शनिवार, 28 मई 2011

कबीर के श्लोक - ७१

कबीर कसतूरी भइआ भवर भए सभ दास॥
जिउ जिउ भगत कबीर की तिउ तिउ राम निवास॥१४१॥

कबीर जी कहते हैं कि  जब कोई उस परमात्मा कि भक्ति मे रमता है तो वह कस्तूरी की भाँति हो जाता है और भँवरे के समान वह भी गंध अर्थात भक्ति का दास बन जाता है। जैसे जैसे वह इस भक्ति मे डूबता है वैसे वैसे ही वह उसका निवास बनने लगता है ।

कबीर जी हमे समझाना चाहते है कि जब कोई भक्त उस प्रभू की भक्ति मे जुड़ता है तो बाकी के सभी आकर्षण फीके पड़ जाते हैं। फिर वह भक्त निरन्तर उसी भक्ति के प्रति आकर्षित हो कर उसी मे रमनें लगता है।


कबीर गहगचि परिउ कुटंब कै . कांठै रहि गयिउ रामु॥
आइ परे धरम राइ के .बीचहि धूमा धाम॥१४२॥

कबीर जी कहते हैं कि लेकिन जीव अपने परिवार  व सबंधों के प्रति सदा मोहित रहता है। उसे सदा उन्ही की चिन्ता लगी रहती है। जिस कारण वह उस परमात्मा की भक्ति के प्रति बिल्कुल ध्यान ही नही दे पाता।उस परमात्मा का ध्यान उसे तब आता है जब उसे ऐसा आभास होने लगता है कि अब मेरा अंत काल निकट ही है।

कबीर जी हमे समझाना चाहते हैं कि जीव के लिये  परमात्मा की भक्ति निश्चित ही मनुष्य को सत्य की ओर ले जाती है जिस से मनुष्य सही रास्ते पर चलने लगता है। लेकिन यह तभी होता है जब मनुष्य परिवार व संबधो बंधनों से अपने आप को बचाता हुआ चलता है। अन्यथा वह इस जाल मे ही फँसता चला जाता है और अंतकाल मे ही मृत्यू भय के कारण उस परमात्मा की ओर ध्यान देता है। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होती है।अत: समय रहते ही हमे सचेत हो जाना चाहिए।

शनिवार, 21 मई 2011

कबीर के श्लोक - ७०

कबीर ऐसा जंतु इकु देखिआ, जैसी धोई लाख॥
दीसै चंचल बहु गुना, मति हीना नापाक॥१३९॥

कबीर जी कहते हैं कि मैने ऐसा मनुष्य देखा है जो ऐसा गुणी लगता है जैसे धोई हुई लाख होती है। उसे देख कर ऐसा आभास होता है मानों यह बहुत साफ और सुलझा हुआ आदमी है।देखने पर वह व्यक्ति बहुत उत्साहित व गुणी नजर आता है।लेकिन वास्तव मे वह बुद्धिहीन व मलीन सोच वाला है।

कबीर जी हमे समझाना चाहते हैं कि सभी गुण व समझदारी होने के बाद भी जिस मनुष्य के अंदर उस परमात्मा की याद नही है ऐसा मनुष्य समझदार होते हुए भी समझदार नही हो सकता। क्योंकि अंतत: व्यक्ति अपने गुणों व समझदारी का उपयोग अपनी बुद्धि से ही करता है और ईश्वर से वंचित बुद्धि द्वारा किया गया कोई भी कार्य कभी भी क्ल्याणकारी नही होता।

कबीर मेरी बुधि कऊ जमु न करै तिसकार॥
जिनि इहु जमूआ सिरजिआ सु जपिआ परविदगार॥१४०॥

कबीर जी आगे कहते हैं कि मेरी समझ को यम भी अर्थात जिस के कारण सभी को मृत्यू का भय सताता रहता है वह यम भी मेरा अपमान अर्थात मुझे हतोत्साहित नही कर सकता। क्योंकि मै उस परमात्मा की भक्ति करता हूँ जिसने इस यम को जन्म दिया है।

कबीर जी हमे समझाना चाहते हैं कि यदि मनुष्य सर्वगुण संम्पन्न होते हुए भी परमात्मा से दूर है....उसे भूला हुआ है तो उसके द्वारा किया गया कोई भी कार्य अंतत: क्ल्याणकारी साबित नही होता। जबकि उस परमात्मा से एकाकार हुआ मनुष्य कभी गलत कार्य कर ही नही सकता। अर्थात कबीर जी कहना चाहते है कि उस परमात्मा की भक्ति करने मे ही हमारा भला हो सकता है।

