह रहे हैं कि ऐसे लोग जो हमारे इस व्यवाहर के कारण हमारी निंदा करते है वे लोग नासमझ हैं। क्योकि वे संसारिक बोध और ईश्वरीय बोध की जानकारी नही रखते। ऐसे लोगो की निंदा कोई मायने नही रखती। इस लिए कबीर जी कह्ते हैं कि उस राम मे ही रमे रहो। बाकि के सभी कामों को छोड़ दो।उन की परवाह मत करो।

कबीर जी हमे कहना चाहते हैं कि नासमझ लोगों की निंदा करने से कोई फर्क नही पड़ता।क्योकि उन्हें इस बारे मे कोई जानकारी ही नही है कि क्या सही है और क्या गलत है।इस लिए उस परमात्मा मे ही रमे रहना चाहिए और व्यर्थ मे इन बातो की परवाह नही करनी चाहिए।

शुक्रवार, 21 मई 2010

कबीर के श्लोक -२२

को है लरिका बेचई, लरिकी बेचै कोइ॥
साझा करै कबीर सिउ, हरि संगि बनजु करेइ॥४३॥

कबीर जी कह्ते है कि कोई लड़के बेच रहा है और कोई लड़कीयां बेच रहा है। लेकिन कबीर जी कहते है कि हम तो उस के साथ व्यापार करेगें जो ईश्वर के साथ सौदा कर रहा है।

कबीर जी इस श्लोक द्वारा समझाना चाहते है कि इस संसार मे कोई लड़के अर्थात कामादिक विषय विकारों को और कोई लड़कीयों को अर्थात ईष्या द्वैष आदि को दुसरो के लिए इस्तमाल कर रहा है । इस लिए बदले में भी वही सब कुछ पा रहा है। कहने का भाव है कि हम जो संसार को देते हैं वही पाते है। लेकिन कबीर जी कहते हैं कि हम ऐसे लोगो की बजाय ऐसे लोगो से सौदा करना चाहिए अर्थात संग करना चाहिए,  जो उस परमात्मा के नाम सिमरन के बदले ईश्वर को पाना चाहते है ।


कबीर ऐह चेतावनी, मत सहसा रहि जाइ॥
पाछै भोग जु भोगवे, तिन को गुड़ु लै खाहि॥४४॥

कबीर जी कह्ते हैं कि यह चेतावनी है, कहीं ऐसा ना हो कि तू भुलावे मे पड़ा रह जाए।क्योकि अब तक तूने जितने भी विषय-विकारों से ग्रस्त हो कर भोग भोगे हैं, उन का कोई भी लाभ नही मिलने वाला।यह सब तो ऐसे है जैसे किसी दुकान से सामान खरीदने के बाद कोई चुंगा स्वरूप थोड़ा -सा गुड़ खिला देता है।

कबीर जी हमे सचेत करते हुए कहना चाहते है कि बहुत से लोग ऐसा मान कर बैठे हुए कि वे साधन संम्पन हैं, दुनियावी पदार्थो, भोग विलासों का आनंद ले रहे हैं इस लिए उन पर ईश्वर की बड़ी कृपा है।लेकिन कबीर जी सचेत करते हुए कहते हैं कि किसी को ऐसे भुलावों मे नही पड़ना चाहिए।क्योकि ये भोग विलास तुम्हें भ्रम मे डाल रहा है।यह सब तो किसी जन्म मे किए हुए तुम्हारे भलाई के काम के बदले प्राप्त हुआ पदार्थ है।जो कि ठीक ऐसा है जैसे किसी दुकानदार से सौदा खरीदने के बाद दुकानदार चुंगा स्वरूप थोड़ा-सा गुड़ तुम्हे थमा देता है।अर्थात यह सदा रहने वाला सुख नही है।

शुक्रवार, 14 मई 2010

कबीर के श्लोक -२१

कबीर लूटना है त लूटि लै, राम नाम है लूटि॥
फिरि पाछै पछुताहुगे, प्रान जाहिंगे छूटि॥४१॥

कबीर जी कहते है कि यदि तुझे कुछ लूटने की चाह है तो तू उस राम नाम की लूट कर ले।क्योकि एक राम का नाम ही लूटने योग्य है।यदि तूने अभी इस राम नाम को नही लूटा तो जब तेरे प्राण इस शरीर को छोड़ देगें उस समय तुझे पछताना पड़ेगा।

कबीर जी हमे कहना चाहते है कि हमारी प्रवृति सदा लूटने की रहती है, कभी हम धन के पीछे, कभी मान सम्मान के पीछे, कभी अन्य कामनाओं की प्राप्ती को पाने की लालसा मे सदा लगे रहते हैं। इस लिए कबीर जी हमे कहते हैं कि यदि लूटना है तो उस परमात्मा के नाम की लूट कर, जो सदा तेरे काम आना है।क्यो नाशवान पदार्थो, सुखो के पीछे भागता रहता है। यदि तुमने अभी होश नही संभाला तो जब तेरे प्राण तेरे शरीर से निकलने लगेगें तो तू बहुत पछताएगा। वास्तव मे कबीर जी हमे वह रास्ता बता रहे हैं जिस से हमे स्थायी सुख,आनंद की प्राप्ती होती है। वे समय रहते हमे सचेत होने को कह रहे हैं।

कबीर ऐसा कोई न जनमिउ, अपनै घरि लावै आगि॥
पांचऊ लरिका जारि कै, रहै राम लिव लागि॥४२॥

कबीर जी कहते है कि मैने ऐसा कोई भी व्यक्ति नही देखा जो अपने घर को स्वयं ही आग लगा दे और उस आग मे अपने पाँचों लड़को को भी जला दे।उन पाँचो लड़को को जला कर स्वयं परमात्मा का ध्यान करने लगे।

कबीर जी हमे कहना चाहते हैं कि व्यक्ति इतनी आसानी से संसार का मोह नही छोड़ सकता।ऐसा करना बहुत हिम्मत की बात है कि कोई अपने बनाए घर को स्वयं ही नष्ट कर दे। भीतर रहने वाले पाँचों विकारो से मुक्त होना बहुत कठिन है।लेकिन यदि हम उस राम का ध्यान करें, उस राम के नाम मे डूब जाए तो यह संभव हो सकता है। इस रास्ते पर चल कर संसारिक मोह से, विषय विकारों से छूटा जा सकता है।

शुक्रवार, 7 मई 2010

कबीर के श्लोक -२०

कबीर गरबु न कीजीए, रंकु न हसीऐ कोइ॥
अजहु सु नाउ समुंद्र महि, किआ जानऊ किआ होइ॥३९॥

कबीर जी पिछले श्लोको की तरह इस श्लोक मे भी गर्व करने का एक कारण और बता रहे हैं। वे कहते हैं कि जो लोग धनवान हो जाते है उन लोगो को गरीब इन्सान की दयनीय स्थिति को देख कर हँसना नही चाहिए।उन्हे इस बात का अंहकार नही करना चाहिए कि वे धनवान हैं। क्योकि जिन के पास आज भले ही धन संपत्ति है, लेकिन यह निश्चित नही है कि भविष्य मे भी वे इसी तरह धन संपत्ति के स्वामी बनें रहेगें। यह बात कोई नही जानता कि हम कब धनी और कब निर्धन बन जाएगें।

