शुक्रवार, 29 जनवरी 2010

कबीर के श्लोक - ७

कबीर दीनु गवाइआ दुनी सिउ,दुनी न चाली साथि॥
पाइ कुहाड़ा मारिआ, गाफिल अपनै हाथि॥१३॥

कबीर जी इस श्लोक मे कहते है कि हम सदा दुनिया दारी में ही लगे रहते है,जिस कारण हम जिस काम के लिए दुनिया मे आए हैं,वही भूल जाते हैं और दुनिया दारी में ही रम जाते हैं।जबकि हम अच्छी तरह जानते है कि इस दुनिया मे किसी ने भी हमारा साथ नही देना जब हम यहाँ से चलने को होगें।अर्थात अंत समय मे हमारा साथ किसी ने नही देना। लेकिन हम फिर भी दुनिया दारी मे लगे हुए ,अपने पाँव पर खुद ही मूर्खो की तरह कुलाहड़ा मार रहे हैं।

इस श्लोक मे कबीर जी कहना चाहते है कि यह जो जीवन हमे मिला है उस का हमे सदुपयोग कर लेना चाहिए। इसे व्यर्थ के कामों मे गँवा कर अपना नुकसान खुद ही नही कर लेना चाहिए। हमे अपने दीन अर्थात उस महा सुख दाता, परमानंद को पाने की कोशिश करनी चाहिए, ना कि दुनियावी राग रंग के क्षणिक सुखों की खातिर अपने समय को खोना चाहिए।

कबीर जह जह हऊ फिरिउ,कउतक ठाउ ठाइ॥
इक राम सनेही बाहरा,ऊजरु मेरै भांइ॥१४॥

कबीर जी कहते हैं कि मैं जहाँ जहाँ भी गया हूँ,मैने वहाँ लोगो को राग रंग में अर्थात व्यर्थ की बातों मे अपना समय गवाते ही देखा है।वैसे वे लोग देखने मे तो ऐसे व्यस्त लगते हैं कि जैसे किसी महत्वपूर्ण कामों मे व्यस्त है,लेकिन परमात्मा के प्रति उन्हे जरा भी प्रेम नही है।कबीर जी कहते हैं कि ऐसे लोगो द्वारा किए गए सभी यत्न अंतत: व्यर्थ ही जाएगें।ऐसे लोगो का उजड़ना निश्चित है।

इस श्लोक मे कबीर जी कहना चाहते हैं कि लोग व्यर्थ के कामों मे लगे हुए है और उस परमात्मा से विमुख हो रखे है।ऐसे लोगो ने उजड़ ही जाना है।क्योकि एक मात्र परमात्मा ही है जहाँ जीव स्थाई रूप से ठहर सकता है।बाकि सभी काम,हमारे यत्न हमे किसी भी स्थान पर सदा के लिए बसने में सहायक नही होने वाले।

शुक्रवार, 22 जनवरी 2010

कबीर के श्लोक - ६

कबीर चंदन का बिरवा भला, बेड़िउ ढाक पलास॥
उइ भी चंदन होइ रहे,बसे जु चंदन पासि॥११॥

कबीर जी इस श्लोक मे कहते है कि चंदन का एक छोटा-सा पौधा भी अपने गुणो के कारण उपयोगी होता है भले ही वह ढाक और पलास जैसे पेड़ -पौधों से घिरा हुआ हो।क्योकि चंदन के पास रहने के कारण वे पेड़ -पौधे भी चंदन के गुणो को ग्रहण करने लगते हैं जिस कारण उन आस -पास के पौधो की उपयोगिता भी बड़ जाती है।

इस श्लोक मे कबीर जी कहना चाहते है कि गुणी व्यक्ति अर्थात अंहकार रहित व्यक्ति के संपर्क मे जो लोग भी आते हैं वे अपने अपने स्वाभावो अनुसार उस गुणी व्यक्ति के गुणों को ग्रहण करने लगते हैं। जिस कारण वे भी एक दिन उसी के समान हो जाते हैं।अर्थात दूसरो के गुणो को ग्रहण करने वाले (दुसरो के गुणो को वही ग्रहण करता है जिस के भीतर नम्रता होती है) अच्छी संगत मे रहने के कारण हमेशा अच्छे गुणो को आत्मसात कर लेते हैं।

