बुधवार, 28 जनवरी 2009

फरीद के श्लोक - २०

फरीदा जिन्नी कंमी नाहि गुण,ते कंमड़े विसारि॥
मतु शरमिंदा थीवही,साईं दै दरबारि॥५९॥

फरीदा साहिब दी करि चाकरी,दिल दी लाहि रांदि॥
दरवेशां नू लोणीऐ, रुखां दी जीरांदि॥६०॥

फरीदा काले मैडे कपणे,काला मैडा वेसु॥
गुनहि भरीआ मैं फिरा,लोक कहै दरवेसु॥६१॥

तती तिहि पलवै,जे जलि टुबी देइ॥
फरीदा जो डोहागणि रब दी,झूरैदी झुरइ॥६२॥

फरीद जी कहते हैं कि जिन कामों को करनें से कोई लाभ नही होता ऐसे कामों को ना करना ही अच्छा है।यदि हमऐसे काम ही करते रहेगें तो जब उस परमात्मा के सम्मुख जाएगें तो हमें शर्मिंदगी उठानी पड़ेगी।अर्थात फरीद जी कह रहे हैं कि जो काम विषय- विकारॊ के वशीभूत हो कर किए जाते हैं वह काम हमेशा व्यर्थ ही होते हैं।उस से कोई लाभ अंतत: नही मिलता।

आगे फरीद जी कहते हैं कि हमें तो उस परमात्मा की चाकरी करनी चाहिए। हमारे दिल में इस बात को लेकर कभी भरम पैदा नही होना चाहिए कि हम अपनी मन मर्जी कर रहे हैं।लेकिन उस परमात्मा की चाकरी हम तभी करनें में सफल हो सकते हैं। जब तक हमे कोई ऐसा रास्ता दिखानें वाला दर्वेश ना मिल जाए जो निस्वार्थी व प्रभु का सच्चाअर्थात वही हमें प्रभु की चाकरी करनें का ढंग बता सकता है जो उस प्रभु की मर्जी को जानता है।

अगले श्लोक में फरीद जी कहते हैं। कि अपनें बारे में मैं तो सब कुछ जानता हूँ कि मै क्या हूँ?मेरे जो कपड़े है यह दिखते तो फकीरी वाले हैं और यह जो मैनें भेष धार रखा है वह भी फकीरी वाला है। लेकिन मैं ही जानता हूँ कि यह सब धोखा है।यह बात अलग है कि लोग मेरे इस वेश को देख कर मुझे बहुत बड़ा फकीर मान लेते हैं।जब कि मैं तो गुनाहों से भरा हुआ हूँ।अर्थात फरीद जी कहना चाहते हैं कि जब तू उस फकीर की तलास करता है जो प्रभु की मर्जी को जानता है। तब ऐसे लोग भी बहुत से मिलते हैं जो परमात्मा के संबध के बारे में जानते तो कुछ भी नही है। लेकिन दुनिया को ऐसा जाहिर करते है कि वे सब कुछ जानते हैं। ऐसे लोगो से सावधान करनें के लिए ही वह हमें इन पाखंडीयों के बारे में बता रहे हैं

गुरुवार, 22 जनवरी 2009

फरीद के श्लोक - १९

फरीदा सिरु पलिआ,दाड़ी पली,मुछां भी पलीआ॥
रे मन गहिले बावले,माणहि किआ रलिआ॥५५॥

फरीदा कोठे धुकणु केतड़ा,पिर नीदड़ी निवारि॥
जो दिह लधे गाणवे,गए विलाड़ि विलाड़ि॥५६॥

फरीदा कोठे मडंप माणीआ,ऐत लाऐ चितु॥
मिटी पई अतोलवी कोई होसी मितु॥५७॥

फरीदा मंडप मालु लाए ,मरग सताणी चिति धरि॥
साई जाई संमालि,तिथे ही तउ वंजणा॥५८॥

फरिद जी कहते है कि यह सिर भी सफेद हो गया है, दाड़ी और मूछें के बाल भी सफेद हो गए हैं।लेकिन हे मेरे मन तू अभी भी दुनियावी मौज मस्ती के प्रति आसक्त है।अर्थात अब बुढापा आ गया है लेकिन यह जो मन है यह अब भी भोग विलासों मे लगा हुआ है।
आगे फरीद जी कह्ते है कि देख इस कोठे के ऊपर तू कितना दोड़ सकता है?अर्थात इन भोग विलासों से तुझे क्या मिलेगा ? सब तो अंतत: नाश हो जाता हैं।इस लिए तू इस मोह रूपी नीद से जाग जा।क्युँकि वैसे ही ईश्वर नें तुझे गिनती के थोड़े से दिन जीनें के लिए दिए हैं।उन्हे भी तू मौज- मस्ती में बिताता जा रहा है।