कबीर जी कहना चाहते है कि अपनी धन संपत्ति के अंहकार मे डूब कर हमें गरीब लोगों की दयनीय स्थिति का मजाक नही उड़ाना चाहिए। क्योकि यह धन भी तो  नाशवान है,यह जरूरी नही कि यह हमेशा इसी तरह बना रहेगा।भविष्य को कोई नही जानता।वास्तव मे कबीर जी हमे धन संपत्ति के कारण दुसरो को छोटा समझने की हमारी प्रवृति से हमे मुक्त करने की बात कर रहे हैं।
                   
कबीर गरबु न कीजीए, देही देखि सुरंग॥
आजु कालि तजि जाहुगे, जिउ कांचुरी भुयंग॥४०॥

कबीर जी अपनी बात को आगे बढाते हुए कहते हैं कि अपने सुन्दर रंग रूप को देख कर हमे उस पर अभिमान नही करना चाहिए। वे कहते है कि जिस प्रकार साँप अपनी कैंचुरी को समय आने पर त्याग देता है या कहे उसे त्यागनी पड़ती है। उसी प्रकार समय बीतने पर हमारा यह रंग रूप नष्ट होता जाता है। इस लिए इस पर अभिमान नही करना चाहिए।

वास्तव मे कबीर जी हमे समझाना चाहते हैं कि हम लोग किसी भी प्रकार की अपनी विषेशता को लेकर अंहकार से भर जाते हैं। लेकिन यह भुल जाते हैं कि हरेक वस्तु , हरेक पदार्थ परिवर्तनशील है, नाशवान है। हमारा यह सुन्दर रंग रूप भी सदा नही रहता।साँप का उदाहरण देते हुए कबीर जी समझाते है कि साँप जिस प्रकार अपनी सुन्दर कैंचुरी को छोड़ देता है, उसी तरह हमारा शरीर भी अपनी सुन्दरता को छोड़ देगा।अत: इस पर गर्व नही करना चाहिए।

गुरुवार, 29 अप्रैल 2010

कबीर के श्लोक -१९

कबीर गरबु न कीजीऐ, चाम लपेटे हाड॥
हैवर ऊपरि छ्त्र तर, ते फुनि धरती गाड॥३७॥

कबीर जी कहते है कि इस शरीर का गर्व नही करना चाहिए।यह हमारा शरीर हड्डीयों पर लपेटी हुई चमड़ी मात्र तो है। गर्व किस बात का करना ? वे लोग जो कभी घोड़ो पर सवार होते थे, जिन के सिर पर छ्त्र रहते थे ।वे भी आखिर मे धरती मे गाड़ दिए जाते हैं।

कबीर जी इस श्लोक मे हमे शरीर के नाशवान होने की बात फिर से कह रहे हैं।हम लोग जब दुसरों द्वारा सम्मान पाते है तो हम गर्व से भर जाते हैं।उस समय हम भुल ही जाते हैं कि जिस शरीर के सम्मान के कारण हम गर्व कर रहे हैं वह शरीर तो आज नही तो कल मिट्टी मे मिल ही जाना है।फिर हम उस पर गर्व करके अपने मोह को क्यों प्रगाढ करते रहते हैं। अर्थात कबीर जी हमे समझाना चाहते है कि इस शरीर पर गर्व करना व्यर्थ है।

कबीर गरबु न कीजीऐ, ऊचा देखि अवासु॥
आजु कालि भुइ लेटणा, ऊपरि जामै घासु॥३८॥

कबीर जी अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहते है कि बहुत से लोग अपने ऊँचे महल, घर देख कर गर्व से भर जाते हैं।लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि आज -कल में उन्हें जमीन पर लेटना पड़ेगा , मरना ही होगा। तब हमारा यह शरीर मिट्टी मे मिल जाना है और उस मिट्टी पर फिर घास उग जाएगी।

कबीर जी इन श्लोको में हमे यह बता रहे है कि हम किन किन बातों पर अपने अंहकार को पोषित करते रहते हैं।सब से पहले कबीर जी ने बताया कि हम शरीर के प्रति, दुसरो से सम्मान पाने के प्रति अंहकार  से भरते है। इस श्लोक मे कबीर जी कहते है कि धन संपत्ति के कारण भी लोग अंहकार से भर जाते हैं।लेकिन हम यह बात सदा भुले रहते हैं कि अंतत: यह सब यही छोड़ कर हमे चले जाना है।जो वस्तु सदा  हमारी नही रहनी उस पर अंहकार किस लिए करें ?हमे तो अंत मे इस शरीर को भी छोड़ कर जाना है इस शरीर ने यही मिट्टी मे मिल जाना है।वास्तव मे कबीर जी यह सब बाते हमे इस लिए समझा रहे है ताकि हमारा मोह दुनियावी राग रंग व दुनिया  की नश्वरता को देख समझ कर इस से छूट जाए और हम उस परमात्मा के प्रति प्रेम से भर सकें। उस परम पिता परमात्मा से एकाकार हो सकें।

गुरुवार, 22 अप्रैल 2010

कबीर के श्लोक -१८

कबीर बेड़ा जरजरा, फूटे छेंक हजार॥
हरूऐ हरूऐ तिरि गए, डूबे जिन सिर भार॥३५॥

कबीर जी कह्ते है कि यह जो बेड़ा अर्थात समुद्री जहाज है यह बहुत ही नाजुक हालत मे हैं और इस मे हजारों छेद हो चुके हैं। लेकिन हजारो छेद होने के बावजूद भी जो हल्के हल्के थे। वे तो तैरते चले गए लेकिन जो अपने ऊपर भार लादे हुए थे वे डूब गए।

कबीर जी हमे कहना चाहते है कि यह जो हमारा जीवन है यह एक समुद्री जहाज की तरह है। जो संसार रूपी सागर मे तैर रहा है। यह जहाज भी ना जाने कितने जन्मों से यात्रा कर रहा है और इसमे अब तक ना जाने कितनें अच्छे बुरे संस्कारों और कामों के कारण हजारो छेद हो चुके हैं।जिस कारण यह बहुत जरजर हालत मे पहुँच चुका है।यह कभी भी डूब सकता है।लेकिन कबीर जी आगे कहते है कि इस समुद्र मे वही जहाज तैर सकता है जो निर्भार है जिस का कोई भार नही है। अर्थात  जिस के मन मे कोई कामना शेष नही रह गई है।वही यहाँ तैर कर पार हो सकता है और जिन के सिर पर भार है अर्थात कामनाए हैं, धर्म कर्म की बातों से जो भरे हुए है, जिन्होनें अपने भीतर शब्दो के ज्ञान भंडार को इक्ठ्ठा किया हुआ है।ऐसे लोग इस संसार सागर को पार नही कर सकते।अर्थात किसी विषय के बारे मे जानकारी रखना अलग बात है और किसी बात का अनुभव करना अलग बात है।यहाँ पर कबीर जी जानकारी रखने वालो के सिर पर भार है ऐसा कह रहे हैं और जिन्हे अनुभव है वे ही हल्के हैं। यही बात कबीर जी कहना चाहते हैं।अत: हम निर्भार हो कर ही इस सागर से पार हो सकते हैं।