कबीर बांसु बडाई बूडिआ,इउ मत डूबहु कोइ॥
चंदन कै निकटे बसै,बांसु सुगंधु न होइ॥१२॥

कबीर जी इस श्लोक मे कहते है कि दुसरी ओर बास का पौधा भी है जो अपनी लम्बाई के कारण अंहकार मे डूबा हुआ है।भले ही वह भी चंदन के पास ही रहता है लेकिन फिर भी अपने ग्राही गुणो के अभाव के कारण,चंदन के गूणो को आत्मसात नही करता।कबीर जी कहते है कि हमे इस बास की तरह नही होना चाहिए।

कबीर जी इस श्लोक मे कहना चाहते है कि यदि हमारे अंदर नम्रता है, दुसरो के आगे झुक कर,अंहकार रहित लोगो के संपर्क मे रह कर,उन के गुणो को आत्मसात करने की प्रवृति है तो हम लाभ उठा सकते हैं लेकिन यदि हमारा स्वाभाव अंहकार से भरा है तो हम अपने अंह्कार के कारण किसी के आगे नही झुकेगे और ना ही किसी दुसरे के अच्छे गुणो को ग्रहण ही करेगे।क्योकि अंहकारी व्यक्ति स्वयं को ही सब कुछ मानता है,वह ऐसे किसी गुण को भी ग्रहण नही करता जो उस के अंहकार पर चोट करता हो।इस लिए कबीर जी हमे कहना चाहते है कि अंहकारी लोग भले ही किसी अंहकार रहित व्यक्ति के संपर्क मे रहते हो,लेकिन वे उन के गुणो को कभी गृहण नही करते।


शुक्रवार, 15 जनवरी 2010

कबीर के श्लोक - ५


कबीर सोई मारीऐ,जिह मूऐ सुखु होइ॥
भले भले सभु को कहै,बुरे न मानै कोइ॥९॥

कबीर जी इस श्लोक मे कहते है कि हमे उसे मारना चाहिए जिस के मरने से हमे सुख की प्राप्ती होती है।जिस के मरने पर सभी लोग भला मानते है और उस के हमारे द्वारा मारे जाने पर हमे कोई बुरा भी नही कहता।

यहाँ कबीर जी हमे पिछले श्लोक के संदर्भ मे ही कह रहे हैं कि हमे अपने अंहकार को ही मारना चाहिए।क्योकि इस के मरने से ही हमे सुख की प्राप्ती होती है।जब हम इसे मार देते हैं तो हमारा व्यवाहर भी सभी के प्रति बदल जाता है। तब हम किसी का बुरा नही सोचते।किसी के साथ स्वार्थ के कारण व्यवाहर नही करते।हमेशा दूसरो मे और अपने को एक समान देखने लगते हैं। हमे किसी के कड़वे वचन भी दुख नही पहुँचा सकते। हमारे इस व्यवाहर को देख कर सभी हमे अच्छा मानने लगते है और कोई भी हमे बुरा नही कहता।इस लिए इस अंहकार को ही मरना चाहिए।


कबीर राती होवहि कारीआ,कारे ऊभे जंत॥
लै फाहे उठि धावते,सि जानि मारे भगवंत॥१०॥



कबीर जी इस श्लोक में कह रहे हैं कि जिस प्रकार राते काली होती हैं, और इस काली रात मे जो जीव विचरण करते हैं या पैदा होते हैं, वह भी काले ही होते हैं अर्थात उन का स्वाभाव भी बुरा ही होता है। ऐसे जीव हमेशा दूसरों के पीछे पकड़ने के लिए या अपने आधीन करने के लिए सदा भागते रहते हैं। लेकिन वे नही जानते कि परमात्मा ने उन्हें पहले ही मारा हुआ है अर्थात अपनी दुर्बुद्धि के कारण वह परमात्मा से,सुख से दूर हो चुके हैं।

पहले श्लोको मे कबीर जी ने अंहकार से मुक्त होने की दशा का वर्णन किया है यहाँ कबीर जी हमे अंहकार ग्रस्त लोगो के बारे मे कहना चाहते है कि जो लोग अंहकार से ग्रस्त होते है, उन का स्वाभाव वैसा ही होता है जैसा कि काली रातो मे पनपनें वाले जीवों का होता है। ऐसे अंहकार ग्रस्त लोग सदा दूसरो को परेशान करने की कोशिश मे ही लगे रहते हैं। उन्हे दूसरो को सताने मे, मारने में ही सुख मिलता नजर आता है। जबकि वे नही जानते कि परमात्मा के दूर होने के कारण वे पहले ही मरे हुए के समान ही हैं अर्थात अंहकार के कारण विषय विकारों के आधीन ही रहते हैं। जिस कारण हमेशा दुखी रहते हैं।