अगले श्लोक में फरीद जी कहते हैं कि तू इस भोग विलास में धन दौलत पानें की कामनाओं में अपने चित को मत लगा।क्युकि आखिरी समय में इन चीजों से कोई भी तुझे फायदा मिलनें वाला नही है।जब तेरे मरने के बाद तेरे ऊपर मिट्टी डाली जाएगी तो यह चीजें तेरी कोई मदद नही करेगीं।कोई साथ नही देगी।

फरीद जी आगे कहते है कि इन चीजों की जगह तू इस बात का ध्यान कर की आखिर तुझे मौत आनी है और तुझे मौत के बाद वह परमात्मा कहाँ रखे गा।यह तो वह परमात्मा ही जानता है कि तुझे कहा रखे।अर्थात फरीद जी कहना चाहते हैं। दुनिया के सारे भोग विलास और धन दौलत किसी काम के साबित नही होते। मरने के बाद यह तेरे साथ नही जाते।तेरे साथ तो मात्र तेरी प्रभु के प्रति की हुई भक्ति ही साथ जाती है जो तुझे नेक रास्ते पर चलाती है।इस लिए उस मौत को सदा याद रखना चाहिए।

गुरुवार, 15 जनवरी 2009

फरीद के श्लोक- १८

एहु तनु सभो रतु है,रतु बिनु तंनु होइ॥
जो सह रते आपणे,तितु तनि लोभु रतु होइ॥
भै पईऐ तनु खीणु होइ,लोभु रतु विचहु जाइ
जिउ बैसंतरि धातु सुधु होइ,तिउ हरि का भऊ ,
दुरमति मैलु गवाइ॥५२॥

फरीदा सोई सरवरू ढूंढि लहु,जिथहु लभी वथु॥
छपणि ढूंढै किआ होवै,चिकणि ढुबै हथु॥५३॥

फरीदा नंढी कंतु राविउ,वडी थी मुईआसु॥
धनु कूकैंदी गोर में,तै सह मिलीआसु॥५४॥


फरीद जी ने जो पूर्व श्लोकों में रत अर्थात लहु के बारे में कहा है उसी बात को स्पष्ट करने के लिए गुरु ग्रंथ साहिब में गुरु अमरदास जी ने इस श्लोक को यहाँ पर जोड़ा है।कि असल में फरीद जी जिस रत (लहु)की बात कर रहें हैं वह कौन -सा रत है? गुरू जी कहते हैं कि यह सारा शरीर लहु ही है क्योंकि लहु के बिना यह शरीर ,शरीर नही हो सकता।आगे गुरु जी कहते है कि जो अपनें प्रभु में लीन हो जाते हैं असल में उन के भीतर लालच रूपी लहु नही होता।यहाँ पर गुरु जी फरीद जी की बात को ही स्पष्ट कर रहे हैं।आगे कहते है कि ईश्वर के भय से,अर्थात यह कहा जाता है कि ईश्वर सब कुछ देखता है ,इस भय से इस तन का लालच रूपी लहु इस शरीर में नही रह पाता। जिस प्रकार आग धातु को गला कर शुद्ध कर देती है इसी प्रकार प्रभु का आग रूपी भय, हमारे शरीर के दोषों को दूर कर देता है।

अगले श्लोक में फरीद जी कहते हैं कि तुम ऐसे सरोवर की खोज करो जिस सरोवर में डुबकी मार कर तुम कोई कीमती,अमुल्य चीज पा सको।लेकिन यदि तुमनें किसी छप्पड में डुबकी लगाई तो तुम्हारे हाथ सिर्फ कीचड़ ही लगेगा। अर्थात हमें उस परमात्मा को पानें की ही कामना करनी चाहिए,उसी में लीन होनें की ही कामना करनीचाहिए। जिस का कोई मुल्य बयान नही कर सकता।क्यूँकि निहित स्वार्थो के वशीभूत किए गए हमारे सारे प्रयत्न अंतत: बेकार ही साबित होगें।असल मे फरीद जी यहाँ ऐसे लोगों की ओर इशारा कर के हमें बताना चाहते हैं जो लोग रिधि-सिद्धि के पीछे लग कर अपना जीवन गवा देते हैं।वह असल में कीचड़ से ही अपने हाथ सना बैठते हैं।उन के हाथ आखिर में कुछ नही आता।