कबीर हाड जरे जिउ लाकरी, केस जरे जिउ घासु॥
ऐहु जगु जरता देखि कै, भईउ कबीरु उदासु॥३६॥

कबीर जी कह्ते हैं कि इस भौतिक शरीर के नष्ट होने पर हमारे शरीर को जब आग मे जलाया जाता है उस समय हमारी हड्डीयां लकड़ी की तरह जलती है और हमारे बाल घास की तरह जल कर राख हो जाते है। यह सब हम रोज ही अपने आस-पास घटता देखते रहते हैं। कबीर जी कहते हैं कि  इन्हीं बातो को देख कर मेरा मन संसारी बातों से ऊब गया, उदास हो गया।

कबीर जी इस मृत्यु के बारे मे बार बार हमे बता रहे हैं। उसका कारण यह है कि हम हमेशा अपनी मृत्यु को भूले रहते हैं ।यहाँ तक की जब हम मरघट पर किसी की अर्थी के साथ भी जाते है, उस समय भी हम अपनी मृत्यु को नही देख पाते।यदि हम कभी किसी दूसरे की मृत्यु में अपनी मृत्यु को देख सकें तो हम भी कबीर जी की तरह इस संसार की असलियत को पहचान पाएगें और इसे पहचानते ही हम भी कबीर जी की तरह इस संसार के प्रति उदास हो जाएगें।इसी बात को समझाने के लिए कबीर जी हमे अपना अनुभव बता रहे हैं।

गुरुवार, 15 अप्रैल 2010

कबीर के श्लोक -१७

कबीर कसऊटी राम की, झूठा टिकै न कोइ॥
राम कसऊटी सो सहै,जो मरि जीवा होइ॥३३॥

कबीर जी कह्ते है कि उस परमात्मा के समक्ष झूठा कभी नही टिक पाता।क्योकि उस परमात्मा की कसौटी ही ऐसी है कि जब तक मनुष्य अपने अंहकार को नही मार लेता तब तक वह उस तक नही पहुँच पाता।अर्थात राम की कसौटी को वही सहन कर सकता है जो जीते जी मृतक के समान जगत मे व्यवाहर करता है।

कबीर जी कहना चाहते है कि झूठा आदमी लाख चाहे वह अपने झूठ के कारण कभी सफल नही हो सकता।क्योकि सत्य को झूठ के सहारे पाया ही नही जा सकता।सत्य को पाने के लिए सत्य ही मदद कर सकता है और परमात्मा तो परम सत्य स्वरूपा है।इस लिए उसे कोई झूठ के सहारे कैसे पा सकता है ? आगे कबीर जी समझाते है कि राम की इस कसौटी वही स्वीकारता है जो दुनियावी मोह माया के प्रति उदासीन हो चुका है, मर चुका है और उस परमात्मा के प्रेम के प्रति जाग्रित हो चुका है। अर्थात जीने लगता है। यही एक मात्र कसौटी है जो यह दर्शाती है कि तुम राम के प्रति समर्पित हो चुके हो या नही।

कबीर ऊजल पहिरहि कापरे, पान सुपारी खाहि॥
ऐकस हरि के नाम बिनु ,बाधे जम पुरि जांहि॥३४॥

कबीर जी कहते है कि दुनियावी आदमी साफ सुथरे कपड़े पहन कर और पान सुपारी खा कर आनंदित दिखने की कोशिश करते रहते हैं। लेकिन परमात्मा के नाम के बिना मृत्यु के भय की फाँस मे बधे रहते हैं और अंतत: मृत्युलोक मे चले जाते हैं।

कबीर जी यहाँ झूठे लोगो के व्यवाहर के बारे मे समझाना चाहते हैं  कि ऐसे लोग उजले कपड़े अर्थात ऐसे कपड़े पहने रहते है जिस से यह आभास होता है कि ये बहुत धर्म-कर्म को मानने वाले है। वे लोग इस तरह का व्यवाहर करते है कि जैसे अब बहुत आनंदित अवस्था मे रह रहे हैं यहाँ कबीर जी पान सुपारी खाने के भाव को इसी आशय से कह रहे हैं। लेकिन कबीर जी आगे कहते है कि उस परमात्मा के नाम के बिना कोई जितना मर्जी दिखावा करे लेकिन इनके भीतर मृत्यु का भय हमेशा इन्हें सताता रहता है।

गुरुवार, 8 अप्रैल 2010

कबीर के श्लोक -१६

कबीरा तुही कबीर तू ,तेरो नाऊ कबीरु॥
राम रतनु तब पाईऐ,जऊ पहले तजहि सरीरु॥३१॥


कबीर जी इस श्लोक मे कहते है कि तू ही सब से बड़ा है और सर्वत्र तू ही है। तेरा नाम ही कबीर है अर्थात भगत और भगवान मे कोई भेद नही है।लेकिन यह भेद तभी मिटता जब हम इस शरीर का मोह छोड़ देते है।तभी हमे उस परमात्मा की पहचान हो पाती है अर्थात राम रूपी रतन को पाया जा सकता है।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि हम अपने शरीर के मोह के कारण ही उस से दूर रहते है। शरीर के मोह के कारण ही हम विषय विकारो से ग्रस्त होते हैं। लेकिन शरीर का होते हुए भी नकारना आसान नही होता। इसे तभी नकारा जा सकता है जब हम उस परमात्मा के नाम मे पूरी तरह डूब जाएं। अर्थात कबीर जी अपने अनुभव को बताते हुए हमे समझा रहे हैं कि वह परमात्मा सब से बड़ा है और उस का नाम बी उसी की तरह सबसे बड़ा है। यदि इस राम रूपी रतन को तुझे पाना है तो पहले इस शरीर का मोह छोड़ना होगा। तभी तुझे राम रूपी रतन की प्राप्ती होगी।


कबीर झंखु न झंखीऐ, तुमरो कहिउ न होइ॥
करम करीम जु करि रहे, मेटि न साकै कोइ॥३२॥


कबीर जी पहले कहे गए श्लोक को और अधिक स्पष्ट करते हुए कहते है कि मोह ग्रस्त होने के कारण हम हमेशा उस परमात्मा से शिकायते ही करते रहते हैं कि उसने हमे वह नही दिया जो हमे मिलना चाहिए था। लेकिन कबीर जी कहते है कि तुम्हारे कहे अनुसार तो कुछ हो ही नही रहा और ना कभी होना ही है। होता तो वही है जो कृपालु परमात्मा कर रहा है। उस के किए कामों को कोई बदल नही सकता।

