सोमवार, 28 जून 2010

कबीर के श्लोक - २७

कबीर हरना दूबला , ऐह हरिआरा तालु॥
लाख अहेरी ऐकु जीऊ, केता बंचऊ कालु॥५३॥


कबीर जी कहते है कि यह संसार एक ऐसा सरोवर है जिस मे नाना प्रकार के मायावी भोगो की हरीयाली भरी पड़ी है और इस मे मन रूपी, जीवन रूपी हिरन विचरण कर रहा है। जो कि बहुत कमजोर है और इस संसार सरोवर मे लाखो शिकारी चारो ओर घात लगाए बैठे है ऐसे मे यह अकेला कमजोर हिरन कितने समय तक बच सकेगा।

कबीर जी हमे कहना चाहते है कि  वास्तव मे जीव इस संसार मे चारो और से प्रलोभनों विषय विकारो से बाहर और भीतर दोनो जगह से घिरा हुआ है।लाखो तरह के प्रलोभन हमारे चारो ओर मौजूद है जो निरन्तर हमारे मन को आकर्षित करते रहते हैं और हम इतने कमजोर है कि अपने मन को अपने कहे अनुसार नही चला पाते। बल्कि स्वयं उस मन के पीछे चलते रहते हैं। यहाँ किसी से मदद की उम्मीद भी नही कि जा सकती। क्योकि यहाँ सभी अकेले अकेले ही हैं। ऐसे में हम कितने समय तक इन संसारी प्रलोभना का शिकार होने से बच पाएगें।अर्थात कबीर जी कहना चाहते है कि यहाँ बचना बहुत मुश्किल है। इसी लिए पिछले श्लोको मे हमे कबीर जी ने परमात्मा को अपना मल्लाह बनाने की सलाह दी है। यहाँ कबीर जी हमे संसारी विकटता और प्रलोभनों मे हमारे आसानी से फँसनें का दृश्य उपस्थित कर उस से अवगत कराना चाहते हैं।

कबीर गंगा तीर जु घरु करहि पीवहि,निरमल नीरु॥
बिनु हरि भगति न मुकति होइ, ऐउ कहि रमे कबीर॥५४॥


कबीर जी कहते है कि यदि कोई अपना घर पवित्र गंगा के किनारे पर बना ले और उसी गंगा का निरमल पानी पीए। लेकिन उस परमात्मा का ध्यान ना कर, भक्ति ना करे, तो सिर्फ गंगा के किनारे घर बना कर और पवित्र गंगा का पानी पी कर वह मुक्ति अर्थात उस परमात्मा को नही पा सकता। इसी लिए कबीर जी कहते हैं कि यह बात समझने के बाद मैं तो अब उस परमात्मा मे ही रमा रहता हूँ।

कबीर जी हमे समझाना चाहते है कि सिर्फ धार्मिकता का दिखावा करने मात्र से किसी प्रकार का लाभ नही मिलता। हमारे बाहरी आचरण कुछ भी बदलाव हमारे भीतर नही कर सकते। यदि हमे उस परमात्मा मे डूबना है तो हमे अपने भीतर उसके प्रति प्रेम जगाना पड़ेगा। यह बात कबीर जी इस लिए कह रहे हैं कि बहुत से लोग प्रत्यक्ष रूप से देखने पर पूजा-पाठ करते, हरि भजन करते, मंदिर, मस्जिद, गुरूद्वारा जाते, नजर तो आते हैं। लेकिन वास्तव में यह सब उनका बाहरी आचरण मात्र ही होता है। यह सब ठीक वैसा ही है जैसे कोई गंगा के किनारे घर बना कर रहने लगे और गंगा का पवित्र जल पीता रहे। लेकिन उस परमात्मा का ध्यान ना करे। इसी लिए कबीर जी हमे उस राम में ,उस परमात्मा या खुदा मे, रमने के लिए कह रहे हैं।

सोमवार, 21 जून 2010

कबीर के श्लोक - २६



कबीर निगुसांऐं बहि गए, थांघी नाही कोइ॥
दीन गरीबी आपुनी, करते होइ सु होइ॥५१॥

कबीर जी कहते है कि यदि बिना परमात्मा का सहारा लिए अर्थात मल्लाह को साथ लिए बिना, हम इस संसार  रूपी समुंद्र में चलेगें तो हमारा बह जाना अर्थात विषय विकारो मे फँस जाना निश्चित है। इस लिए अपनी समझदारी छोड़ कर उस परमात्मा रूपी मल्लाह के हाथो मे अपने आप को छोड़ देना चाहिए।फिर वह जहाँ चाहे हमे ले जाए अर्थात उस परमात्मा की रजा मे रहना ही सही रास्ता है।