अगले श्लोक में फरीद जी कहते हैं कि जो स्त्री जवानी के समय अपनें पति के प्रति प्रेम भाव नही रखती वह स्त्री जबजाती है तो उस समय उस की आस भी मर जाती है।फिर वह जब बूढ़ी हो कर मर जाती है तो कब्र में बहुत पछताती है,कि क्यों उस जवानी के समय अपनें पति से उस ने प्रेम न किया।अर्थात फरीद जी हमे समझाने के लिए कहते हैं कि समय रहते ही उस परमात्मा में डूब जाना चाहिए।नही तो समय बीत जानें पर हमारे पास पछताने के सिवा कोई रास्ता नही बचता। तब हम सोचते है कि क्यों हमनें उसे भुलाए रखा।

गुरुवार, 8 जनवरी 2009

फरीद के श्लोक-१७

फरीदा वेख,कपाहै जि थीआ,जि सिरि थीआ तिलाह॥
कमादै अरु कागदै ,
कुनै कोइलिआह॥
मंदे अमल
करेदिआ,एह सजाइ तिनाह॥४९॥
फरीदा कंनि मुसला,सूफु गलि,दिलि काती,गुड़ु वाति॥
बाहरि दिसे चानणा,दिलि
अधिआरी राति ॥५०॥
फरीदा रती रतु निकलै, जे तनु चीरै कोइ॥
जो तन रते रब सिउ।तिन तनि रतु होइ॥५१॥


फरीद जी कहते है कि देख कापाह और तिलों के साथ क्या हो रहा है।तिलों को कोल्हू में पेला जाता है और कपास को बेलनों में बेला जाता है। इसी तर कागज और मिट्टी की हांडी को कोयलों की आग में झोंका जाता है।यह सब सिर्फ इस लिए हो रहा है कि हम उनसे फायदा उठा सके।इसी तरह हमारे सारे काम भी ऐसे ही होते हैं अर्थात अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए ही होते हैं। इस तरह के बुरे कामों को करने,स्वार्थ भरे काम करनें से ऐसी ही सजा हम को मिलनी है।अर्थात फरीद जी कहना चाहते हैं कि स्वार्थ के कारण किया गया कार्य हमेशा दूसरो को तकलीफ देता है और जो काम दूसरों को तकलीफ देता है वह काम बुरा ही होता है।बुरे काम करने वालो को सजा भी भुगतनी पड़ती है।

आगे फरीद जी कहते हैं कि इस दुनिया में लोग बहुत अजीब है यदि उन्हें देखा जाए तो बुरे कामों को करते हुए भी वह अपने कंधे पर धार्मिकता ,गले में मालायें और मुँह मे गुड़ जैसी मीठी जुबान रखे नजर आते हैं,जब की दिल में कैंची जैसी भावनाएं पाले रहते हैं।अर्थात लोगों को ठगनें की भावना रखते हैं।ऐसे लोग बाहर से देखने पर बहुत ही भले प्रतीत होते है।साधु जैसे दिखते हैं।बहुत गुणी दिखते हैं। लेकिन असल में इन के भीतर अंधेरा ही छाया रहता है।अर्थात कुछ लोग साधु का भेस तो बना लेते हैं लेकिन वे अपने जीवन में कभी भी उस परमात्मा को नही साध पाते।लेकिन दिखावा ऐसा करते हैं कि वह बहुत पहुँचे हुए हैं।ऐसे लोगो से फरीद जी हमें सावधान करना चाहते हैं।

आगे फरीद जी कहते है कि असल में जो लोग उस परमात्मा की भक्ति में रम गए हैं। उन के भीतर से जरा -सा लहु भी नही निकलता। चाहे हम उन का पूरा शरीर ही चीर दें।क्यों कि जो उस परमात्मा में रम जाता है उस के तन में लहु नही रहता।अर्थात फरीद जी कहते हैं जिस प्रकार लहु हमारे शरीर मे रहता है ,उसी प्रकार यह स्वार्थ हमारे भीतर भरा रहता है।यह पाप हमारे भीतर भरा रहता है।लेकिन जो लोग प्रभुमय हो जाते हैं। उन के भीतर स्वार्थ और पाप नजर नही आता।असल में फरीद जी हमें सही और गलत की पहचान बताना चाह रहे हैं।