कबीर जी कहना चाहते है कि यदि हमे उस राम रतन को पाना है तो सबसे पहले यह शिकायत करनी छोड़नी पड़ेगी। क्योकि किसी को प्रार्थना और निवेदन करने की जरूरत ही नही है। वह कृपालु परमात्मा तो हमारी जरूरतो के अनुसार ही सब कुछ कर रहे हैं, सभी कुछ हमे देते रहते हैं। अर्थात कबीर जी के कहने का भाव यह है कि हमे उसकी रजा मे ही रहना चाहिए, तभी इस शरीर का मोह छूटगा। जब शरीर का मोह छूटगा तो उस राम रतन रूपी पारस को पाने के हम अधिकारी हो जाएगे।नही तो व्यर्थ ही उस से शिकायते करते रह जाएगें। जबकि सभी जानते है कि उस परमात्मा के कीए को कोई बदल नही सकता।


सोमवार, 29 मार्च 2010

कबीर के श्लोक - १५



कबीर मरता मरता जगु मुआ, मरि भी न जानिआ कोइ॥
ऐसे मरने जे मरै, बहुरि न मरना होइ॥२९॥

कबीर जी कहते है कि यह संसार निरन्तर मृत्यु का ग्रास बनता जा रहा है,लेकिन यह सब देख कर भी हम मौत को भुलाए बैठे रहते हैं। यदि हम इसी तरह मरते है तो हमारे बार बार मरने पर भी हमे होश नही आने वाला।

कबीर जी यहाँ दो तरह से मरने की बात हमे समझाना चाहते हैं। इस श्लोक मे वह हमे ऐसे लोगो की बात कह रहे हैं जो वस्तुत: अपने मरने को सदा भुले रहते हैं और अंतत: अपने आखिरी समय मे भी दुनियावी माया मे उलझे हुए ही इस संसार से विदा हो जाते हैं।इस तरह से मरने को मरना नही कहा जा सकता। क्योकि प्रत्यक्ष रूप मे यह मृत्यु तो दिखती है लेकिन अंतत: कामनाओ मे रमे रहने के कारण हमे बार बार इस जनम मरण के चक्कर मे पड़े ही रहना पड़ता है।


कबीर मरता मरता जगु मुआ, मरि भी न जानिआ कोइ॥
ऐसे मरने जो मरै, बहुरि न मरना होइ॥३०॥

कबीर जी का यह श्लोक दो बार लिखा गया है लेकिन दोनो बार इसके अर्थ भिन्न हैं। यहाँ कबीर जी कहते है कि यह सारा संसार मरते मरते मृत्यु का घर बन चुका है।लेकिन मरने पर भी हम मौत को नही जान पाते।यदि हम यह जान ले कि मत्यु क्या है तो हमे बार बार मरना नही पड़ता।

इस श्लोक मे कबीर जी हमे कहना चाहते हैं कि जो लोग जीते जी अपने आप को उस परमात्मा मे समाहित कर लेते है, उसका साक्षात्कार कर लेते हैं।वे लोग मृत्यु के रहस्य को जान लेते हैं।इस तरह से मरने पर हम बार बार नही मरते।वास्तव मे कबीर जी के यह विचार स्वानुभव पर आधारित हैं।जब तक हम इस बात का अनुभव ना कर ले तब तक हम इस बात को समझने मे असमर्थ ही रहेगे।

सोमवार, 22 मार्च 2010

कबीर के श्लोक - १४



कबीर ऐह तनु जाइगा, सकहु त लेहु बहोरि॥
नांगे पावहु ते गऐ , जिन के लाख करोरि॥२७॥

कबीर जी कहते है कि ये शरीर निश्चय ही नष्ट हो जाएगा।यदि किसी को यकीन नही है तो वह प्रयत्न कर के देख ले। इस शरीर को नष्ट होने से कभी बचाया नही जा सकता।कबीर जी कहते है कि चाहे कोई कितनी भी धन दौलत का मालिक हो, उन्हें अंत मे नंगे पाँव ही यहाँ से जाना पड़ता है।

कबीर जी हमे बार बार यही समझना चाहते हैं कि ये संसार नाशवान है। इस से कोई नही बच सकता।एक दिन सभी को सभी कुछ यही छोड़ कर खाली हाथ यहाँ से जाना ही पड़ता है।कबीर जी व परमात्मा से एकाकार हुए लोग हमे यह बात बार-बार इस लिए बताते रहते हैं क्योकि संसारी माया इतनी प्रबल है कि हम इस बात को भुले ही रहते हैं कि एक दिन हमे इस संसार को छोड़ कर जाना ही है। हमारे इस शरीर ने नष्ट हो ही जाना है। इस दुनिया से अंत मे हमे खाली हाथ ही जाना है। लेकिन हम इस बात को भुल कर दुनियावी प्रलोभनों की प्राप्ती के लिए सदा प्रयत्नशील रहते हैं।

कबीर ऐह तनु जाइगा, कवनै मारगि लाइ॥
कै संगति करि साध की, कै हरि के गुन गाइ॥२८॥

कबीर जी फिर से कह रहे हैं कि यह शरीर तो निश्चय ही नष्ट हो जाएगा। इस लिए क्या तुम जानते हो इसे किस काम मे लगाना चाहिए ? फिर स्वंय ही कहते है कि या तो साधु की संगत कर लेनी चाहिए या फिर उस परमात्मा की भक्ति मे लग जाना चाहिए।
 कबीर जी कहना चाहते हैं कि इस नाशवान शरीर का उपयोग हमे बहुत सोच समझ कर करना चाहिए। क्योकि एक ओर तो हमारे सामने दुनियावी राग-रंग है। जो सुख का आभास तो हमे कराते है लेकिन अंतत: वे दुख ही देते हैं। वही दुसरी ओर उस प्रभु की भक्ति है, उस के प्यारो की साध संगत है। अत: हमे इसी को चुनना चाहिए।

सोमवार, 15 मार्च 2010

कबीर के श्लोक - १३

कबीर प्रीति इक सिउ कीऐ, आन दुबिधा जाइ॥
भावै लांबे केस करु, भावै घररि मुडाइ॥२५॥


कबीर जी कहते है कि जब तक उस एक परमात्मा से हमारा संबध नही बन जाता, तब तक संसारी परेशानीयों से, मान अपमान से,नही बचा जा सकता। किसी मजहब या मान्यता का दिखावा मात्र कर लेने से उस परमात्मा की कृपा नही मिल जाती।