गुरुवार, 7 जनवरी 2010

कबीर के श्लोक -४

कबीर सब ते हम बुरे,हम तजि भले सभु कोए॥
जिनि ऐसा करि बूझिआ,मीतु हमारा सोए॥७॥

इस श्लोक में कबीर जी कहते है कि सब से बुरे हम ही होते है,हमे छोड़ कर बाकि सभी तो भले ही हैं।जब यह बात समझ मे आती है,उस समय वह सभी लोग अपने लगने लगते है जो इस प्रकार जान जाते हैं।

यहाँ कबीर जी अंहकार छोड़ने के बाद के अपने अनुभव को बता रहे हैं।कि जब हम वास्तविकता को जान लेते हैं तभी हमे पता चलता है कि कि बुराई तो हमारे मन में थी,जो हमारे अंहकार के कारण हमारे भीतर पैदा हुई थी।क्योकि बुराई हमारे भीतर थी इसी लिए हमे अपने को छोड़ बाकी सभी मे बुराईयां नजर आ रही थी।जैसी सोच, जैसी नजर, हमारे भीतर होती है हम बाहर भी वैसा ही देखने लगते हैं।लेकिन जब यह अंहकार छूट जाता है तो हर जगह वही नजर आने लगता है जो हमारे भीतर और हर कण कण मे मौजूद है।वह तो समान भाव से सभी मे मौजूद है।जब ऐसी समझ आ जाती है तब इस अवस्था मे पहुँचे हुए सभी लोग हमे मित्र के समान लगने लगते हैं।

कबीर आई मुझहि पहि,अनिक करे करि भेस॥
हम राखे गुर आपने,उनि कीने आदेसु॥८॥

कबीर जी इस श्लोक में अंहकार के स्वरूप के बारे मे बता रहे हैं कि यह अंहकार अनेक रूपो मे हमारे भीतर आ जाता है। लेकिन हम इस से तभी बच पाते है जब परमात्मा हमे इस से बचाता है। इस अंहकार से तभी छुटकारा मिलता है जब वह परमात्मा आदेश देता है,उस अंहकार को आज्ञा देता है। तभी हम इस से मुक्त हो सकते हैं।

इस श्लोक मे कबीर जी हमे समझाना चाहते है कि अंहकार को समझ्ना इतना आसान नही है क्योकि यह अपना रूप बदल बदल कर हमे धोखा देता रहता है। जैसे हमारे पूजा पाठी हो जाने से, दानी हो जाने से, लोक भलाई के काम करने से, हमे ऐसा लगने लगता है यह अंहकार मिट गया। लेकिन वास्तव मे ऐसा होता नही है क्योकि हम इन शुभकामों को कर के भी अंहकार से भरे रहते हैं हमे ऐसा एहसास होता रहता है कि देखो हम कितना भलाई का नेक काम कर रहे हैं।जब हमारे मन मे इन कामों को कर के लोगो की प्रशंसा पाना और परमार्थ के काम कर के पुण्य कमाने की भावना हमारे भीतर होती है तो ऐसी भावना ही अंहकार बन जाती है। इसी लिए कबीर जी कह रहे है कि उस परमात्मा की कृपा के बिना इस से मुक्ती संभव नही होती।जब तक सभी ओर से मन हटा कर उस परमात्मा से एकाकार स्थापित नही हो जाता तब तक इस अंहकार से नही बचा जा सकता। "यह तभी संभव होता है जब वह परमात्मा आदेश करता है।" कबीर जी यह बात यहाँ इस लिए कह रहे हैं कि कहीं हम इस अंहकार को छोड़ने के बाद यह ना समझने लगे कि देखो "हमने" अंहकार को छोड़ दिया। इसी "हमने" के भाव के कारण कहीं हमारे भीतर एक नया अंहकार पैदा ना हो जाए।इसी लिए उपरोक्त बात कबीर जी हमे कह रहे हैं।