शनिवार, 14 मई 2011

कबीर के श्लोक - ६९

कबीर कागद की उबरी,मसु के करम कपाट॥
पाहन बोरी पिरथमी, पंडित पाड़ी बाट॥१३७॥

कबीर जी कहते हैं कि पंडितों ने लोगों के लिये कागज का कैदखाना और स्याही के दरवाजे शास्त्रो द्वारा बना डाले हैं और लोगों को पत्थरों के पीछे लगा कर डुबा दिया है। वे सब इस लिये कर रहे हैं ताकि इन कर्म-कांडो के कारण उन्हें दान-दक्षिणा आदि मिलती रहे।

कबीर जी कहना चाह्ते है कि पंडितो ने लोगो को कर्म-कांडो के जाल मे उलझा रखा है। शास्त्रो-वेदो पर अमल करने की बजाय वे उसे रटवा रहे हैं,जिस से कोई लाभ होने वाला नही है।इस तरह पत्थरों की मूर्तियों की पूजा करने की सीख देकर ये पंडित धरती के लोगो को डुबा रहे हैं।ऐसे कर्म कांडो मे उलझा कर वे मात्र अपनी दुकान चलाने मे ही लगे हुए है।

कबीर कालि करंता अबहि करु,अब करता सुइ ताल॥
पाछै कछु न होइगा,जऊ सिर परि आवै कालु॥१३८॥

कबीर जी कहते हैं कि परमात्मा का सिमरन करने मे आलस नही करना चाहिए । जो काम कल करना है उसे अभी ही कर ले। यदि अभी करना है तो इसी समय करना शुरू कर दे। कही ऐसा ना हो कि इस काम को तू कल पर टालता जाये। यदि ऐसा किया तो जब तेरा अंत समय आयेगा उस समय तुझे पछतावा होगा।

कबीर जी हमे समझाना चाह्ते है कि परमात्मा का ध्यान या सिमरन करने मे हमें जरा भी आलस नही करना चाहिए। इसे टालना नासमझी ही होगी। क्योकि जीव का लक्ष्य ही परमात्मा के साथ एकाकार होना है। तभी उसे शांती प्राप्त हो सकती है। अन्यथा हमे अपने जीवन के अंत काल मे सिवा पछताने के कुछ नही रह जायेगा।

शनिवार, 7 मई 2011

कबीर के श्लोक - ६८


कबीर ठाकुरु पूजहि मोलि ले,मन हठि तीरथ जाहि॥
देखा देखी सांग धरि, भूले भटका खाहि॥१३५॥

कबीर जी कहते हैं कि कुछ लोग ठाकुरजी की मूर्तीयां मोल लेकर उन्हे पूजते हैं और कुछ लोग यत्नपूर्वक तीर्थ यात्राओं पर जाते हैं। ये लोग मात्र देखा देखी तथा लोक दिखावे के लिये ऐसा करते हैं। इन से कुछ फायदा नही होता।जीव इन कर्मकांडो मे भटकता रह जाता है।

कबीर जी कहना चाहते हैं कि यदि मन मे किसी कार्य के लिये श्रदा ना हो और वह फिर भी लोकदिखावे के लिये ये सब कर्मकांड करता रहता है जिस से लोग उसे धार्मिक व परमात्मा का भक्त माने, तो ऐसा कोई भी कार्य उस परमात्मा तक पहुँचने मे सहायता नही करता हैं, बल्कि ऐसा करने से जीव भटकाव मे ही पड़ता है।

कबीर पाहनु परमेसुरु कीआ,पूजै सभु संसारु॥
इस भरवासे जो रहे, बूडे काली धार॥१३६॥

कबीर जी आगे कहते हैं कि लोगों ने परमेश्वर को पत्थर बना दिया है और उसी की ये सारा संसार पूजा कर रहा है। जिन लोगो को ये भरोसा है कि ये पत्थर की मूर्तीयां ही सब कुछ हैं ऐसे लोग बहुत गहरे पानी मे ही कहीं खो जायेगें।

कबीर जी समझाना चाहते हैं कि परमात्मा को मात्र पत्थर मान कर पूजने वाले को कोई लाभ नही होने वाला। क्योकि परमात्मा तो सर्वव्याप्त है,सब जगह मौजूद है। ऐसे मे परमात्मा को किसी सीमित दायरे मे बाँध कर हम उसे बहुत छोटा कर देते हैं। ऐसे लोग परमात्मा को नही पा सकते बल्कि उल्टे भटकाव मे पड़ जाते हैं|