इस श्लोक मे कबीर जी उन लोगो के बारे मे कहना चाहते है कि जो लोग लम्बी जटाए या केस रख कर या मुडंन करा कर यह दिखाने की कोशिश करते है कि वे परमात्मा की शरण मे जा चुके हैं। वे साधु महात्मा है। ऐसे लोगो का विरोध करते हुए कबीर जी कह रहे है कि जब तक उस एक परमात्मा से संबध ना जुड़ जाए तब तक कोई संसारी परेशानियों से,दुखो से, छुटकारा नही पा सकता।जैसे बहुत से लोग ऐसा वेश बना कर जंगल आश्रमो मे जा कर बैठ जाते हैं लेकिन वहाँ भी वे लोग सुखी नही हो पाते।क्योकि बिना मन को बदले बिना उस परमात्मा से जुड़े परेशानीयों चिंताओ से मुक्त नही हुआ जा सकता।इसी लिए कबी जी कहते है की यदि इन सभी परेशानियो से मुक्ति चाहता है तो उस एक परमात्मा के साथ प्रीत कर। इन परेशानियो से बचने का यही एक रास्ता है।

कबीर जगु काजल की कोठरी, अंध परे तिस माहि॥
हउ बलिहारी तिन कउ, पैसि जु नीकसि जाहि॥२६॥


कबीर जी कहते है कि यह संसार एक काजल की कोठरी के समान है जिस मे अंधे लोग फँस जाते है। क्योकि उन्हें इस कोठरी की कालिमा दिखाई नही पड़ती।मै तो उन के बलिहारी जाता हूँ जो इस काजल की कोठरी से बाहर निकल जाते हैं।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि यह संसार विषय विकारों से,प्रलोभनों से भरा पड़ा है। इस मे वे अंधे लोग गिर जाते है जिन के पास प्रभु नाम की ज्योति नही है। लेकिन इन से भी ज्यादा वे लोग धन्य हैं जो इस मोह माया में फँसने के बाद भी उस प्रभु का सहारा ले कर बाहर आ जाते हैं। वास्तव मे संसारी सुखो को भोगने के बाद त्यागना बहुत कठिन होता है। इन्हे इंसान तभी छोड़ता है जब या तो यह उस की पहुँच से बाहर हो जाए या वह इन संसारी सुखो की निस्सारता को पहचान ले। यह पहचान तभी हो पाती है जब वह उस परमात्मा से संबध जोड़ लेता है।

सोमवार, 8 मार्च 2010

कबीर के श्लोक - १२


राम पदारथु पाइ कै, कबीरा गांठि न खोल॥
नही पटणु नही पारखू , नही गाहकु नही मोलु॥२३॥


कबीर जी कहते है कि जिसने उस परमात्मा को पा लिया है, उस परमात्मा की कृपा पा ली है। उसे इस बारे मे दुसरो से नही कहना चाहिए।क्योकि ऐसा कोई बाजार नही है जहाँ कोई इस राम पदार्थ को परख सके और ना ही ऐसा कोई खरीदार है जो इस का सही मोल आंक सके।

इस श्लोक मे कबीर जी कहना चाहते हैं कि जिसे उस परमात्मा की कृपा प्राप्त हो जाती है उसे इस की चर्चा दुसरो के सामने नही करनी चाहिए। क्योकि ऐसे मे वही तुम्हारी बात को समझ सकता है जिसने तुम्हारी तरह उस प्रभु की कृपा पाई हो।यदि तुम किसी ऐसे व्यक्ति के सामने इस की चर्चा करते हो ,जिस को उस प्रभु की कभी झलक तक ना मिली हो। तो ऐसा व्यक्ति तुम्हारी बात समझ ही नही पाएगा। अर्थात कबीर जी कहना चाहते है कि सुपात्र के सामने ही चर्चा करनी चाहिए। कुपात्र के सामने की गई चर्चा व्यर्थ ही जाती है।वास्तव में प्रभु की कृपा भीतर के आनंद और अनुभव की बात है। जिसे कहीं भी प्रमाणित नही किया जा सकता।इसे वही समझ सकता है जिसने तुम्हारी तरह उस प्रभु कृपा को पा लिया हो।

कबीर ता सिउ प्रीति करि, जा के ठाकुरु रामु॥
पंडित राजे भूपती, आवहि कउनै काम॥२४॥


कबीर जी कह रहे है कि हमे ऐसे लोगो के साथ ही प्रीती बढ़ानी चाहिए जो परमात्मा को ही अपना सब कुछ मानते हैं। पंडितो से या बड़े बड़े पदाधिकारीयों से या भुमि के स्वामीयों अर्थात धनी लोगो से संबध बनाने का कोई लाभ नही है। यह किसी  प्रकार से तुम्हारे काम आने वाले नही है।

कबीर जी कहना चाहते है कि जिन्होनें उस परमात्मा को अपना सब कुछ मान लिया है,उन्हे फिर किसी की क्या जरूरत ?पंडित लोगो के पास शब्द अर्थात शाब्दिक ज्ञान तो हैं लेकिन उस परमात्मा का कोई अनुभव नही है। राजे लोगों के पास पद तो हैं, लेकिन ये पद भी दुनियावी हैं और धनी लोगों के पास धन तो है,लेकिन उस धन से प्रभु कृपा को नही पाया जा सकता। अर्थात कबीर जी कहना चाहते है कि दुनिया के सभी कार-विहार सुख पाने के लिए आनंद पाने के लिए ही किए जाते है। यदि कोई उस परमानंद को ही अपना स्वामी बना ले,जो सभी को सुख और आनंद को देने वाला है तो फिर ये पंडित,राजे और भूपति हमारे कि्सी  काम नही आ सकते हैं। इस लिए हमे उसी परमात्मा से प्रीत करनी चाहिए।

सोमवार, 1 मार्च 2010

कबीर के श्लोक - ११


कबीर सूखु न ऐह जुगि,करहि जु बहुतै मीत॥
जो चितु राखहि एक सिउ,ते सुखु पावहि नीत॥२१॥

कबीर जी कहते है कि इस मनुष्य जन्म मे सुख कहीं भी नही है।भले ही हम अपने परिवार को बड़ा कर ले। मित्रों की संख्या को बड़ा ले।यदि किसी को सुख चाहिए तो उसे उस परमात्मा से संबध जोड़न ही पड़ेगा।तभी हम वास्तविक सुख पा सकेगें।

इस श्लोक मे कबीर जी बता रहे हैं कि इस संसार मे दुख ही दुख है। कुछ लोग ऐसा सोचते हैं कि यदि हमारा परिवार, मित्रादि अधिक होगे तो हम सुखी हो सकते हैं।लेकिन कबीर जी कहते है कि इस मे भी सुख प्राप्त नही होता।सभी रिश्ते नाते स्वार्थ के कारण ही बनते हैं, जिन से अंतत: दुख ही मिलता है। लेकिन एक परमात्मा का रिश्ता ही ऐसा है जो स्वार्थ रहित है। अत: उस परमात्मा से जुड़ने पर ही हम निरन्तर सुख को पा सकते हैं।

कबीर जिसु मरने ते जगु डरै,मेरे मनि आनंदु॥
मरने ही ते पाईऐ, पूरनु परमानंदु॥२२॥

कबीर जी इस श्लोक मे अपने विषय मे कह रहे हैं कि ये संसार एक ही भय से सबसे ज्यादा भयभीत होता है। वह है मौत का भय। लेकिन मुझे यह मौत आनंददायॊ मालुम होती है।क्योकि मरने के बाद ही उस पूर्ण परमानंद को पाया जा सकता है। जिस को पाने के बाद फिर कोई इच्छा शेष नही रह जाती।