कबीर जी कहना चाहते है कि वस्तुत: हमारा जीवन संसारी बातो से प्रभावित रहता है।हम सदा ऐसी चीजो को पाने की लालसा रखते हैं जो ऊपरी तौर पर सुख देने वाली लगती हैं लेकिन उन से हमे अंतत: दुख ही मिलता है। लेकिन यह सब तभी होता है जब हम अपने को उस परमात्मा से, उस गुसाई से अलग मान कर चल रहे होते हैं। कबीर जी आगे समझाते हुए कहते है यदि हमे अपनी इस नासमझी का पता चल जाए तो हम उस परमात्मा के प्रति नम्रता पूर्वक समर्पित हो जाएगें। फिर वह परमात्मा हमे जिस ओर भी ले जाएगा, जैसे भी रखेगा, हम बेफिक्र रहेगें।


कबीर बैसनउ की कूकरि भली, साकत की बुरी माइ॥
उह नित सुनै हरि नाम जसु , ऊह पाप बिसाहन जाइ॥५२॥

कबीर जी कहते है कि वे जो परमात्मा का नाम लेने वाले परमात्मा के भगत हैं उन के घर पर रहने वाली कुतिया भी बहुत अच्छी है और जो परमात्मा को भूले हुए है, साकत लोग हैं । उन के घर मे रहने वाली माँ  भी भली नही हो सकती। क्योकि भगत के घर वास करने वाला नित हरि का नाम सुनता है और साकत के घर पर रहने वाली माँ पाप मे ले जाने वाले विचारों को सुनती है।

कबीर जी इस श्लोक में हमे सगंत के प्रभाव के बारे मे बताना चाहते हैं। क्योकि  हमारे जीवन पर संगत का प्रभाव बहुत पड़ता है। हम जैसी संगत मे रहते हैं वैसे ही गुण-अवगुण का विकास हमारे अंदर होने लगता है। अत: कबीर जी हमे सही और गलत संगती के पड़ने वाले प्रभाव के विषय मे यहाँ हमे सचेत कर रहे हैं। कबीर जी कहते हैं कि कुतिया यानि कि दीन हीन प्राणी जो अच्छी संगत मे बैठता है वह अच्छा है और माँ जो समाज की नजर में आदरणीय तो है लेकिन बुरी संगत मे रहती है। वह बुरी है। अर्थात कबीर जी कहना चाहते हैं कि किसी व्यक्ति की समाज मे क्या इज्जत है, इस आधार पर नही बल्कि वह कैसी संगती मे रहता है, इस के आधार पर ही हमे किसी के साथ संगती करनी चाहिए।


सोमवार, 14 जून 2010

कबीर के श्लोक - २५



कबीर थोरै जलि माछुली, झीवरि मेलिउ जालु॥
ऐह टोंघनै न छूटसहि, फिरि करि समुंदु समालि॥४९॥

कबीर जी कहते है कि यदि मच्छ्ली उस जगह पर है जहाँ पानी कम है तो वह ऐसी जगह पर आसानी से मछुआरे के जाल मे फँस जाती है। इसी लिए मच्छली को माध्यम बना कर कबीर जी हम से कहना चाहते हैं कि मच्छ्ली तू छोटे खड्डो मे रहना छोड़ कर समुंद्र की ओर ध्यान दे।

कबीर जी हमे यहाँ सांकेतिक भाषा मे कहना चाहते है कि जब मच्छ्ली अर्थात जीवात्मा थोड़े जल के आसरे होती है तो वह जाल मे अर्थात संसारी मोह मायादि मे आसानी से फँस जाती है। लेकिन यदि यह मच्छली अर्थात जीवात्मा समुद मे हो तो वहाँ यह आसानी से मछुआरे के जाल मे नही फँसती अर्थात मोह मायादि का शिकार नही हो पाती।अर्थात माया मे रमने की बजाय उस परमात्मा मे रमण करने की बात समझाना चाहते हैं।