कबीर जी कहना चाहते है कि हम दो तरह से मरते हैं। एक तो भौतिक शरीर के नष्ट होने पर और दुसरा अपने अंहकार के मरने पर। इन दोनों तरह की मौत से ही संसारी आदमी सदा भयभीत रहता है। जिस कारण वह उस आनंद को नही पा सकता जिसे पाने के बाद और किसी प्रकार का आनंद पाने की इच्छा नही रहती।लेकिन कबीर जी कहते है कि यदि उस परमानंद को पाना है तो जीते जी मरना तो पड़ेगा ।अर्थात अंहकार के मरने के बाद ही उसे परमानंद को पाया जा सकता है। अंहकार के मरने के बाद मृत्युभय भी नष्ट हो जाता है।वास्तव मे हमारे भय का मूल कारण यह अंहकार ही होता है। कबीर जी यही बात हमे बार बार समझाना चाह रहे हैं।

सोमवार, 22 फ़रवरी 2010

कबीर के श्लोक - १०


कबीर माइआ डोलनी,पवनु वहै हिवधार॥
जिनि बिलोइआ तिनि खाइआ,अवर बिलोवनहार॥१९॥

इस श्लोक मे कबीर जी पिछले श्लोक मे कहे विचार को और अधिक स्पष्ट कर रहे हैं।वह कहते है कि माया रूपी यह जो दूध है, इसे हमारी श्वास रूपी शीतल पवन बिलोवने की तरह बिलोती जा रही है।जो लोग इसे बिलो रहे हैं, वही खा भी रहे हैं। लेकिन यहाँ पर सभी को मक्खन ही खाने को नही मिल रहा।सभी अपने यत्नानुसार ही पा रहे हैं।

कबीर जी कहना चाहते है कि यह जीवन तो सभी को मिला है और इस संसार में प्रलोभन भी बहुत हैं, लेकिन कौन इस जीवन की श्वासों का व्यय किस काम मे, किस उद्देश्य से कर रहा है।यही उस के प्रतिफल पाने का आधार बन जाता है।


कबीर माईआ चोरटी, मुसि मुसि लावै हाटि॥
ऐक कबीरा ना मुसै जिनि कीनी बारह बाट॥२०॥

कबीर जी कहते है कि यह माया बहुत चालाक है। यह माया बार बार प्रलोभनों मे जीव को फँसाने कि कोशिश मे लगी रहती है। लेकिन कबीर जी कहते हैं कि ऐसे लोग इस माया की ठगी का शिकार नही होते जो इस माया को तोड़ तोड़ कर इस की असलियत को पहचान लेते हैं।

कबीर जी कहना चाहते है कि संसार कि इस माया का काम ही ठगना है।यह माया ठगने के लिए नये नये रूप धार कर हमारे सामने आती रहती है।लेकिन यदि जीव उस परमात्मा की शरण मे चला जाए।जैसे कबीर जी गए हैं तो यह माया टुकड़े टुकड़े हो जाती है।अर्थात  यह हमे अपने जाल मे नही फँसा पाती।

सोमवार, 15 फ़रवरी 2010

कबीर के श्लोक - ९


कबीर साकतु ऐसा है,जैसी लसन की खानि॥
कोने बैठे खाईऐ,परगट होइ निदानि॥१७॥

कबीर जी कहते हैं कि जो ईश्वर को भूला हुआ जीव है वह लसन की कोठरी के समान है। क्योकि जो भी इस लसन का सेवन कही भी बैठ कर करता है तो भी इस की गंध के कारण उसे सेवन करने वाला, अपने आप को छुपा नही पाता। उस गंध के कारण सभी को पता चल जाता है कि इसने लसन का सेवन किया है।

कबीर जी इस श्लोक मे कहना चाहते है कि जो लोग परमात्मा को भूले रहते हैं वे हमेशा विषय विकारों मे फँसें रहते हैं। ऐसे लोग अपने अंहकार, लालच, स्वार्थ व लोभादि विकारों के कारण अपने दुर्गुणों को छुपा नही पाते। ऐसे लोगों को कोई भी आसानी से पहचान ही जाता है। वास्तव मे परमात्मा से दूर हुआ मनुष्य इन विकारों से ग्रस्त पाया जाता है।

कबीर माइआ डोलनी,पवन झकोलनहारु॥
संतहु माखनु खाइआ, छाछि पीऐ संसारु॥१८॥

कबीर जी कहते है कि यह जो संसार की माया है वह दूध की डोलनी के समान है,जिस में मदाहनी रूपी हमारी श्वासें उसे मथ रही है।कबीर जी कहते हैं कि जिन्हें इसे मथने का तरीका पता है वे संत इस मे से माखन को निकाल कर खा लेते हैं।लेकिन जिसे इस को मथना नही आता ,उन्हें मात्र छाछ ही पीनी पड़ती है।


कबीर जी इस श्लोक मे कहना चाहते है कि वैसे तो यह संसार माया रूप ही है लेकिन फिर भी यदि हम अपने जीवन का सदुपयोग करे तो हम अपने जीवन को सफल बना सकते है।अर्थात हम अपने जीवन को संसारी कामो का निर्वाह करते हुए प्रभु भक्ति में लगाए ,तो आनंद रूपी उस परमपिता को पा सकते हैं।अन्यथा व्यर्थ के कामों में ही उलझ कर अपना जीवन गँवा बैठेगें।

सोमवार, 8 फ़रवरी 2010

कबीर के श्लोक - ८


कबीर संतन की झुंगीआ भली,भठि कुसती गाउ॥
आगि लगऊ तिह धउलहर,जिह नाही हरि को नाउ॥१५॥

इस श्लोक मे कबीर जी अपने निजि विचार व्यक्त कर रहे हैं कि यदि कोई संत है, परमात्मा का प्यारा है।ऐसे संत की छोटी सी झोपड़ी भी मुझे भली दिखती है,अच्छी दिखती है। जबकि बुरे इन्सान या असंत प्रवृति के व्यक्ति के पास यदि पूरा गाँव भी हो तो वह भी मुझे जलती हुई भट्ठी के समान लगता है।क्योकि ऐसी जगह मे हमेशा तृष्णा की आग मे जीव जलता रहता है। क्योकि वहाँ पर उस परमात्मा का नाम नही है।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि किसी के अमीर या गरीब होने से कोई फर्क नही पड़ता।वह चाहे झोपड़ी मे रहता हो या पूरे गाँव का मालिक हो।यदि वह ईश्वर से दूर है तो हमेशा विषय विकारों की आग मे जलता रहेगा।लेकिन  यदि उसकी प्रवृति परमात्मा की ओर है, वह परमात्मा के प्रति समर्पित भाव रखता है तो आनंदित रहेगा।

कबीर संत मुऐ किआ रोईऐ,जे अपुने ग्रिहि जाहि॥
रोवहु साकत बापुरे,जु हाणै हाट बिकाइ॥१६॥

कबीर जी कहते है कि किसी संत के मरने पर अफसोस या दुखी हो कर रोने  की कोई जरूरत नही है क्योकि वह तो अपने घर जाता है। जहाँ से उसे अब कोई नही निकालने वाला। यदि रोना है तो उसके मरने पर रोना चाहिए जो इस संसार मे आ कर उस परमात्मा को नही पा सका।परमात्मा को ना पाने के कारण उसे फिर फिर जनम लेकर भटकना पड़ेगा।

इस श्लोक मे कबीर जी कहना चाहते है कि यदि  हम उस परमपद को अपने जीते जी पा लेते है तो हमारी मुक्ति संभव हो जाती है।लेकिन हम यदि संसारी बातों मे व्यस्त रहते हैं, विषय विकारों मे फँसे रहते हैं तो हमे परम शांती की प्राप्ती कभी नही होती।ऐसे लोगो के मरने पर रोना ही पड़ता है क्योकि वे अपना जीवन व्यर्थ ही गँवा कर जाते हैं।ऐसे लोग को फिर से कई जूनो मे भटकना पड़ेगा।



शुक्रवार, 29 जनवरी 2010

कबीर के श्लोक - ७

कबीर दीनु गवाइआ दुनी सिउ,दुनी न चाली साथि॥
पाइ कुहाड़ा मारिआ, गाफिल अपनै हाथि॥१३॥

कबीर जी इस श्लोक मे कहते है कि हम सदा दुनिया दारी में ही लगे रहते है,जिस कारण हम जिस काम के लिए दुनिया मे आए हैं,वही भूल जाते हैं और दुनिया दारी में ही रम जाते हैं।जबकि हम अच्छी तरह जानते है कि इस दुनिया मे किसी ने भी हमारा साथ नही देना जब हम यहाँ से चलने को होगें।अर्थात अंत समय मे हमारा साथ किसी ने नही देना। लेकिन हम फिर भी दुनिया दारी मे लगे हुए ,अपने पाँव पर खुद ही मूर्खो की तरह कुलाहड़ा मार रहे हैं।

इस श्लोक मे कबीर जी कहना चाहते है कि यह जो जीवन हमे मिला है उस का हमे सदुपयोग कर लेना चाहिए। इसे व्यर्थ के कामों मे गँवा कर अपना नुकसान खुद ही नही कर लेना चाहिए। हमे अपने दीन अर्थात उस महा सुख दाता, परमानंद को पाने की कोशिश करनी चाहिए, ना कि दुनियावी राग रंग के क्षणिक सुखों की खातिर अपने समय को खोना चाहिए।

कबीर जह जह हऊ फिरिउ,कउतक ठाउ ठाइ॥
इक राम सनेही बाहरा,ऊजरु मेरै भांइ॥१४॥

कबीर जी कहते हैं कि मैं जहाँ जहाँ भी गया हूँ,मैने वहाँ लोगो को राग रंग में अर्थात व्यर्थ की बातों मे अपना समय गवाते ही देखा है।वैसे वे लोग देखने मे तो ऐसे व्यस्त लगते हैं कि जैसे किसी महत्वपूर्ण कामों मे व्यस्त है,लेकिन परमात्मा के प्रति उन्हे जरा भी प्रेम नही है।कबीर जी कहते हैं कि ऐसे लोगो द्वारा किए गए सभी यत्न अंतत: व्यर्थ ही जाएगें।ऐसे लोगो का उजड़ना निश्चित है।

इस श्लोक मे कबीर जी कहना चाहते हैं कि लोग व्यर्थ के कामों मे लगे हुए है और उस परमात्मा से विमुख हो रखे है।ऐसे लोगो ने उजड़ ही जाना है।क्योकि एक मात्र परमात्मा ही है जहाँ जीव स्थाई रूप से ठहर सकता है।बाकि सभी काम,हमारे यत्न हमे किसी भी स्थान पर सदा के लिए बसने में सहायक नही होने वाले।

शुक्रवार, 22 जनवरी 2010

कबीर के श्लोक - ६

कबीर चंदन का बिरवा भला, बेड़िउ ढाक पलास॥
उइ भी चंदन होइ रहे,बसे जु चंदन पासि॥११॥

कबीर जी इस श्लोक मे कहते है कि चंदन का एक छोटा-सा पौधा भी अपने गुणो के कारण उपयोगी होता है भले ही वह ढाक और पलास जैसे पेड़ -पौधों से घिरा हुआ हो।क्योकि चंदन के पास रहने के कारण वे पेड़ -पौधे भी चंदन के गुणो को ग्रहण करने लगते हैं जिस कारण उन आस -पास के पौधो की उपयोगिता भी बड़ जाती है।

इस श्लोक मे कबीर जी कहना चाहते है कि गुणी व्यक्ति अर्थात अंहकार रहित व्यक्ति के संपर्क मे जो लोग भी आते हैं वे अपने अपने स्वाभावो अनुसार उस गुणी व्यक्ति के गुणों को ग्रहण करने लगते हैं। जिस कारण वे भी एक दिन उसी के समान हो जाते हैं।अर्थात दूसरो के गुणो को ग्रहण करने वाले (दुसरो के गुणो को वही ग्रहण करता है जिस के भीतर नम्रता होती है) अच्छी संगत मे रहने के कारण हमेशा अच्छे गुणो को आत्मसात कर लेते हैं।

कबीर बांसु बडाई बूडिआ,इउ मत डूबहु कोइ॥
चंदन कै निकटे बसै,बांसु सुगंधु न होइ॥१२॥

कबीर जी इस श्लोक मे कहते है कि दुसरी ओर बास का पौधा भी है जो अपनी लम्बाई के कारण अंहकार मे डूबा हुआ है।भले ही वह भी चंदन के पास ही रहता है लेकिन फिर भी अपने ग्राही गुणो के अभाव के कारण,चंदन के गूणो को आत्मसात नही करता।कबीर जी कहते है कि हमे इस बास की तरह नही होना चाहिए।

कबीर जी इस श्लोक मे कहना चाहते है कि यदि हमारे अंदर नम्रता है, दुसरो के आगे झुक कर,अंहकार रहित लोगो के संपर्क मे रह कर,उन के गुणो को आत्मसात करने की प्रवृति है तो हम लाभ उठा सकते हैं लेकिन यदि हमारा स्वाभाव अंहकार से भरा है तो हम अपने अंह्कार के कारण किसी के आगे नही झुकेगे और ना ही किसी दुसरे के अच्छे गुणो को ग्रहण ही करेगे।क्योकि अंहकारी व्यक्ति स्वयं को ही सब कुछ मानता है,वह ऐसे किसी गुण को भी ग्रहण नही करता जो उस के अंहकार पर चोट करता हो।इस लिए कबीर जी हमे कहना चाहते है कि अंहकारी लोग भले ही किसी अंहकार रहित व्यक्ति के संपर्क मे रहते हो,लेकिन वे उन के गुणो को कभी गृहण नही करते।