कबीर समुंदु न छोडिऐ, जउ अति खारो होइ॥
पोखरि पोखरि ढूढते, भले न कहि है कोइ॥५०॥

कबीर जी आगे कहते हैं कि हमे वह समुंद्र को नही छोड़ना चाहिए। भले ही उसमे कितना ही खारापन क्यों ना हो। क्योकि यदि हम समुंद्र छोड़ कर पोखरों को खोजने मे लगेगें तो हम नासमझ ही कहलाएगें।

कबीर जी यहाँ कहना चाहते है कि हमे उस समुंद्र रूपी परमात्मा को कभी नही छोड़ना चाहिए। भले ही समुंद्र खारा हो अर्थात उस परमात्मा को पाने में हमे कष्ट ही क्यों ना उठाने पढ़े। अर्थात कबीर जी कहना चाहते है कि जब हम परमात्मा की तरफ रूख करते है तो हमारे जीवन मे कई तरह के व्यवधान, रूकावटे आने लगती है। हमारा अंहम मरने लगता है ।जिस कारण मन को बहुत भय होने लगता है। इसी लिए कबीर जी समुंद्र रूपी परमात्मा को खारा कह रहे है। लेकिन साथ ही हमे कह रहे हैं इन बातों से घबरा कर हमे संसार के क्षणिक सुखों के प्रलोभनों के लिए अर्थात पोखरों की चाह मे इस समुंद्र रूपी परमात्मा को छोड़ना नही चाहिए।



सोमवार, 7 जून 2010

कबीर के श्लोक - २४

कबीर परदेसी कै घाघरै, चहु दिसि लागी आगि॥
खिंथा जलि कोइला भई, तागे आंच न लाग॥४७॥

कबीर जी कहते है कि यह जो परदेसी है इस के घाघरे के चारो ओर आग लगी हुई है। इस की जो गोदड़ी है वह तो जल कर कोयला हुई जाती है।लेकिन इस के बीच जो धागा है उसे आँच तक नही लगती।

कबीर जी कहना चाहते  हैं कि यह जीव जो इस जगत मे मुसाफिर है इस की ज्ञान इन्द्रीयों के चारो ओर विषय विकारों की आग लगी हुई है और यह जो हमारा गोदड़ी रूपी शरीर है यह इन विषय विकारों की आग मे जल कर कोयला हुआ जा रहा है अर्थात जीव दुनिया मे मुसाफिर की तरह है और विषय विकारो के आधीन हो कर हम तृष्णा की आग मे जलते रहते है जिस कारण यह शरीर दुख पाता है।लेकिन कबीर जी आगे कहते है कि यह सब तो हो रहा है लेकिन इस शरीर के भीतर जो धागा रूपी हमारी आत्मा है उस पर विषय विकारों का कोई प्रभाव नही पड़ता। अर्थात कबीर जी सांकेंतिक भाषा मे हमे बता रहे है कि यदि विषय विकारों की आग से बचना है तो हमे क्या करना चाहिए।

कबीर खिंथा जलि कोइला भई, खापरु फूट मफूट॥
जोगी बपुड़ा खेलिउ, आसनि रही बिभूति॥४८॥

कबीर जी अपनी बात को आगे ले जाते हुए इस श्लोक मे कह रहे हैं कि यह जो शरीर रूपी गोदड़ी है यह तो विष्य विकारो की आग मे जल कर कोयला हो गई है और यह खप्पर जिस मे जोगी लोग भिक्षादी माँगते हैं यह भी टूट फूट गया है। यदि जोगी इसी तरह करता रहे तो अंत मे कुछ भी हाथ नही आता।

कबीर जी कहना चाहते है कि विषय विकारो की आग मे पड़ कर यह जो जोगी रूपी जीव है, इसने अपने शरीर को तो विषय विकारों से ग्रस्त कर ही लिआ है लेकिन फिर भी यह मन रूपी खप्पर यानी भिक्षा पात्र में और अधिक वासनाओं को ही भरता  जा रहा है जिस कारण इस का यह मन रूपी पात्र भी टूट फूट गया है। लेकिन फिर भी जीव संभलने की बजाय इन्हीं वासनाओं मे रमा रहता है।ऐसा जीव अंत में अपना जीवन व्यर्थ ही गँवा कर यहाँ से जाता है।