शुक्रवार, 15 जनवरी 2010

कबीर के श्लोक - ५


कबीर सोई मारीऐ,जिह मूऐ सुखु होइ॥
भले भले सभु को कहै,बुरे न मानै कोइ॥९॥

कबीर जी इस श्लोक मे कहते है कि हमे उसे मारना चाहिए जिस के मरने से हमे सुख की प्राप्ती होती है।जिस के मरने पर सभी लोग भला मानते है और उस के हमारे द्वारा मारे जाने पर हमे कोई बुरा भी नही कहता।

यहाँ कबीर जी हमे पिछले श्लोक के संदर्भ मे ही कह रहे हैं कि हमे अपने अंहकार को ही मारना चाहिए।क्योकि इस के मरने से ही हमे सुख की प्राप्ती होती है।जब हम इसे मार देते हैं तो हमारा व्यवाहर भी सभी के प्रति बदल जाता है। तब हम किसी का बुरा नही सोचते।किसी के साथ स्वार्थ के कारण व्यवाहर नही करते।हमेशा दूसरो मे और अपने को एक समान देखने लगते हैं। हमे किसी के कड़वे वचन भी दुख नही पहुँचा सकते। हमारे इस व्यवाहर को देख कर सभी हमे अच्छा मानने लगते है और कोई भी हमे बुरा नही कहता।इस लिए इस अंहकार को ही मरना चाहिए।


कबीर राती होवहि कारीआ,कारे ऊभे जंत॥
लै फाहे उठि धावते,सि जानि मारे भगवंत॥१०॥



कबीर जी इस श्लोक में कह रहे हैं कि जिस प्रकार राते काली होती हैं, और इस काली रात मे जो जीव विचरण करते हैं या पैदा होते हैं, वह भी काले ही होते हैं अर्थात उन का स्वाभाव भी बुरा ही होता है। ऐसे जीव हमेशा दूसरों के पीछे पकड़ने के लिए या अपने आधीन करने के लिए सदा भागते रहते हैं। लेकिन वे नही जानते कि परमात्मा ने उन्हें पहले ही मारा हुआ है अर्थात अपनी दुर्बुद्धि के कारण वह परमात्मा से,सुख से दूर हो चुके हैं।

पहले श्लोको मे कबीर जी ने अंहकार से मुक्त होने की दशा का वर्णन किया है यहाँ कबीर जी हमे अंहकार ग्रस्त लोगो के बारे मे कहना चाहते है कि जो लोग अंहकार से ग्रस्त होते है, उन का स्वाभाव वैसा ही होता है जैसा कि काली रातो मे पनपनें वाले जीवों का होता है। ऐसे अंहकार ग्रस्त लोग सदा दूसरो को परेशान करने की कोशिश मे ही लगे रहते हैं। उन्हे दूसरो को सताने मे, मारने में ही सुख मिलता नजर आता है। जबकि वे नही जानते कि परमात्मा के दूर होने के कारण वे पहले ही मरे हुए के समान ही हैं अर्थात अंहकार के कारण विषय विकारों के आधीन ही रहते हैं। जिस कारण हमेशा दुखी रहते हैं।


गुरुवार, 7 जनवरी 2010

कबीर के श्लोक -४

कबीर सब ते हम बुरे,हम तजि भले सभु कोए॥
जिनि ऐसा करि बूझिआ,मीतु हमारा सोए॥७॥

इस श्लोक में कबीर जी कहते है कि सब से बुरे हम ही होते है,हमे छोड़ कर बाकि सभी तो भले ही हैं।जब यह बात समझ मे आती है,उस समय वह सभी लोग अपने लगने लगते है जो इस प्रकार जान जाते हैं।

यहाँ कबीर जी अंहकार छोड़ने के बाद के अपने अनुभव को बता रहे हैं।कि जब हम वास्तविकता को जान लेते हैं तभी हमे पता चलता है कि कि बुराई तो हमारे मन में थी,जो हमारे अंहकार के कारण हमारे भीतर पैदा हुई थी।क्योकि बुराई हमारे भीतर थी इसी लिए हमे अपने को छोड़ बाकी सभी मे बुराईयां नजर आ रही थी।जैसी सोच, जैसी नजर, हमारे भीतर होती है हम बाहर भी वैसा ही देखने लगते हैं।लेकिन जब यह अंहकार छूट जाता है तो हर जगह वही नजर आने लगता है जो हमारे भीतर और हर कण कण मे मौजूद है।वह तो समान भाव से सभी मे मौजूद है।जब ऐसी समझ आ जाती है तब इस अवस्था मे पहुँचे हुए सभी लोग हमे मित्र के समान लगने लगते हैं।

कबीर आई मुझहि पहि,अनिक करे करि भेस॥
हम राखे गुर आपने,उनि कीने आदेसु॥८॥

कबीर जी इस श्लोक में अंहकार के स्वरूप के बारे मे बता रहे हैं कि यह अंहकार अनेक रूपो मे हमारे भीतर आ जाता है। लेकिन हम इस से तभी बच पाते है जब परमात्मा हमे इस से बचाता है। इस अंहकार से तभी छुटकारा मिलता है जब वह परमात्मा आदेश देता है,उस अंहकार को आज्ञा देता है। तभी हम इस से मुक्त हो सकते हैं।

इस श्लोक मे कबीर जी हमे समझाना चाहते है कि अंहकार को समझ्ना इतना आसान नही है क्योकि यह अपना रूप बदल बदल कर हमे धोखा देता रहता है। जैसे हमारे पूजा पाठी हो जाने से, दानी हो जाने से, लोक भलाई के काम करने से, हमे ऐसा लगने लगता है यह अंहकार मिट गया। लेकिन वास्तव मे ऐसा होता नही है क्योकि हम इन शुभकामों को कर के भी अंहकार से भरे रहते हैं हमे ऐसा एहसास होता रहता है कि देखो हम कितना भलाई का नेक काम कर रहे हैं।जब हमारे मन मे इन कामों को कर के लोगो की प्रशंसा पाना और परमार्थ के काम कर के पुण्य कमाने की भावना हमारे भीतर होती है तो ऐसी भावना ही अंहकार बन जाती है। इसी लिए कबीर जी कह रहे है कि उस परमात्मा की कृपा के बिना इस से मुक्ती संभव नही होती।जब तक सभी ओर से मन हटा कर उस परमात्मा से एकाकार स्थापित नही हो जाता तब तक इस अंहकार से नही बचा जा सकता। "यह तभी संभव होता है जब वह परमात्मा आदेश करता है।" कबीर जी यह बात यहाँ इस लिए कह रहे हैं कि कहीं हम इस अंहकार को छोड़ने के बाद यह ना समझने लगे कि देखो "हमने" अंहकार को छोड़ दिया। इसी "हमने" के भाव के कारण कहीं हमारे भीतर एक नया अंहकार पैदा ना हो जाए।इसी लिए उपरोक्त बात कबीर जी हमे कह रहे हैं।